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भारतीय संस्कृति में पर्यावरण शब्द का प्रयोग प्राकृतिक पर्यावरण तक ही सीमित न होकर प्राणि-जगत् तथा मानवजीवन से संबंधित आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक आदि सभी क्षेत्रों के लिए हुआ है। इन समस्त क्षेत्रों में पर्यावरण प्रदूषण का मूल कारण आत्मिक विकार है। आत्मिक विकार का क्रियात्मक रूप विषय - भोग है। भोगवादी संस्कृति ने ही समस्त पर्यावरण प्रदूषणों को जन्म दिया है। उन प्रदूषणों से मुक्ति पाने का उपाय जैन-दर्शन में गृहस्थ धर्म है। प्रस्तुत लेख में इसी पर विस्तार से विवेचन किया जा रहा है।
जैन-दर्शन में पर्यावरण-संरक्षण
पर्यावरण शब्द 'परि' उपसर्गपूर्वक 'आवरण' से बना है, जिसका अर्थ है - जो चारों ओर से आवृत्त किए हो, चारों ओर छाया हुआ हो चारों का शाब्दिक अर्थ वायुमंडल होता है, परंतु वर्तमान में वातावरण शब्द व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है, जैसे कहा जाता है कि व्यक्ति जैसे वातावरण में रहता है उसके वैसे ही भले-बुरे संस्कार पड़ते हैं । इस रूप में पर्यावरण शब्द भारत के प्राचीन धर्मों में वातावरण से अर्थात् मानव-जीवन से संबंधित सभी क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। पर्यावरण दो प्रकार का होता है परिशुद्ध एवं अशुद्ध । जो पर्यावरण जीवन के लिए हितकर होता है वह परिशुद्ध पर्यावरण है और जो पर्यावरण जीवन के लिए अहितकर होता है, वह अशुद्ध पर्यावरण है। इसी अशुद्ध पर्यावरण को प्रदूषण कहते हैं।
पाश्चात्य देशों में प्रदूषण शब्द प्राकृतिक प्रदूषण का सूचक है। परंतु भारतीय धर्मों में विशेषतः जैनधर्म में पर्यावरण- प्रदूषण केवल प्रकृति तक ही सीमित नहीं है । प्रत्येक आत्मिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, आर्थिक आदि जीवन से संबंधित समस्त क्षेत्र इसकी परिधि में आते हैं। जीवन से संबंधित ये सभी क्षेत्र परस्पर जुड़े हुए हैं। इनमें से किसी भी एक क्षेत्र में उत्पन्न हुए प्रदूषण का प्रभाव अन्य सभी क्षेत्रों पर पड़ता है। जैन - दर्शन में प्रदूषण, दोष, पाप, विकार, विभाव, एकार्थक शब्द हैं । जैन दर्शन में इन सभी क्षेत्रों के प्रदूषणों का मूल कारण
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कन्हैयालाल लोढ़ा ......
आत्मिक प्रदूषण को माना गया है, शेष सभी प्रदूषण इसी प्रदूषण
के कटु फल, फूल, , पत्ते व काँटे हैं। अतः जैन-धर्म इसी मूल प्रदूषण को दूर करने पर जोर देता है। इस प्रदूषण के मिटने पर ही अन्य प्रदूषण मिटना संभव मानता है, जबकि अन्य संस्थाएँ, सरकारें, राजनेता प्राकृतिक प्रदूषण को मिटाने पर जोर देते हैं। परंतु उनके इस प्रयत्न से प्रदूषण मिट नहीं पा रहा है। एक रूप में मिटने लगता है तो दूसरे रूप में फूट पड़ता है, केवल रूपान्तर मात्र होता है, जबकि जैन - वाङ्मय में प्रतिपादित सूत्रों के पालन से सभी प्रकार के प्रदूषण समूल रूप से नष्ट होते हैं। इसी विषय का अति संक्षिप्त रूप में ही यहाँ विवेचन किया जा रहा है।
ऊपर कह आए हैं कि समस्त प्रदूषणों का मूल कारण आत्मिक प्रदूषण अर्थात् आत्मिक विकार है। आत्मिक विकार हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि प्रमाणित है, इन्हें ही पाप भी कहा जाता है। इन सब पापों की जड़ है विषय कषाय से मिलने वाले सुखों के भोग की आसक्ति । भोगों की पूर्ति के लिए भोग -सामग्री व सुविधाएँ चाहिए। भोगजन्य, सुख सामग्री व सुविधा - प्राप्ति के लिए धन सम्पत्ति चाहिए। धन प्राप्त करने के लोभ से ही मानव हिंसा, झूठ, चोरी, संग्रह, परिग्रह, शोषण आदि दूषित कार्य करता है । स्वास्थ्य के लिए हानिकारक वस्तुओं का उत्पादन करता है, असली वस्तुओं में हानिप्रद नकली वस्तुएँ मिलाता है और इसी प्रकार के अनेक प्रदूषणों को जन्म देता है । वर्तमान में जितने भी प्रदूषण दिखाई देते हैं, इन सबके में मूल भोगलिप्सा व भोग-वृत्ति ही मुख्य है।
जब तक जीवन में भोग वृत्ति की प्रधानता रहेगी तब तक भोगसामग्री प्राप्त करने के लिए लोभवृत्ति भी रहेगी। कहा भी है कि लोभ पाप का बाप है अर्थात् जहाँ लोभ होता है वहाँ पाप की उत्पत्ति होती ही है। अतः प्रदूषण के अभिशाप से बचना है तो पापों से बचना ही होगा, पापों को त्यागना ही होगा। पापों का त्याग ही जैनधर्म की समस्त साधनाओं का आधार व सार पापों से मुक्ति को ही जैनधर्म में मुक्ति कहा गया है। अतः जैनधर्म की समस्त साधनाएँ, प्रदूषण को दूर करने वाली है ।
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यतीन्द्रसूरि सरक ग्रन्थ जैनधर्म में अनागार एवं आगार दो प्रकार के धर्म कहे गये हैं । अनागारधर्म को धारण करने वाले साधु होते हैं जो पापों के पूर्ण त्याग की साधना करते हैं। आगार-धर्म को धारण करने वाले गृहस्थ होते हैं, उनके लिए बारह व्रत धारण करने एवं कुव्यसनों त्याग का विधान है। यही आगार (गृहस्थ ) धर्म प्रदूषणों से बचने का उपाय है। इसी परिप्रेक्ष्य में यहाँ बारह व्रतों का विवेचन किया जा रहा है-
स्थूल प्राणातिपात का त्याग - पहला व्रत है स्थूल प्राणातिपात का त्याग करना। प्राणातिपात उसे कहा जाता है जिससे किसी भी प्राणी के प्राणों का घात हो । प्राण दस कहे गए हैं -- १. श्रोत्रेन्द्रियबल प्राण, २. चक्षुरिन्द्रियबल प्राण, ३. घ्राणेन्द्रियबल प्राण, ४. रसनेन्द्रियबल प्राण, ५. स्पर्शेन्द्रियबल प्राण, ६. मनबल प्राण, ७. वचनबल प्राण, ८. कायाबल प्राण, ९. श्वासबल प्राण और १०. आयुष्य प्राण। इन दस प्राणों में से किसी भी प्राण को आघात लगे, हानि पहुँचे वह प्राणातिपात है। यह प्राणातिपात प्राणी का अर्थात् चेतना का ही होता है, निष्प्राण (अचेतन) का न ही, क्योंकि अचेतन जगत पर प्राकृतिक प्रदूषण या अन्य किसी भी प्रकार के प्रदूषण का कोई भला बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है, नहीं उसे सुख-दुख होता है। अतः प्रदूषण का संबंध प्राणी से ही है। इस प्रकार के प्रत्येक प्रदूषण से प्राणी के ही प्राणों का अतिपात होता है। इसी प्राणातिपात को वर्तमान में प्रदूषण कहा जाता है। अतः प्रत्येक प्रकार का प्रदूषण प्राणातिपात है, प्राणातिपात से बचना प्रदूषण से बचना है, प्रदूषण से बचना प्राणातिपात से बचना है।
जैन-दर्शन में समस्त पापों, दोषों तथा प्रदूषणों का मूल प्राणातिपात को ही माना है। यहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि प्राणी प्राणातिपात या प्रदूषण क्यों करता है? उत्तर में कहना होगा कि प्राणी को शरीर मिला है, इससे उसे चलना, फिरना, बोलना, खाना, पीना, मल विसर्जन करना आदि कार्य व क्रियाएँ करनी होती हैं । परंतु इन सब क्रियाओं में प्रकृति का सहज रूप में उपयोग करें तो न तो प्रकृति को हानि पहुँचती है और न प्राण शक्ति का ह्रास होता है। इससे प्राणी का जीवन तथा प्रकृति का संतुलन बना रहता है। यही कारण है कि लाखों-करोड़ों वर्षों से इस पृथ्वी पर पशु-पक्षी, मनुष्य आदि प्राणी रहते आए हैं, परंतु प्रकृति का संतुलन बराबर बना रहा। पर जब प्राणी के जीवन
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आधुनिक
में जैनधर्म
का लक्ष्य सहज प्राकृतिक जीवन से हटकर भोग भोगना हो जाता है तो वह भोग के सुख के वशीभूत होकर अपने हितअहित को, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य को भूल जाता है और वह कार्य भी करने लगता है, जिसमें उसका स्वयं का ही अहित हो । उदाहरणार्थ- किसी भी मनुष्य से कहा जाये कि हम तुम्हारी आँखों का मूल्य पाँच लाख रुपए देते हैं, तुम अपनी दोनों आँखें हमें बेच दो तो कोई भी आंखें बेचने को तैयार नहीं होगा । अर्थात् वह अपनी आँखों को किसी भी मूल्य पर बेचने को तैयार नहीं है। वह आँखों को अमूल्य मानता है। परंतु वही मनुष्य चक्षु इंद्रिय के सुखभोग के वशीभूत हो टेलीविजन, सिनेमा आदि को अधिक समय देकर अपनी आँखों से अधिक काम लेकर उनकी शक्ति क्षीण कर देता है। इस प्रकार वह अपनी आँखों की अमूल्य प्राण की शक्ति को हानि पहुँचाकर अपना ही अहित कर लेता है। यही बात कान, जीभ आदि समस्त इंद्रियों के विषयों के सेवन से होने वाले प्राणों के अतिपात पर घटित होती है। जैन दर्शन ने पृथ्वी, पानी, हवा तथा वनस्पति में जीव माना है, इन्हें प्राणवान् माना है। इन्हें विकृत करने को इनका प्राणातिपात माना है। परंतु मनुष्य अपने सुख-सुविधा व संपत्ति - प्राप्ति के लोभ से इनका प्राण हरण कर इन्हें निर्जीव, निष्प्राण व प्रदूषित कर रहा है यथा-
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पृथ्वीकाय का प्राणातिपातप्रदूषण -
कृषि - भूमि में रासायनिक खाद एवं एण्टीबायोटिक दवाएँ डालकर भूमि को निर्जीव बनाया जा रहा है जिससे उसकी उर्वरा - शक्ति प्राणशक्ति नष्ट होती है। परिणामस्वरूप भूमि बंजर हो जाती है फिर उसमें कुछ भी पैदा नहीं होता है तथा रासायनिक खाद से पैदा हुई फसलें शरीर के लिए हानिकारक एवं प्रदूषित होती है।
भूमि का दोहन करके खाने खोदकर खनिज पदार्थ, लोह, ताँबा, कोयला, पत्थर आदि प्रतिवर्ष करोड़ों टन निकाला जा रहा है। उसे निर्जीव बनाया जा रहा है तथा उसे कौड़ियों के भाव विदेशों को अपने देश में उपभोग की वस्तुएँ प्राप्त करने एवं विदेशी मुद्रा अर्जित करने के लिए बेचा जा रहा है। भले ही इस भूमि - दोहन में भावी पीढ़ियों के लिए खनिज पदार्थ न बचे, कारण यह कि खनिज पदार्थ नए पैदा नहीं हो रहे हैं और भावी पीढ़ियाँ इन पदार्थों के लिए तरस - तरस कर मरें, अपने पूर्वजों इस दुष्कर्म का फल अत्यंत दुःखी होकर भोगें । इस बात की
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ चिंता वर्तमान पीढ़ी व सरकारों को कतई नहीं है। यही बात पेट्रोलियम पदार्थों पर भी घटित होती है उनका भी इसी प्रकार भयंकर दोहन हो रहा है। आज विश्व में पचास करोड़ कारें, अरबों दुपहिया वाहन तथा करोड़ों कारखानों में अरबों टन पेट्रोल जलाया जा रहा है, जिससे पेट्रोल के भण्डार खाली होते जा रहे हैं, इससे एक दिन भावी पीढ़ियों के लिए कुछ भी नहीं बचेगा । इस प्रकार पेट्रोल तथा लोहा आदि धातुओं के दोहन से होने वाला अभाव जलवायु प्रदूषण व तापमान वृद्धि का दुष्प्रभाव भावी पीढ़ियों के लिए अभिशाप बनने वाला है।
अपकाय का प्राणातिपात- प्रदूषण -
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जैन- दर्शन के अनुसार जल में अन्य पदार्थ मिलने से अपकाय के प्राणों का हरण होना माना गया है, यही जलप्रदूषण है। वर्तमान में धन कमाने के लिए बड़े-बड़े कारखाने लगे हैं, उनमें प्रतिदिन करोड़ों-अरबों लीटर जिस जल का उपयोग होता है, वह सब जल प्रदूषित हो जाता है। रासायनिक पदार्थों के संपर्क से तथा नगर के गंदे नालों का जल मल-मूत्र आदि गंदगी से दूषित होता जा रहा है। यह दूषित जल धरती में उतरकर कुंओं के जल को तथा नदी में गिरकर नदी के जल को दूषित करता जा रहा है। दूषित जल के कीटाणुओं का नाश करने के लिए पीने के पानी की टंकियों में पोटेशियम परमेगनेट मिलाया जा रहा है जो स्वास्थ्य के लिए अहितकर है। नलों से भी जल का बहुत अपव्यय होता है। यह सब जल का प्रदूषण ही है। जैन धर्म में एक बूँद जल भी व्यर्थ बहाना पाप तथा बुरा माना गया है। अतः जैनधर्म के सिद्धांतों का पालन किया जाए तो जल के प्रदूषण से पूर्णतः बचा जा सकता है।
वायुकाय का प्राणातिपातप्रदूषण -
वायु में विकृत तत्त्व मिलने से वायुकाय के प्राणों का तपात होता है, यही वायुप्रदूषण है। बड़े कारखानों की चिमनियों से लगातार विषैला धुआँ निकलकर वायु को दूषित करता जा रहा है, करोड़ों कारखानों में विषैली गैसों का उपयोग रहा है। वेगैसें वायु में मिलकर इसकी प्राणशक्ति का क्षय कर रही हैं। इस प्रदूषण के प्रभाव से ध्रुवों में ओजोन परत भी क्षीण हो गई है, उसमें छेद होते जा रहे हैं, जिससे सूर्य की हानिकारक किरणें सीधे मानव-शरीर पर पड़ेंगी जिसके फलस्वरूप केंसर आदि
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आधुनिक सन्दर्भ में जैनवर्स
भयंकर असंख्य, असाध्य रोगों का खतरा उत्पन्न हो जाने वाला है। वायु प्रदूषण से नगरों में तो नागरिकों को श्वास लेने के लिए स्वच्छ वायु मिलना भी कठिन हो गया है और दम घुटने लगता है, जिससे दमा, क्षय आदि रोग भयंकर रूप में फैलने लगे हैं। जैन दर्शन में इस प्रकार के वायु प्रदूषण को पाप माना गया है और इस पाप से बचने के लिए उपदेश दिया गया है।
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वनस्पतिकाय का प्राणातिपात- प्रदूषण
जैनागम आचारांगसूत्र के प्रथम अध्ययन में वनस्पति की तुलना मनुष्य जीवन से की गई है जैसे मनुष्य का शरीर बढ़ता है, खाता है, उसी प्रकार वनस्पति भी बढ़ती है, भोजन करती है। अतः वनस्पति को सजीव माना गया है तथा इसके संरक्षण का विधान है। परंतु वर्तमान में वनस्पतिकाय का प्राणातिपात भयंकर रूप से हो रहा है। लकड़ी के प्रलोभन से जंगल काटे जा हैं। पहले जहाँ पहाड़ों पर व समतल भूमि पर घने जंगल थे, जिन्हें पार करना कठिन था, जिन्हें अटवी कहा जाता था। उनका तो आज नाम-निशान ही नहीं रहा। जो जंगल बचे और जो वन सरकार के द्वारा सुरक्षित घोषित किए गए हैं उन वनों में भी चोरी छिपे भयंकर कटाई हो रही है। इसका प्रभाव जलवायु पर पड़ा है। इनके कट जाने से आर्द्रता कम हो गई जिससे वर्षा में बहुत कमी हो गई है। घने जंगलों में लगे वृक्ष प्रदूषित वायु का कार्बनडाइ - ऑक्साइड ग्रहण कर बदले में ऑक्सीजन देकर वायु को शुद्ध करते थे, वह शुद्धिकरण की प्रक्रिया अति धीमी हो गई है। फलतः वायु में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है जो मानव-जाति के स्वास्थ्य के लिए अति हानिकारक
रासायनिक खाद एवं कीटनाशक दवाइयाँ डालने से कृषि में अनाज, फल, फूल, व दालों की संरचना में उनका दूषित प्रभाव बढ़ता जा रहा है जो स्वास्थ्य के लिए अति हानिकारक है तथा पौष्टिक तत्त्वों - विटामिन, प्रोटीन, कैलोरी का भी घातक है। यही कारण है कि अमेरिका में रासायनिक खाद से उत्पन्न हुए गेहूँ के भाव से बिना रासायनिक खाद में उत्पन्न हुए गेहूँ का
मूल्य आठ गुना है।
यसकाय-प्राणातिपात -
दो इंद्रियों से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव जैसे केंचुए, चींटी, मधुमक्खी, भौरे, चूहे, सर्प, पक्षी, पशु आदि चलने फिरने
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यतीन्दगरिमारक गत आवृनिक गन्दर्भ - वाले जीव त्रसकाय कहे जाते हैं। इन जीवों की उत्पत्ति प्रकृति ३. अचौर्य व्रत - से स्वतः होती है और ये सभी जीव फसल का संतुलन बनाए
अपहरण करना चोरी है। वर्तमान में अपहरण के नए-नए रखने में सहायक होते हैं। केंचुआ जीव भूमि की उर्वरा-शक्ति
रूप निकल आए हैं। व्यापार द्वारा उपभोक्ताओं के धन का बढ़ाते हैं। आज दवाइयों से इन जीवों को मार दिया जाता है,
अपहरण तो किया ही जाता है। कल कारखानों में श्रमिकों को जिससे पैदावार में असंतुलन हो गया है तथा जीवों की अनेक
श्रम का पूरा प्रतिफल न देकर उनके श्रम का भी अपहरण किया प्रजातियाँ लुप्त हो गई हैं।
जाता है। उनकी विवशता का लाभ उठाया जाता है। जीवन - जैन-धर्म में उपर्युक्त सब प्रकार के जीवों का प्राणातिपात रक्षक दवाइयों के बीस, तीस गुने दाम लेकर धन का अपहरण करने रूपी प्रदुषणों के त्याग का विधान किया गया है। यदि इस किया जाता है तथा नकली दवाइयाँ बनाकर रोगियों को मृत्यु व्रत का पालन किया जाए और पृथ्वी, जलवायु, वनस्पति आदि के मुख में धकेला जा रहा है। लाटरी के द्वारा गरीबों के कठिन को प्रदूषित न किया जाए, इनका हनन न किया जाए तो मानव श्रम से की गई कमाई का अपहरण किया जा रहा है। संक्षेप में जाति प्राकृतिक प्रदूषणों से सहज ही बच सकती है। फिर कहें तो जितने भी शोषण के तरीके हैं वे सभी अपहरण के रूप सरकार को पर्यावरण के लिए किसी भी कानून को बनाने की हैं। बिना प्रतिफल दिए या कम प्रतिफल देकर अधिक लाभ आवश्यकता ही नहीं रहेगी। इस प्रकार से अहिंसा के पालन से उठाना शोषण या अपहरण है। यह अति भयंकर आर्थिक प्रदूषण प्राणातिपात के त्याग में पर्यावरण संबंधी समस्त समस्याओं है। इसी से आर्थिक विषमता उत्पन्न होती है। इससे गरीब अधिक का समाधान निहित है।
गरीब और धनवान अधिक धनवान होते जा रहे हैं। इस विषमता
से ही आज आर्थिक जगत् में भयंकर प्रतिद्वन्द्व व संघर्ष चल रहा २. मृषावाद विरमण -
है। युद्ध का भी प्रमुख कारण यह आर्थिक शोषण व प्रतिद्वन्द्वता दूसरा व्रत है मिथ्याभाषण का, झूठ का त्याग करना अर्थात् की होड ही है। जैनधर्म में अपहरण व शोषण का त्याग प्रत्येक जो वस्तु जिस गुण-धर्मवाली है उसे वैसी ही बताया जाए। आज मानव के लिए आवश्यक बताया गया है। यदि इस अचौर्य व्रत चारों ओर व्यापार में मृषावाद का ही बोलबाला है। उदाहरण के का पालन किया जाए तो भुखमरी, गरीबी, आर्थिक, लूट, अकाल लिए रासायनिक खाद दीर्घकाल की उपज की तथा स्वास्थ्य को मत्य यद आदि प्रदषणोंओं का अंत हो जाए। दृष्टि से हानिकारक है, खेतों की उर्वरा-शक्ति को नष्ट करने वाला है। उसकी इन बुराइयों को छिपाकर उसे खेती के लिए ४. व्यभिचार का त्याग - लाभप्रद बताया जाता है। इसी प्रकार सिन्थेटिक धागे के वस्त्र इस व्रत में अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य समस्त प्रकार स्वास्थ्य के लिए अति हानिकारक हैं, उनकी इस यथार्थता को के यौन-संबंधों को त्याज्य कहा गया है। जैनदर्शन में परस्त्रीगमन, छिपाया जाता है और उनके लाभ के गुण गाए जाते हैं। वेश्यागमन तथा अतिभोग को सर्वथा त्याज्य कहा गया है। यदि एण्टीबायोटिक दवाइयों से शरीर की प्रतिरक्षात्मक शक्ति का इसका पालन किया जाए तो एडस जैसी असाध्य बीमारियों से भयंकर ह्रास होता है जिससे वृद्धावस्था में रोगों से प्रतिरोध करने सहज ही बचा जा सकता है। आज जो एड्स तथा यौन-संबंधी की शक्ति ही नहीं रहती है। इस तथ्य को छिपाया जाता है और अनेक रोग व प्रदषण बडी तेजी से फैल रहे हैं, जिससे मानव धड़ल्ले से विज्ञापन द्वारा इनके लाभप्रद होने का प्रचार-प्रसार जाति को खतरा उत्पन्न हो गया है, इसका कारण इस व्रत का किया जाता है। आज विज्ञापनदाता विज्ञापित वस्तु से होने पालन न करना ही है। कामोत्तेजक तथा अश्लील चलचित्र वाली भयंकर हानि को छिपाकर उसके तात्कालिक लाभ को बनाना व उन्हें देखना इस व्रत को भंग करना ही है। इससे आज बहुत बढ़ा-चढ़ाकर जनता को मायाजाल में फँसाता है जो धोखा अविवाहित लड़कियों के गर्भ रहने, गर्भपात कराने तथा तलाक है। जैनसाधना में ऐसे कार्य को मृषावाद कहा गया है और । आदि घटनाओं में वृद्धि हो रही है। ब्यूटी पार्लर व प्रसाधन इसका निषेध किया गया है। जैन-दर्शन के इस सिद्धांत को सामग्री से शारीरिक अस्वस्थता बढ़ती जा रही है। इन भयंकर अपना लिया जाए तो ऐसे प्रदूषणों से बचा जा सकता है। प्रदषणों से बचाव इस व्रत के पालन करने से ही संभव है। సూరురురురరరరరరరరరంలో ఆరుగురు దురదromotions
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रदय वृतिक सन्तान में जैनधर्म ५. परियह परिमाण व्रत -
करोड़ों लोगों की भीड़ इकट्ठी होती जाती रही है। उन लोगों के
यांत्रिक लाखों वाहनों से तथा उद्योगों में लगे यंत्रों से निकली ___गृहस्थ को भूमि, भवन, खेत, वस्तु, धन, धान्य, गाय,
विषैली गैसों से, उनके मल-मूत्र से, उनके द्वारा फेंके हुए कूड़े भैंस आदि की आवश्यकता पड़ती है। अतः इन्हें अपने परिवार की आवश्यकतानुसार रखना, इससे अधिक धन उपार्जन की
कचरे से, उनके श्वास से निकली कार्बनडाइ-ऑक्साइड से भयंकर
प्रदूषण फैलता जा रहा है। भारत में दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई, दृष्टि से न रखना, इस व्रत में आता है। इस व्रत में परिग्रह या
कानपुर आदि शहर इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जहाँ श्वास लेने के संग्रह को बुरा बताया गया है। उत्पादन को बुरा नहीं कहा गया
लिए शुद्ध वायु मिलना कठिन हो गया है, जिससे वहाँ दमा, है। आनंद, कामदेव आदि आदर्श श्रावकों के पास हजारों गायें
क्षय, हृदयरोग, कैंसर जैसी भयंकर बीमारियाँ बड़ी तीव्र गति से थी उन्होंने उनका परिमाण किया, उन्हें बेचा नहीं है। परिमाण
फैलती जा रही हैं। यदि दिशा परिमाणव्रत का पालन किया जाए करने के पश्चात् गायों के जो बछड़े-बछड़ी पैदा होते, वे जब
अर्थात् अपने गाँव में रहकर स्वास्थ्यप्रदायक, सादा, सहज, परिमाण से अधिक हो जाते तब दूसरों को दान दे दिए जाते थे।
स्वाभाविक, प्राकृतिक जीवन जिया जाए तो बड़े-बड़े नगरों में जिससे वे उनका पालन पोषण कर अपनी आजीविका चलाते
उत्पन्न होने वाले समस्त प्रदूषणों एवं दूषित पर्यावरण संबंधी. थे। जैनधर्म में ग्रहस्थ के लिए उत्पादन करने का निषेध नहीं है, क्योंकि कोई व्यक्ति भोजन करना तो उपादेय माने और अन्न
समस्याओं से सहज ही में बचा जा सकता है। उत्पादन को हेय माने, यह घोर विसंगति है। अत: उत्पादन 6. उपभोग - परिभोग-परिमाण व्रत - सर्वहितकारी प्रवृत्ति से करना परंतु उसका अपनी आवश्यकताओं
इस व्रत में फल-फूल, वस्त्र, विलेपन, खानपान आदि से अधिक संग्रह न करना ही इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है। इस
समस्त उपभोग-परिभोग सामग्री की मर्यादा करने का विधान व्रत के पालन से उदारता, सेवा, परोपकार की श्रेष्ठ वृत्ति का .
है। क्योंकि भोग-परिभोग ही आत्मिक दोषों, मानसिक द्वन्द्वों विकास होता है। सेठ व श्रेष्ठ कहा ही उसे जाता है जो अपने धन
रूपी प्रदूषणों के कारण हैं। अतः जैनधर्म में साधुओं के लिए तो का उपयोग दूसरों की सेवा में करे। इस व्रत का पालन किया
इन्हें पूर्ण त्याज्य ही कहा गया है। गृहस्थ की वृद्धि के लिए भी जाए तो विश्व की गरीबी दूर हो जाए। आर्थिक शोषण का अन्त
भोगों की वृद्धि को हेय माना गया है और इन्हें सीमित-मर्यादित हो जाए और जीवन के लिए आवश्यक अन्न, वस्त्र, मकान आदि
रखने का विधान है। जैन-दर्शन का मानना है कि उपभोगवादी की कमी न रहे। आज जो आर्थिक जगत् में होड़ लगी है तथा
संस्कृति ही समस्त दोषों व प्रदूषणों की जननी है। अत: जब संघर्ष हो रहा है, उसका कारण संग्रहवृत्ति अर्थात् परिग्रह ही है।
तक संस्कृति का आधार उपभोग रहेगा तब तक प्रदूषण भी बना आर्थिक बुराइयों एवं समस्त प्रदूषणों से बचने का उपाय है,
रहेगा। कारण यह किसी वस्तु का दुरुपयोग करने से ही प्रदूषण परिग्रह-परिमाण व्रत। इस प्रकार इस व्रत के पालन से पर्यावरण ।
पैदा होता है। वस्तु के सदुपयोग से वस्तु का जितना उपयोग का स्वयमेव शुद्धिकरण हो जाता है।
होता है, उससे अधिक उसका उत्पादन होता है। उसका अनावश्यक ६. दिशा-परिमाण व्रत -
व्यय नहीं होता है। भोगवादी संस्कृति पशुता से भी निम्न स्तर
की स्थिति की द्योतक है, कारण यह कि पशुप्रकृति के अनुरूप धन कमाने तथा विषय-सुख भोगने के लिए मनुष्य देश - देशान्तरों में भ्रमण करता है। यह भ्रमण परिग्रह व भोग-वृद्धि
चलता है, प्रकृति को हानि नहीं पहुंचाता है। जैसे पशु-पक्षी भूख हेतु होता है। ऐसे भ्रमण को जैन-दर्शन में मानव-जीवन के
लगने पर ही खाते हैं, भूख नहीं होने पर नहीं खाते हैं। इस प्रकार लक्ष्य शान्ति, मुक्ति तथा परमानंद में बाधक माना गया है और
प्रकृति का संतुलन बना रहता है। परंतु मनुष्य भूख न होने पर भी
स्वाद के वशीभूत हो भोजन कर लेता है। अर्थात् मनुष्य का इससे यथासंभव बचने के लिए मर्यादा करने का विधान किया गया है। वर्तमान में लोग धन कमाने, सुख-सुविधा पाने एवं
____ जीवन प्रकृति के अधीन नहीं है। वह प्रकृति से अपने को ऊपर अधिकाधिक भोग भोगने के लिए अपनी जन्म भूमि को छोड़कर
उठाने में स्वतंत्र है। यही मानव-जीवन की विशेषता भी है।
मानव इस स्वतंत्रता का सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों कर सकता शहरों की ओर दौड़ रहे हैं। फलस्वरूप एक ही शहर में लाखों,
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुदिक सन्दर्भ में जैनधर्म है। सदुपयोग है प्रकृति का यथासंभव कम या उतना ही उपयोग इसी सातवें व्रत में सद्गृहस्थों के लिए पंद्रह कार्यों, कर्मादानों कला जितना जीवन के लिए अत्यावश्यक है। इससे प्रकृति की का निषेध किया गया है। इनमें से अधिकांश कर्मादान प्रदूषण देन का अर्थात् वस्तुओं का व्यर्थ व्यय नहीं होता है जिससे से ही संबंधित हैं यथा - इंगालकम्मे-अर्थात् अंगार-कर्म। प्रकृति का संतुलन बना रहता है तथा प्रकृति के उत्पादन में वृद्धि अंगार कर्म से अभिप्राय है, कोयले बनाकर बेचना और इससे होती है। भारतवर्ष की संस्कृति में अन्न को देवता माना गया है। अपनी आजीविका चलाना। कोयला बनाने के लिए लकड़ी को अन्न के एक दाने को भी व्यर्थ नष्ट करने को घोर पाप या जलाया जाता है, जिससे धुआँ निकलता है जो वायु को प्रदूषित अपराध माना जाता रहा है। पेड़ के एक फूल, पत्ते व फल को करता है। वर्तमान में रेल के इंजन, मिलों, फैक्ट्रियों, कारखानों व्यर्थ तोड़ना अनुचित व पाप समझा जाता रहा है। पेड़-पौधों के इंजन पत्थर के कोयले से चलते हैं जिससे विषैले प्रदूषित को क्षति पहुंचाना तो दूर रहा उलटा उन्हें पूजा जाता है। खाद और धुंए व गैसें निकलती हैं, जो आस पड़ोस जल देकर उनका संवर्धन व पोषण किया जाता है। यही कारण के लिए बड़ी घातक होती है। इनसे श्वास, दमा, क्षय आदि रोग हो है कि आज से कुछ वर्ष पूर्व तक भारत में घने जंगल थे। जब से जाते हैं। जैन-दर्शन में सद्गृहस्थ के लिए इंगालकम्मे का निषेध उपभोक्तावादी संस्कृति का पश्चिम के देशों से भारत में आगमन है। इसके पालन से धुंए, गैसों के प्रदूषण से बचा जा सकता है। हुआ, प्रचार-प्रसार हुआ उसके पश्चात् ही सारे प्रदूषण पैदा हुए बणकम्मे-अर्थात वनकर्म। जंगल से लकड़ी, बाँस आदि
और वनों का विनाश हो गया। अगणित वनस्पतियों तथा पशु- काटकर बेचना जिससे वनों का विनाश होता है, जिससे अनेक पक्षियों की जातियों का अस्तित्व ही मिट गया। जहाँ पहले सिंह
प्रदूषणों की उत्पत्ति होती है। जैनदर्शन में सदगृहस्थ के लिए यह भ्रमण करते थे, आज वहाँ खरगोश भी नहीं रहे।
व्यवसाय त्याज्य बताया गया है। वर्तमान में विज्ञान के विकास के साथ भोग-सामग्री
फोडीकम्मे-अर्थात् विस्फोट-कर्म। विस्फोट करके पृथ्वी अत्यधिक बढ़ गई तथा बढ़ती जा रही है, जिसके फलस्वरूप
के फलस्वरूप को फोड़ना, खानों को खोदना और उनसे पत्थर, मिट्टी, कोयला,
को रोग बढ गए हैं और बढ़ते जा रहे हैं। उदाहरणार्थ टेलीविजन को लोहा केरोसिन आदि निकालकर बेचना। बारूद के विस्फोट से ही लें। टेलीविजन के समाप बठन स बच्चा म रक्त-कसर जस विस्फोट-स्थल के चारों ओर निकटवर्ती क्षेत्रों में प्रदूषण फैलता असाध्य रोग हो जाते हैं। आंखों की दृष्टि कमजोर हो जाती है। है। जैनदर्शन में फोडीकम्मे अर्थात विस्फोट-कर्म का निषेध टेलीविजन के परदे पर जो चलचित्र दिखाए जाते हैं उनमें प्रदर्शित की अभिनेता -अभिनेत्री का नृत्य, गान, हावभाव, वेशभूषा व अन्य भोग-वस्तुएँ पाने एवं भोग-भोगने की कामनाएँ-वासनाएँ उत्पन्न
दंत वणिज्जे-हाथी-दाँत आदि पशुओं के अंगों का व्यापार हो जाती हैं, उन सबकी पूर्ति होना संभव नहीं है। कामनाओं,
करना। वर्तमान में इस व्यापार के फलस्वरूप हाथियों की वासनाओं की पूर्ति न होने से तनाव, हीनभाव, दबाव, द्वन्द्व, कुंठाएँ
हस्ती को ही खतरा उत्पन्न हो गया है। वन की शोभा को भारी पैदा होती हैं जिससे मानसिक ग्रंथियों का निर्माण होता है, जिसके
धक्का लगा है, इसीलिए विश्व की समस्त सरकारों ने इस फलस्वरूप व्यक्ति मानसिक रोगी होकर जीवन पर्यंत दुःख भोगता
व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया है। जैन-दर्शन ने इसके व्यापार हैं, साथ ही रक्तचाप, हृदयकैंसर, अल्सर, मधमेह जैसे शारीरिक का निषध पहल स हा कर रखा है। रोगों का शिकार भी हो जाता है। जैनधर्म का मानना है कि भोग रस वणिज्जे-मदिरा आदि रस जिनका पीना शरीर, परिवार, स्वयं आत्मिक एवं मानसिक रोग है और इसके फलस्वरूप शारीरिक समाज आदि वातावरण को प्रदूषित करता है। इसलिए इनके रोगों की तथा सामाजिक विकृति की उत्पत्ति होती है।
व्यापार को जैनदर्शन ने सद्गृहस्थों के लिए त्याज्य कहा है। इस प्रकार इन आत्मिक, मानसिक, शारीरिक आदि समस्त विष वणिज्जे-विष का व्यापार करना। वर्तमान में यह प्रदूषणों की जड़ भोगवादी संस्कृति है और इसका उपाय जैन - व्यापार विषैली दवाइयों की निर्माता-फार्मेसियों से उभरकर आया दर्शन में प्रतिपादित भोगोपभोग-परिमाण व्रत का पालन करना है। है। इन फार्मेसियो में निर्मित एण्टीबायोटिक आदि अधिकांश
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-चतीन्द्रसूरि मारक पन्थ - आधुनिक पद का वर्मएलोपेथिक दवाइयाँ विष से निर्मित होती हैं। यह विष मिश्रित है' (iii) हिंसप्पयाणे--अर्थात् हिंसा में सहायक होना, हिंसक अस्त्र यह उन दवाइयों पर स्पष्ट लिखा भी रहता है। ये दवाइयाँ तत्काल -शस्त्रों का निर्माण करना जैसे अणुबम, उद्जनबम बनाना, तो लाभ पहुँचाती है परंतु इनसे शरीर की रोग-प्रतिरोधक एवं जैविक और रासायनिक शस्त्रों का निर्माण करना। इन शस्त्रों से जीवन-शक्ति का बहुत अधिक ह्रास होता है जिससे आयु क्षीण इतना प्रदूषण उत्पन्न होता है कि एक ही बार में हजारों-लाखों होती है और भविष्य में रोग के दुष्प्रभाव से भयंकर दुःख भोगना लोगों की मृत्यु हो जाती है। जो बच जाते हैं वे भी अपंगपड़ता है। यही कारण है कि वर्तमान में विदेशी लोग एवं उच्च अपाहिज हो जाते हैं। नागासाकी और हिरोशिमा नगर इसके स्तर के बुद्धिमान व्यक्ति इनके सेवन से बचने का प्रयत्न करते प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जैन दर्शन में ऐसे हिंसक अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण हैं। ये लोग जब अन्य कोई भी उपचार शेष नहीं रहता है तब ही करने, व्यापार करने, वितरण करने, उपयोग करने आदि को उनका सेवन करते हैं। इसीलिए इन दवाइयों की निर्माता विदेशी अनर्थदण्ड व त्याज्य कहा है। जैन-दर्शन में निरूपित इस व्रत कंपनियाँ अपनी दवाइयाँ एशिया के अविकसित देशों में विक्रय का पालन किया जाए तो युद्धों के दूषित वातावरण का सदा के कर रही हैं। जैन-दर्शन में शरीर को दूषित व विषैला करने वाली लिए अंत हो जाए। हिंसा से निर्मित प्रसाधन-सामग्री, चर्म के इन वस्तुओं के निर्माण व व्यापार को त्याज्य कहा गया है। जूते, रेशमी वस्त्र आदि भी हिंसप्पयाणे अनर्थदण्ड में आते हैं, इसी प्रकार वन को जलाना, नदी-तालाब आदि जलाशयों
इसलिए ये भी त्याज्य हैं। अस्त्रों-शस्त्रों के निर्माण के निरोध से
बचने वाले धन का उपयोग कर सारे संसार की भुखमरी व के जल को सुखाकर भूमि निकालकर बेचना आदि अन्य कर्मादान भी प्रदूषण पैदा करने वाले होने से जैन दर्शन में इनका
गरीबी को दूर किया जा सकता है। त्याग आवश्यक बताया गया है।
(iv) पापकम्मोवएसे अर्थात् पापकर्म को प्रोत्साहन देना। अपनी ८. अनर्थदण्ड-विरमण व्रत-अनर्थ का मतलब है व्यर्थ, स्वाथपूति, भागा एव धन
स्वार्थपूर्ति, भोगों एवं धन की प्राप्ति के लिए हिंसा, झूठ, चोरी, निष्प्रयोजन अहितकर-दण्ड का अर्थ है यातना विनाश। अतः
ठगी, शोषण आदि के लिए प्रेरित करना व समर्थन करना, प्रोत्साहन अनर्थ-दण्ड-विरमण व्रत का अर्थ निष्प्रयोजन व अहितकर
देना, प्रशिक्षण देना आदि कार्य करना। जैसे रेडियो, टेलीविजन विनाश का त्याग करना है। अनर्थदण्ड ये हैं--
आदि में कामोत्तेजक, भोगवर्द्धक, विज्ञापन देना, इनके लिए
क्लब बनाना आदि कार्य इसी श्रेणी में आते हैं। जैन-दर्शन में (i) अवज्झाणारिये अर्थात् अपध्यान का करना, दुश्चितन करना।
इस प्रकार के मानसिक, सामाजिक, वातावरण को दूषित करने किसी भी व्यक्ति, समाज, राज्य, देश, संस्था को हानि पहुँचाने,
वाले कार्यों को सर्वथा त्याज्य कहा गया है। तात्पर्य यह है कि बुरा करने की सोचना। वर्तमान में प्रात:काल ही समाचारपत्र
जो कार्य अपने लिए हितकर न हो और दूसरों के लिए हानिकारक पढ़कर किसी नेता, देश, समाज, व्यवस्था, घटना आदि के प्रति ।
[ हो उसे अनर्थदण्ड कहते हैं। जैसे मनोरंजन के लिए ऊंटों की रोष, आक्रोश करना, अपने मन को दूषित करना एवं वातावरण पीठ पर बच्चों को बाँधकर ऊँटों को दौड़ाना, जिससे बच्चे को दूषित करना अपध्यान है। इससे किसी को भी लाभ नहीं
चिल्लाते हैं तथा गिरकर मर जाते हैं। मुर्गी व साँडों को परस्पर होता है इसलिए इसे अनर्थदण्ड कहा गया है। अतः जैन-दर्शन में
लड़ाना आदि। आजकल सौंदर्य प्रसाधन सामग्री के लिए अनेक वातावरण दूषित करने वाले ऐसे चिंतन को गृहस्थ के लिए।
पशु-पक्षियों की निर्मम हत्याएँ की जाती हैं, इस प्रकार प्रसाधनत्याज्य कहा गया है।
सामग्री के निर्माण में पशुओं का वध तो होता ही है साथ ही (ii) पमायायरिये - मद, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा को सामग्री का उपयोग करने वाले के स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचती प्रमाद कहा जाता है। मद का अर्थ मद्यपान करना व अभिमान है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ जो स्वादिष्ट वस्तुएँ बनाती हैं, उन पदार्थों करना है। मद्यपान अर्थात् शराब, धूम्रपान, गुटखा आदि नशीले के विटामिन प्रोटीन आदि प्रकृति-प्रदत्त पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते पदार्थों का सेवन करना। इससे अपने शरीर, परिवार, समाज व हैं, साथ ही वस्तुओं का मूल्य भी बीसों गुना हो जाता है। जो साथियों का वातावरण दूषित होता है। इससे किसी को भी लाभ अर्थ की बहुत बड़ी हानि है या दण्ड है अर्थात् अनर्थ दण्ड है। नहीं होने से इसे जैन दर्शन ने दण्ड माना है और त्याज्य बताया है। आज भोग परिभोग के लिए जिन कृत्रिम वस्तुओं का निर्माण हो
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महा
-यतीन्द्रसूरि माय आधुनिक सन्दर्भ में मर्म - रहा है। उन वस्तुओं के लाभकारी गुण या तत्त्व तो नष्ट हो ही करता है, वह भी दूषण है। गृहस्थ-जीवन की सुंदरता व सार्थकता
ते हैं साथ ही वे स्वास्थ्य तथा आर्थिक दृष्टि से भी हानिकारक अपनी न्यायपूर्वक उपार्जित सामग्री से बालक, वृद्ध, रोगी, सेवक, होती हैं। अतः वे अनर्थदण्ड रूप ही हैं। यही नहीं तली हुई संत-महात्मा आदि उन लोगों की सेवा करने में है जो उपार्जन चटपटी मिर्च, मसालेदार वस्तुओं को भी अनर्थदण्ड के रूप में करने में असमर्थ हैं। लिया जा सकता है, क्योंकि ये शरीर के लिए हानिकारक होती
जैन-धर्म में तप का बड़ा महत्त्व है। तप में (१) अनशन हैं, पाचनशक्ति बिगड़ती है। आस्ट्रेलिया, यूरोप आदि देशों के
(२) अनादरी भूख से कम खाना (३) आयंबिल रस का विकसित नागरिक स्वास्थ्य के लिए ऐसी तली हुई मिर्च मसालेदार -
परित्याग आदि है। ये सभी तप भोजन से होने वाले प्रदूषणों को हानिकारक वस्तुओं का उपयोग व उपभोग प्रायः नहीं करते हैं। दर करते हैं। उदर को अतिभोजन तथा गरिष्ठ भोजन के पचने में सिंथेटिक वस्त्र भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इसलिए अब
कठिनाई होती है। जिससे पाचन-शक्ति कमजोर हो जाती है विदेशों में पुन: सूती वस्त्रों को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा है,
तथा पेट में सडाँध पैदा हो जाती है जो गैस बनाती है जिससे जिससे इसकी मांग बढ़ी है। यदि अनर्थदण्ड विरमण व्रत का अनेक रोग पैदा होते हैं। कहा जाता है कि सभी रोगों की जड पालन किया जाए तो इन सब प्रदूषणों से बचा जा सकता है।
उदर-विकार है, पेट की खराबी है। यह पेट की खराबी तथा (९) सामायिक (१०) देशावकासिक (११) पौषध व्रत इससे संबंधित अगणित रोग, उपवास, उणोदरी तथा आयंबिल
ये तीनों व्रत मानसिक एवं आत्मिक विकारों प्रदषणों से से जाते हैं। रूस में तो सभी रोगों के उपचार के लिए उपवास बचने तथा गुणों का पोषण करने के लिए है। अनुकूल, प्रतिकूल,
न चिकित्सा पद्धति प्रचलित ही है। पूज्य श्री घासीलाल म.सा. ने परिस्थितियों में समभाव से रहना, उनसे प्रभावित न होना, उनके
हजारों रोगियों का रोग आयंबिल तप से ही दूर किया था। प्रति राग द्वेष न करना, मन का संतुलन न खोना सामायिक है।
आयंबिल में एक ही प्रकार का घृत तेल आदि से रहित भोजन इससे व्यक्ति परिस्थिति से अतीत हो जाता है, ऊपर उठ जाता
किया जाता है। जिससे जितनी भूख है उससे अधिक भोजन से है, अत: सांसारिक सुख-दुःख के प्रभाव से मुक्त हो जाता है।
बचा जा सकता है। एक ही रस के भोजन में आमाशय को (१०) देशावकासिक व्रत छठे दिशा तथा सातवें भोग-परिभोग ऐनजाइम जिनसे भोजन पचता है, बनाने में कठिनाई नहीं होती परिमाण व्रत इन दोनों व्रतों का ही विशेष रूप है। छठे तथा
है। इसीलिए आस्ट्रेलिया-निवासी प्रायः एक समय में एक ही सातवें व्रतों में दिशा व भोग वस्तुओं की जीवन पर्यंत के लिए
रस का भोजन करते हैं। यदि मीठे स्वाद की वस्तुएँ खाते हैं तो मर्यादा की गई है। उसे प्रतिदिन के लिए और सीमित करना
उनके साथ खट्टे, नमकीन आदि स्वाद की वस्तुएँ नहीं खाते हैं। देशावकासिक व्रत का उद्देश्य है। पौषध व्रत में सांसारिक ।
तात्पर्य यह है कि शारीरिक रोगों व प्रदूषणों को दूर करने की दृष्टि प्रवृत्तियों से एक दिन के लिए विश्राम लेना है। इसमें साधुत्व ।
से तप का बड़ा महत्त्व है। का आचरण करना है, साधुत्व का रस चखना है। विश्राम से इसी प्रकार रात्रि-भोजन-त्याग, मांसाहार-त्याग, मद्य-त्याग, शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, विवेक का उदय होता है, संवेदन शिकार-त्याग आदि जैन-दर्शन के सिद्धांतों से शारीरिक, सामाजिक, शक्ति का विकास होता है अर्थात् आत्मिक गुणों का पोषण पारिवारिक तथा आर्थिक प्रदूषणों से बचा जा सकता है। लेख के होता है।
विस्तार के भय से इन पर यहाँ विवेचन नहीं किया जा रहा है। (१२) अतिथि-संविभाग व्रत -
उपसंहार-प्राणी के जीवन के विकास का संबंध प्राणशक्ति गृहस्थ जीवन में दान का बहुत महत्त्व है। गृहस्थ जीवन
के विकास से है न कि वस्तुओं के उत्पादन से तथा न भोग - का भूषण ही न्यायपूर्वक उत्पादन व उपार्जन करना तथा उसे
परिभोग सामग्री की वृद्धि से है। आध्यात्मिक, शारीरिक, मानसिक, आवश्यकता वाले लोगों में वितरण करना है। जो उत्पादन व
भौतिक, पारिवारिक, सामाजिक क्षेत्र के पर्यावरणों में प्रदूषण उपार्जन नहीं करता है. वह अकर्मण्य व आलसी है वह गहस्थ की उत्पत्ति, प्राप्त वस्तुओं के दुरुपयोग से व भाग से होता है। जीवन के लिए दषण है। इसी प्रकार जो उत्पादन करके संग्रह क्योंकि भोग से ही समस्त दोष पनपते हैं, जो प्रदूषण पैदा करते
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________________ - गनीन्दमूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्महैं। और भोग के त्याग से संयममय मर्यादित जीवन से उपर्युक्त व्रत दूसरों के प्रति होने वाली बुराइयों व प्रदूषणों से बचाते हैं। सभी क्षेत्रों में विकास या पोषण होता है। पर्यावरण-प्रदूषण से चौथे से लेकर सातवें व्रत तक तथा दसवाँ व्रत भोग परिभोग बचें तथा पर्यावरण का समुचित शुद्धिकरण हो, यही जैन-दर्शन को मर्यादित रखने के लिए हैं, जिनसे पर्यावरण का संतुलन के तत्त्वज्ञान का उद्देश्य है। ___ बना रहता है। आठवाँ व्रत सामाजिक पर्यावरण को प्रदूषित होने किसी भी प्रकार का वातावरण दूषित न हो इसके लिए से बचाता है। नवाँ व ग्यारहवाँ व्रत आत्म-पर्यावरण शुद्धि का जैन-दर्शन में गृहस्थ धर्म के रूप में उपर्युक्त बारह व्रतों के पोषक है। बारहवाँ व्रत सर्वहितकारी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने पालन का प्रतिपादन किया गया है। इन बारह व्रतों में प्रथम तीन वाला है। इस प्रकार जैन-जीवन-पद्धति समस्त प्रकार की पर्यावरण की शुद्धि में सहायक है। Morariandaridridivomshrmswamsansamirsidad- 52dmiridiosdrsiondonsiduniadiansarswamirandard