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यतीन्द्रसूरि सरक ग्रन्थ जैनधर्म में अनागार एवं आगार दो प्रकार के धर्म कहे गये हैं । अनागारधर्म को धारण करने वाले साधु होते हैं जो पापों के पूर्ण त्याग की साधना करते हैं। आगार-धर्म को धारण करने वाले गृहस्थ होते हैं, उनके लिए बारह व्रत धारण करने एवं कुव्यसनों त्याग का विधान है। यही आगार (गृहस्थ ) धर्म प्रदूषणों से बचने का उपाय है। इसी परिप्रेक्ष्य में यहाँ बारह व्रतों का विवेचन किया जा रहा है-
स्थूल प्राणातिपात का त्याग - पहला व्रत है स्थूल प्राणातिपात का त्याग करना। प्राणातिपात उसे कहा जाता है जिससे किसी भी प्राणी के प्राणों का घात हो । प्राण दस कहे गए हैं -- १. श्रोत्रेन्द्रियबल प्राण, २. चक्षुरिन्द्रियबल प्राण, ३. घ्राणेन्द्रियबल प्राण, ४. रसनेन्द्रियबल प्राण, ५. स्पर्शेन्द्रियबल प्राण, ६. मनबल प्राण, ७. वचनबल प्राण, ८. कायाबल प्राण, ९. श्वासबल प्राण और १०. आयुष्य प्राण। इन दस प्राणों में से किसी भी प्राण को आघात लगे, हानि पहुँचे वह प्राणातिपात है। यह प्राणातिपात प्राणी का अर्थात् चेतना का ही होता है, निष्प्राण (अचेतन) का न ही, क्योंकि अचेतन जगत पर प्राकृतिक प्रदूषण या अन्य किसी भी प्रकार के प्रदूषण का कोई भला बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है, नहीं उसे सुख-दुख होता है। अतः प्रदूषण का संबंध प्राणी से ही है। इस प्रकार के प्रत्येक प्रदूषण से प्राणी के ही प्राणों का अतिपात होता है। इसी प्राणातिपात को वर्तमान में प्रदूषण कहा जाता है। अतः प्रत्येक प्रकार का प्रदूषण प्राणातिपात है, प्राणातिपात से बचना प्रदूषण से बचना है, प्रदूषण से बचना प्राणातिपात से बचना है।
जैन-दर्शन में समस्त पापों, दोषों तथा प्रदूषणों का मूल प्राणातिपात को ही माना है। यहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि प्राणी प्राणातिपात या प्रदूषण क्यों करता है? उत्तर में कहना होगा कि प्राणी को शरीर मिला है, इससे उसे चलना, फिरना, बोलना, खाना, पीना, मल विसर्जन करना आदि कार्य व क्रियाएँ करनी होती हैं । परंतु इन सब क्रियाओं में प्रकृति का सहज रूप में उपयोग करें तो न तो प्रकृति को हानि पहुँचती है और न प्राण शक्ति का ह्रास होता है। इससे प्राणी का जीवन तथा प्रकृति का संतुलन बना रहता है। यही कारण है कि लाखों-करोड़ों वर्षों से इस पृथ्वी पर पशु-पक्षी, मनुष्य आदि प्राणी रहते आए हैं, परंतु प्रकृति का संतुलन बराबर बना रहा। पर जब प्राणी के जीवन
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में जैनधर्म
का लक्ष्य सहज प्राकृतिक जीवन से हटकर भोग भोगना हो जाता है तो वह भोग के सुख के वशीभूत होकर अपने हितअहित को, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य को भूल जाता है और वह कार्य भी करने लगता है, जिसमें उसका स्वयं का ही अहित हो । उदाहरणार्थ- किसी भी मनुष्य से कहा जाये कि हम तुम्हारी आँखों का मूल्य पाँच लाख रुपए देते हैं, तुम अपनी दोनों आँखें हमें बेच दो तो कोई भी आंखें बेचने को तैयार नहीं होगा । अर्थात् वह अपनी आँखों को किसी भी मूल्य पर बेचने को तैयार नहीं है। वह आँखों को अमूल्य मानता है। परंतु वही मनुष्य चक्षु इंद्रिय के सुखभोग के वशीभूत हो टेलीविजन, सिनेमा आदि को अधिक समय देकर अपनी आँखों से अधिक काम लेकर उनकी शक्ति क्षीण कर देता है। इस प्रकार वह अपनी आँखों की अमूल्य प्राण की शक्ति को हानि पहुँचाकर अपना ही अहित कर लेता है। यही बात कान, जीभ आदि समस्त इंद्रियों के विषयों के सेवन से होने वाले प्राणों के अतिपात पर घटित होती है। जैन दर्शन ने पृथ्वी, पानी, हवा तथा वनस्पति में जीव माना है, इन्हें प्राणवान् माना है। इन्हें विकृत करने को इनका प्राणातिपात माना है। परंतु मनुष्य अपने सुख-सुविधा व संपत्ति - प्राप्ति के लोभ से इनका प्राण हरण कर इन्हें निर्जीव, निष्प्राण व प्रदूषित कर रहा है यथा-
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पृथ्वीकाय का प्राणातिपातप्रदूषण -
कृषि - भूमि में रासायनिक खाद एवं एण्टीबायोटिक दवाएँ डालकर भूमि को निर्जीव बनाया जा रहा है जिससे उसकी उर्वरा - शक्ति प्राणशक्ति नष्ट होती है। परिणामस्वरूप भूमि बंजर हो जाती है फिर उसमें कुछ भी पैदा नहीं होता है तथा रासायनिक खाद से पैदा हुई फसलें शरीर के लिए हानिकारक एवं प्रदूषित होती है।
भूमि का दोहन करके खाने खोदकर खनिज पदार्थ, लोह, ताँबा, कोयला, पत्थर आदि प्रतिवर्ष करोड़ों टन निकाला जा रहा है। उसे निर्जीव बनाया जा रहा है तथा उसे कौड़ियों के भाव विदेशों को अपने देश में उपभोग की वस्तुएँ प्राप्त करने एवं विदेशी मुद्रा अर्जित करने के लिए बेचा जा रहा है। भले ही इस भूमि - दोहन में भावी पीढ़ियों के लिए खनिज पदार्थ न बचे, कारण यह कि खनिज पदार्थ नए पैदा नहीं हो रहे हैं और भावी पीढ़ियाँ इन पदार्थों के लिए तरस - तरस कर मरें, अपने पूर्वजों इस दुष्कर्म का फल अत्यंत दुःखी होकर भोगें । इस बात की
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