Book Title: Jain Darshan me Paryavaran Samrakshan
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 6
________________ -यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुदिक सन्दर्भ में जैनधर्म है। सदुपयोग है प्रकृति का यथासंभव कम या उतना ही उपयोग इसी सातवें व्रत में सद्गृहस्थों के लिए पंद्रह कार्यों, कर्मादानों कला जितना जीवन के लिए अत्यावश्यक है। इससे प्रकृति की का निषेध किया गया है। इनमें से अधिकांश कर्मादान प्रदूषण देन का अर्थात् वस्तुओं का व्यर्थ व्यय नहीं होता है जिससे से ही संबंधित हैं यथा - इंगालकम्मे-अर्थात् अंगार-कर्म। प्रकृति का संतुलन बना रहता है तथा प्रकृति के उत्पादन में वृद्धि अंगार कर्म से अभिप्राय है, कोयले बनाकर बेचना और इससे होती है। भारतवर्ष की संस्कृति में अन्न को देवता माना गया है। अपनी आजीविका चलाना। कोयला बनाने के लिए लकड़ी को अन्न के एक दाने को भी व्यर्थ नष्ट करने को घोर पाप या जलाया जाता है, जिससे धुआँ निकलता है जो वायु को प्रदूषित अपराध माना जाता रहा है। पेड़ के एक फूल, पत्ते व फल को करता है। वर्तमान में रेल के इंजन, मिलों, फैक्ट्रियों, कारखानों व्यर्थ तोड़ना अनुचित व पाप समझा जाता रहा है। पेड़-पौधों के इंजन पत्थर के कोयले से चलते हैं जिससे विषैले प्रदूषित को क्षति पहुंचाना तो दूर रहा उलटा उन्हें पूजा जाता है। खाद और धुंए व गैसें निकलती हैं, जो आस पड़ोस जल देकर उनका संवर्धन व पोषण किया जाता है। यही कारण के लिए बड़ी घातक होती है। इनसे श्वास, दमा, क्षय आदि रोग हो है कि आज से कुछ वर्ष पूर्व तक भारत में घने जंगल थे। जब से जाते हैं। जैन-दर्शन में सद्गृहस्थ के लिए इंगालकम्मे का निषेध उपभोक्तावादी संस्कृति का पश्चिम के देशों से भारत में आगमन है। इसके पालन से धुंए, गैसों के प्रदूषण से बचा जा सकता है। हुआ, प्रचार-प्रसार हुआ उसके पश्चात् ही सारे प्रदूषण पैदा हुए बणकम्मे-अर्थात वनकर्म। जंगल से लकड़ी, बाँस आदि और वनों का विनाश हो गया। अगणित वनस्पतियों तथा पशु- काटकर बेचना जिससे वनों का विनाश होता है, जिससे अनेक पक्षियों की जातियों का अस्तित्व ही मिट गया। जहाँ पहले सिंह प्रदूषणों की उत्पत्ति होती है। जैनदर्शन में सदगृहस्थ के लिए यह भ्रमण करते थे, आज वहाँ खरगोश भी नहीं रहे। व्यवसाय त्याज्य बताया गया है। वर्तमान में विज्ञान के विकास के साथ भोग-सामग्री फोडीकम्मे-अर्थात् विस्फोट-कर्म। विस्फोट करके पृथ्वी अत्यधिक बढ़ गई तथा बढ़ती जा रही है, जिसके फलस्वरूप के फलस्वरूप को फोड़ना, खानों को खोदना और उनसे पत्थर, मिट्टी, कोयला, को रोग बढ गए हैं और बढ़ते जा रहे हैं। उदाहरणार्थ टेलीविजन को लोहा केरोसिन आदि निकालकर बेचना। बारूद के विस्फोट से ही लें। टेलीविजन के समाप बठन स बच्चा म रक्त-कसर जस विस्फोट-स्थल के चारों ओर निकटवर्ती क्षेत्रों में प्रदूषण फैलता असाध्य रोग हो जाते हैं। आंखों की दृष्टि कमजोर हो जाती है। है। जैनदर्शन में फोडीकम्मे अर्थात विस्फोट-कर्म का निषेध टेलीविजन के परदे पर जो चलचित्र दिखाए जाते हैं उनमें प्रदर्शित की अभिनेता -अभिनेत्री का नृत्य, गान, हावभाव, वेशभूषा व अन्य भोग-वस्तुएँ पाने एवं भोग-भोगने की कामनाएँ-वासनाएँ उत्पन्न दंत वणिज्जे-हाथी-दाँत आदि पशुओं के अंगों का व्यापार हो जाती हैं, उन सबकी पूर्ति होना संभव नहीं है। कामनाओं, करना। वर्तमान में इस व्यापार के फलस्वरूप हाथियों की वासनाओं की पूर्ति न होने से तनाव, हीनभाव, दबाव, द्वन्द्व, कुंठाएँ हस्ती को ही खतरा उत्पन्न हो गया है। वन की शोभा को भारी पैदा होती हैं जिससे मानसिक ग्रंथियों का निर्माण होता है, जिसके धक्का लगा है, इसीलिए विश्व की समस्त सरकारों ने इस फलस्वरूप व्यक्ति मानसिक रोगी होकर जीवन पर्यंत दुःख भोगता व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया है। जैन-दर्शन ने इसके व्यापार हैं, साथ ही रक्तचाप, हृदयकैंसर, अल्सर, मधमेह जैसे शारीरिक का निषध पहल स हा कर रखा है। रोगों का शिकार भी हो जाता है। जैनधर्म का मानना है कि भोग रस वणिज्जे-मदिरा आदि रस जिनका पीना शरीर, परिवार, स्वयं आत्मिक एवं मानसिक रोग है और इसके फलस्वरूप शारीरिक समाज आदि वातावरण को प्रदूषित करता है। इसलिए इनके रोगों की तथा सामाजिक विकृति की उत्पत्ति होती है। व्यापार को जैनदर्शन ने सद्गृहस्थों के लिए त्याज्य कहा है। इस प्रकार इन आत्मिक, मानसिक, शारीरिक आदि समस्त विष वणिज्जे-विष का व्यापार करना। वर्तमान में यह प्रदूषणों की जड़ भोगवादी संस्कृति है और इसका उपाय जैन - व्यापार विषैली दवाइयों की निर्माता-फार्मेसियों से उभरकर आया दर्शन में प्रतिपादित भोगोपभोग-परिमाण व्रत का पालन करना है। है। इन फार्मेसियो में निर्मित एण्टीबायोटिक आदि अधिकांश tworridorandodkarowaridwoardastarinidad ४९ drinitarinivardandromidnistanianiranidiaordar Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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