________________ 302 श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm.--------- आयुष्य के घटने के निमित्त मिलते ही नहीं, वह निरुपक्रम अनपवर्तनीय आयुष्य कहा जाता है। अपवर्तनीय आयुष्य तो अवश्य सोपक्रम ही होता है / क्योंकि जब अपवर्तनीय आयुष्य होता है, तब उसे विष एवं शस्त्र आदि का बाह्य निमित्त अवश्य मिलता ही है। यदि आयुष्य का अपवर्तन माना जाएगा, तो उसमें तीन दोष आयेंगे-कृतनाश, अकृताभ्यागम और आयुष्य कर्म की निष्फलता / आयुष्य का अपवर्तन (घटना) मानने का अर्थ होगा, कि आयुष्य अपना फल दिए बिना ही नष्ट हो गया / अतः कृत-नाश दोष आता है / आयुष्य कर्म शेष रहते हुए भी यदि मृत्यु हो जाती है, तो अकृताभ्यागम दोष आता है / अकृत (अनिर्मित) मरण का अभ्यागम (प्राप्ति) यदि आयुष्य रहते हुए मरण होता है, तो आयुष्य कर्म की निष्फलता सिद्ध होती है / अतः आयुष्य का अपवर्तन मानना उचित नहीं है। इसके समाधान में कहा गया है कि उक्त दोषों में से एक भी दोष नहीं आता। क्योंकि जब विष एवं शस्त्र आदि उपक्रम होता है तब सम्पूर्ण आयुष्य कर्म एक साथ उदय में आता है, और शीघ्र भोग लिया जाता है / अतः बद्ध आयुष्य को भोगे विना नाश नहीं होता है / सम्पूर्ण आयुष्य कर्म का क्षय होने पर ही मृत्यु होती है / अतः अकृत मरण का अभ्यागम नहीं हुआ। शीघ्रता से आयुष्य उपभोग होने से एवं सम्पूर्ण आयुष्य भोगने के बाद ही मरण होने से आयुष्य कर्म की निष्फलता भी नहीं है / अतः कृतनाश, अकृताभ्यागम और निष्फलता में से एक भी दोष यहाँ पर उपस्थित नहीं होता है। अनपवर्तनीय आयुष्य किसकी होती है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि औपपातिक जन्म वालों (देव और नारक) असंख्यात वर्ष जीवी (मनुष्य और तिर्यञ्च) चरम शरीर वालों (उसी शरीर से मोक्ष प्राप्त करने वाले) और उत्तम पुरुषों (तीर्थंकर एवं चक्रवर्ती आदि) का आयुष्य ही अनपवर्तनीय होता है, शेष जीवों के अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय-दोनों प्रकार का आयुष्य होता है। कौन जीव कब पर भव का आयुष्य बांधता है। इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि देव, नारक और असंख्यात वर्षी मनुष्य एवं तिर्यञ्च अपने आयुष्य के छह मास शेष रहने पर, पर-भव का आयुष्य बांधते हैं। निरुपक्रम आयुष्य वाले मनुष्य एवं तिर्यञ्च अपने आयुष्य का तृतीय भाग शेष रहने पर, परभव का आयुष्य बांधते हैं। सोपक्रम आयुष्य वाले अपने आयुष्य के तीसरे, नवमें तथा सत्ताईसवें भाग में इस प्रकार त्रिगुण करते-करते अन्त में अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर तो अवश्य ही परभव का आयुष्य बाँध लेते हैं / जीव के पांच-सौ सठ भेद: जैनदर्शन का जीव-विज्ञान बहुत विस्तृत गहन और गम्भीर है। अन्य दर्शनों में जीवतत्त्व का इतना गम्भीर विवेचन उपलब्ध नहीं होता / जीव एवं आत्मा के स्वरूप का जितना विस्तार तथा भेद एवं प्रभेद जनदर्शन में है, उतना अन्य किसी भी दर्शन में नहीं किया गया है / जीव के जघन्य एक मेद का और मध्यम चौदह मेद का वर्णन किया जा चुका है। अब यहाँ पर संक्षेप में जीव के उत्कृष्ट पांच-सौ त्रेसठ भेद का कथन इस प्रकार से समझना चाहिए नरक भूमि सात हैं और उनके गोत्र भी सात हैं, जिनका वर्णन पीछे दिया जा चुका है / नरक में रहने वाले जीव नारक कहे जाते हैं / सात नरकों में रहने वाले सात नारक जीवों के पर्याप्त तथा अपर्याप्त रूप से चौदह भेद होते हैं। नारक, मनुष्य और देव को छोड़कर संसार के समस्त जीव तिर्यञ्च हैं / तिर्यञ्च जीवों के अड़तालीस भेद इस प्रकार हैं-एकेन्द्रिय के बाईस भेद, विकलेन्द्रिय के छह भेद और तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय के बीस भेद-कुल मिला कर तिर्यञ्च जीवों के अड़तालीस भेद होते हैं / __ मनुष्य के तीन-सौ तीन भेद इस इस प्रकार हैं-कर्मभूमि के मनुष्य पन्द्रह, भोगभूमि के मनुष्य तीन और अन्तर द्वीपों के मनुष्य छप्पन / सब मिला कर गर्मज मनुष्य के एक-सौ एक भेद हुए। एक-सौ एक के पर्याप्त एवं अपर्याप्त रूप से दो-सौ दो भेद हुए। इनमें संमूर्छिम मनुष्य के एक-सौ एक भेद मिला कर, मनुष्य तीन-सौ तीन भेद होते हैं। देव के एक-सौ अठानवें भेद इस प्रकार हैं-भवनपति के दश भेद, (परमाधार्मिक) के पन्द्रह भेद, व्यन्तर एवं वानव्यन्तर के सोलह भेद, तिर्यग् जृम्भक के दश मेद, ज्योतिष्क के दश भेद, वैमानिक के बारह भेद, किल्विषिक के तीन भेद, लोकान्तिक के नव भेद, अवेयक के नव भेद, अनुत्तर के पांच भेद-सब मिला कर भेद हुए निन्यानवें / इनके पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से एक-सौ अठानवें भेद होते हैं / अतः नारक के 14, तिर्यञ्च के 48, मनुष्य के 303 और देव के 168 भेद मिलाकर जीव के 563 भेद होते हैं। 0 0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org