Book Title: Jain Darshan me Jivtattva Ek Vivechan Author(s): Vijay Muni Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 5
________________ २६४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड + +++++ ++ + ++ +++ + +++ ++++++ ++++ +++ + +++ +++++++++++ + - - - - - - वेदों में से एक न एक वेद अवश्य ही होता है । वेद-रहित तो केवल सिद्ध ही होते हैं। संसारी जीव वेद-रहित कभी नहीं होते हैं । वेद क्या है ? इसके उत्तर में कहा गया है, कि काम-भोग की अभिलाषा को वेद कहते हैं। यह किस कर्म के उदय से होता है ? नोकषाय मोहनीय कर्म के उदय से । मोहनीयकर्म के दो भेद हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं-कषाय मोहनीय और नोकषाय मोहनीय । नोकषाय मोहनीय के नव भेदों में तीन वेद भी हैं । जिसके उदय से स्त्री के साथ सम्भोग करने की अभिलाषा हो, वह पुरुषवेद, जिसके उदय से पुरुष के साथ सम्भोग करने की अभिलाषा हो, वह स्त्रीवेद और जिसके उदय से स्त्री-पुरुष दोनों के साथ सम्भोग करने की अभिलाषा हो, वह नपुंसक वेद । वेद को लिंग भी कहते हैं । लिंग की अपेक्षा भी तीन भेद हैं-पुरुषलिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग। पुरुषवेद तृण की अग्नि के समान, स्त्रीवेद काष्ठ की अग्नि के समान और नपुंसकवेद करीष (उपला) की अग्नि के समान होता है। किसमें कितने वेद मिलते हैं ? नारक जीवों में केवल एक नपुंसकवेद होता है। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय में केवल एक नपुंसकवेद होता है। गर्भज तिर्यञ्चों में और गर्भज मनुष्यों में तीनों वेद होते हैं । देवों में केवल दो वेद मिलते हैं-पुरुषवेद और स्त्रीवेद । सभी प्रकार के सम्मूच्छिम जीवों में केवल एक नपुंसकवेद होता है । यह कथन केवल संसारी जीवों की अपेक्षा से है। क्योंकि सिद्ध तो वेद-रहित अवेदी होते हैं । परन्तु यह निश्चित है कि संसारी जीव में एक न एक वेद अवश्य ही होता है । वेद मोहनीय प्रकृति की उपशमदशा में, उसकी सत्ता रहती है, उदय नहीं । वेद का सर्वथा क्षय होने पर ही अवेदक दशा आती है। चतुर्विध जीव : गति के चार भेद हैं-नरक गति, तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति और देव गति । गति की अपेक्षा से जीव के चार भेद हैं-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । गति क्या है ? नामकर्म की एक प्रकृति । जिसके उदय से जीव नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव में उत्पन्न होता है, उसे गति कहते हैं। नरक और तिर्यञ्च पाप-प्रधान गति हैं और मनुष्य एवं देव पुण्य प्रधान गति हैं। नरक गति के परिणाम और लेश्या अशुभतर अथवा अशुभतम होते हैं । अपने पाप का दुःखमय भोग भोगने के लिए ही जीव नरक में जाकर उत्पन्न होते हैं । नरक में भयंकर शीत वेदना, भयंकर ताप वेदना, अत्यन्त क्ष धा और अत्यन्त तृषा को वेदना होती है। नरक में दुःख ही दुःख है । नरक भूमियों में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श आदि के परिणाम अशुभ होते है । नारक जीवों के शरीर भी अशुभ वर्ण, अशुभ गन्ध, अशुभ रस, अशुभ स्पर्श और अशुभ संस्थान वाले होते हैं। उनके शरीर अशुचि और बीभत्स होते हैं । नारक जीवों का शरीर वैक्रिय होता है, किन्तु उसमें अशुभता एवं अशुचिता ही रहती है । तिर्यञ्च और मनुष्य ही मरकर नरक में उत्पन्न होते हैं । देव मरकर नरक में उत्पन्न नहीं होते और नारक भी मरकर नरक में उत्पन्न नहीं होते हैं । असंज्ञी प्राणी पहली नरक से आगे नहीं जाता। मुज परिसर्प जीव दूसरी नरक तक जा सकता है। पक्षी तीसरी नरक तक जाता है। सिंह चौथी तक और उरःपरिसर्प पांचवी तक जा सकता है। स्त्री मरकर छठी तक जा सकती है । मत्स्य और मनुष्य सातवीं नरक तक उत्पन्न हो सकते हैं। पहली से लेकर तीसरी नरक तक के जीव मनुष्य जन्म लेकर तीर्थकर पद प्राप्त कर सकते हैं। चौथी नरक तक के जीव मनुष्य जन्म पाकर निर्वाण भी प्राप्त कर सकते हैं। पांचवीं नरक तक के जीव मनुष्य जन्म लेकर सर्वविरति रूप चारित्र की साधना कर सकते हैं। छठी नरक तक के जीव देशविरति रूप चारित्र की साधना कर सकते हैं । सातवीं नरक तक के जीव सम्यक्त्व की प्राप्ति कर सकते हैं। नरकों की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागर की है, दोनों के मध्य की स्थिति, मध्यम स्थिति है। नरक भूमि सात हैं-घमा, वंशा, शैला, अञ्जना, रिष्टा, मघवती और माघवती । सात नरकों के सात गोत्र इस प्रकार हैं-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम: प्रभा और महातमःप्रभा । इन नरक भूमियों में रहने वाले जीव नारक कहलाते हैं। तिर्यञ्च किसे कहते हैं ? नारक मनुष्य और देव को छोड़कर, संसार के शेष समस्त जीव तिर्यञ्च होते हैं। क्षुद्र जन्तु, पशु और पक्षी सब तिर्यञ्च हैं। तिर्यञ्च में एकेन्द्रिय जीव से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के जीव होते हैं। जबकि नारक, मनुष्य और देव-सब पञ्चेन्द्रिय ही होते हैं। तिर्यञ्चों में पाँच स्थावर के जीव एकेन्द्रिय ही होते हैं । विकलेन्द्रिय जीव भी तिर्यञ्च ही होते हैं । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की विकलेन्द्रिय संज्ञा है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च के मुख्य रूप से तीन भेद हैं-जलचर, स्थलचर और खेचर । जलचर के दो भेद हैं-संमूर्छिम और गर्भज । फिर प्रत्येक के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । स्थलचर के दो भेद है-चतुष्पद और परिसर्प । परिसर्प के दो हैंउरक और भुजग । इनमें से फिर प्रत्येक के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । खेचर के दो भेद हैं—संमूर्छिम और गर्भज । अथवा खेचर के चार भेद हैं-चर्म पक्षी, लोम पक्षी, समुद्ग पक्षी और वितत पक्षी। जलचर का अर्थ है-जल नवा और और स्पर्श रस, अश 'मरकर न जीवों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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