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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रदय वृतिक सन्तान में जैनधर्म ५. परियह परिमाण व्रत -
करोड़ों लोगों की भीड़ इकट्ठी होती जाती रही है। उन लोगों के
यांत्रिक लाखों वाहनों से तथा उद्योगों में लगे यंत्रों से निकली ___गृहस्थ को भूमि, भवन, खेत, वस्तु, धन, धान्य, गाय,
विषैली गैसों से, उनके मल-मूत्र से, उनके द्वारा फेंके हुए कूड़े भैंस आदि की आवश्यकता पड़ती है। अतः इन्हें अपने परिवार की आवश्यकतानुसार रखना, इससे अधिक धन उपार्जन की
कचरे से, उनके श्वास से निकली कार्बनडाइ-ऑक्साइड से भयंकर
प्रदूषण फैलता जा रहा है। भारत में दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई, दृष्टि से न रखना, इस व्रत में आता है। इस व्रत में परिग्रह या
कानपुर आदि शहर इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जहाँ श्वास लेने के संग्रह को बुरा बताया गया है। उत्पादन को बुरा नहीं कहा गया
लिए शुद्ध वायु मिलना कठिन हो गया है, जिससे वहाँ दमा, है। आनंद, कामदेव आदि आदर्श श्रावकों के पास हजारों गायें
क्षय, हृदयरोग, कैंसर जैसी भयंकर बीमारियाँ बड़ी तीव्र गति से थी उन्होंने उनका परिमाण किया, उन्हें बेचा नहीं है। परिमाण
फैलती जा रही हैं। यदि दिशा परिमाणव्रत का पालन किया जाए करने के पश्चात् गायों के जो बछड़े-बछड़ी पैदा होते, वे जब
अर्थात् अपने गाँव में रहकर स्वास्थ्यप्रदायक, सादा, सहज, परिमाण से अधिक हो जाते तब दूसरों को दान दे दिए जाते थे।
स्वाभाविक, प्राकृतिक जीवन जिया जाए तो बड़े-बड़े नगरों में जिससे वे उनका पालन पोषण कर अपनी आजीविका चलाते
उत्पन्न होने वाले समस्त प्रदूषणों एवं दूषित पर्यावरण संबंधी. थे। जैनधर्म में ग्रहस्थ के लिए उत्पादन करने का निषेध नहीं है, क्योंकि कोई व्यक्ति भोजन करना तो उपादेय माने और अन्न
समस्याओं से सहज ही में बचा जा सकता है। उत्पादन को हेय माने, यह घोर विसंगति है। अत: उत्पादन 6. उपभोग - परिभोग-परिमाण व्रत - सर्वहितकारी प्रवृत्ति से करना परंतु उसका अपनी आवश्यकताओं
इस व्रत में फल-फूल, वस्त्र, विलेपन, खानपान आदि से अधिक संग्रह न करना ही इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है। इस
समस्त उपभोग-परिभोग सामग्री की मर्यादा करने का विधान व्रत के पालन से उदारता, सेवा, परोपकार की श्रेष्ठ वृत्ति का .
है। क्योंकि भोग-परिभोग ही आत्मिक दोषों, मानसिक द्वन्द्वों विकास होता है। सेठ व श्रेष्ठ कहा ही उसे जाता है जो अपने धन
रूपी प्रदूषणों के कारण हैं। अतः जैनधर्म में साधुओं के लिए तो का उपयोग दूसरों की सेवा में करे। इस व्रत का पालन किया
इन्हें पूर्ण त्याज्य ही कहा गया है। गृहस्थ की वृद्धि के लिए भी जाए तो विश्व की गरीबी दूर हो जाए। आर्थिक शोषण का अन्त
भोगों की वृद्धि को हेय माना गया है और इन्हें सीमित-मर्यादित हो जाए और जीवन के लिए आवश्यक अन्न, वस्त्र, मकान आदि
रखने का विधान है। जैन-दर्शन का मानना है कि उपभोगवादी की कमी न रहे। आज जो आर्थिक जगत् में होड़ लगी है तथा
संस्कृति ही समस्त दोषों व प्रदूषणों की जननी है। अत: जब संघर्ष हो रहा है, उसका कारण संग्रहवृत्ति अर्थात् परिग्रह ही है।
तक संस्कृति का आधार उपभोग रहेगा तब तक प्रदूषण भी बना आर्थिक बुराइयों एवं समस्त प्रदूषणों से बचने का उपाय है,
रहेगा। कारण यह किसी वस्तु का दुरुपयोग करने से ही प्रदूषण परिग्रह-परिमाण व्रत। इस प्रकार इस व्रत के पालन से पर्यावरण ।
पैदा होता है। वस्तु के सदुपयोग से वस्तु का जितना उपयोग का स्वयमेव शुद्धिकरण हो जाता है।
होता है, उससे अधिक उसका उत्पादन होता है। उसका अनावश्यक ६. दिशा-परिमाण व्रत -
व्यय नहीं होता है। भोगवादी संस्कृति पशुता से भी निम्न स्तर
की स्थिति की द्योतक है, कारण यह कि पशुप्रकृति के अनुरूप धन कमाने तथा विषय-सुख भोगने के लिए मनुष्य देश - देशान्तरों में भ्रमण करता है। यह भ्रमण परिग्रह व भोग-वृद्धि
चलता है, प्रकृति को हानि नहीं पहुंचाता है। जैसे पशु-पक्षी भूख हेतु होता है। ऐसे भ्रमण को जैन-दर्शन में मानव-जीवन के
लगने पर ही खाते हैं, भूख नहीं होने पर नहीं खाते हैं। इस प्रकार लक्ष्य शान्ति, मुक्ति तथा परमानंद में बाधक माना गया है और
प्रकृति का संतुलन बना रहता है। परंतु मनुष्य भूख न होने पर भी
स्वाद के वशीभूत हो भोजन कर लेता है। अर्थात् मनुष्य का इससे यथासंभव बचने के लिए मर्यादा करने का विधान किया गया है। वर्तमान में लोग धन कमाने, सुख-सुविधा पाने एवं
____ जीवन प्रकृति के अधीन नहीं है। वह प्रकृति से अपने को ऊपर अधिकाधिक भोग भोगने के लिए अपनी जन्म भूमि को छोड़कर
उठाने में स्वतंत्र है। यही मानव-जीवन की विशेषता भी है।
मानव इस स्वतंत्रता का सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों कर सकता शहरों की ओर दौड़ रहे हैं। फलस्वरूप एक ही शहर में लाखों,
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