Book Title: Jain Darshan me Paryavaran Samrakshan
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 1
________________ भारतीय संस्कृति में पर्यावरण शब्द का प्रयोग प्राकृतिक पर्यावरण तक ही सीमित न होकर प्राणि-जगत् तथा मानवजीवन से संबंधित आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक आदि सभी क्षेत्रों के लिए हुआ है। इन समस्त क्षेत्रों में पर्यावरण प्रदूषण का मूल कारण आत्मिक विकार है। आत्मिक विकार का क्रियात्मक रूप विषय - भोग है। भोगवादी संस्कृति ने ही समस्त पर्यावरण प्रदूषणों को जन्म दिया है। उन प्रदूषणों से मुक्ति पाने का उपाय जैन-दर्शन में गृहस्थ धर्म है। प्रस्तुत लेख में इसी पर विस्तार से विवेचन किया जा रहा है। जैन-दर्शन में पर्यावरण-संरक्षण पर्यावरण शब्द 'परि' उपसर्गपूर्वक 'आवरण' से बना है, जिसका अर्थ है - जो चारों ओर से आवृत्त किए हो, चारों ओर छाया हुआ हो चारों का शाब्दिक अर्थ वायुमंडल होता है, परंतु वर्तमान में वातावरण शब्द व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है, जैसे कहा जाता है कि व्यक्ति जैसे वातावरण में रहता है उसके वैसे ही भले-बुरे संस्कार पड़ते हैं । इस रूप में पर्यावरण शब्द भारत के प्राचीन धर्मों में वातावरण से अर्थात् मानव-जीवन से संबंधित सभी क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। पर्यावरण दो प्रकार का होता है परिशुद्ध एवं अशुद्ध । जो पर्यावरण जीवन के लिए हितकर होता है वह परिशुद्ध पर्यावरण है और जो पर्यावरण जीवन के लिए अहितकर होता है, वह अशुद्ध पर्यावरण है। इसी अशुद्ध पर्यावरण को प्रदूषण कहते हैं। पाश्चात्य देशों में प्रदूषण शब्द प्राकृतिक प्रदूषण का सूचक है। परंतु भारतीय धर्मों में विशेषतः जैनधर्म में पर्यावरण- प्रदूषण केवल प्रकृति तक ही सीमित नहीं है । प्रत्येक आत्मिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, आर्थिक आदि जीवन से संबंधित समस्त क्षेत्र इसकी परिधि में आते हैं। जीवन से संबंधित ये सभी क्षेत्र परस्पर जुड़े हुए हैं। इनमें से किसी भी एक क्षेत्र में उत्पन्न हुए प्रदूषण का प्रभाव अन्य सभी क्षेत्रों पर पड़ता है। जैन - दर्शन में प्रदूषण, दोष, पाप, विकार, विभाव, एकार्थक शब्द हैं । जैन दर्शन में इन सभी क्षेत्रों के प्रदूषणों का मूल कारण Gi Jain Education International कन्हैयालाल लोढ़ा ...... आत्मिक प्रदूषण को माना गया है, शेष सभी प्रदूषण इसी प्रदूषण के कटु फल, फूल, , पत्ते व काँटे हैं। अतः जैन-धर्म इसी मूल प्रदूषण को दूर करने पर जोर देता है। इस प्रदूषण के मिटने पर ही अन्य प्रदूषण मिटना संभव मानता है, जबकि अन्य संस्थाएँ, सरकारें, राजनेता प्राकृतिक प्रदूषण को मिटाने पर जोर देते हैं। परंतु उनके इस प्रयत्न से प्रदूषण मिट नहीं पा रहा है। एक रूप में मिटने लगता है तो दूसरे रूप में फूट पड़ता है, केवल रूपान्तर मात्र होता है, जबकि जैन - वाङ्मय में प्रतिपादित सूत्रों के पालन से सभी प्रकार के प्रदूषण समूल रूप से नष्ट होते हैं। इसी विषय का अति संक्षिप्त रूप में ही यहाँ विवेचन किया जा रहा है। ऊपर कह आए हैं कि समस्त प्रदूषणों का मूल कारण आत्मिक प्रदूषण अर्थात् आत्मिक विकार है। आत्मिक विकार हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि प्रमाणित है, इन्हें ही पाप भी कहा जाता है। इन सब पापों की जड़ है विषय कषाय से मिलने वाले सुखों के भोग की आसक्ति । भोगों की पूर्ति के लिए भोग -सामग्री व सुविधाएँ चाहिए। भोगजन्य, सुख सामग्री व सुविधा - प्राप्ति के लिए धन सम्पत्ति चाहिए। धन प्राप्त करने के लोभ से ही मानव हिंसा, झूठ, चोरी, संग्रह, परिग्रह, शोषण आदि दूषित कार्य करता है । स्वास्थ्य के लिए हानिकारक वस्तुओं का उत्पादन करता है, असली वस्तुओं में हानिप्रद नकली वस्तुएँ मिलाता है और इसी प्रकार के अनेक प्रदूषणों को जन्म देता है । वर्तमान में जितने भी प्रदूषण दिखाई देते हैं, इन सबके में मूल भोगलिप्सा व भोग-वृत्ति ही मुख्य है। जब तक जीवन में भोग वृत्ति की प्रधानता रहेगी तब तक भोगसामग्री प्राप्त करने के लिए लोभवृत्ति भी रहेगी। कहा भी है कि लोभ पाप का बाप है अर्थात् जहाँ लोभ होता है वहाँ पाप की उत्पत्ति होती ही है। अतः प्रदूषण के अभिशाप से बचना है तो पापों से बचना ही होगा, पापों को त्यागना ही होगा। पापों का त्याग ही जैनधर्म की समस्त साधनाओं का आधार व सार पापों से मुक्ति को ही जैनधर्म में मुक्ति कहा गया है। अतः जैनधर्म की समस्त साधनाएँ, प्रदूषण को दूर करने वाली है । Send ४४ for For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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