Book Title: Jain Darshan me Jivtattva Ek Vivechan
Author(s): Vijay Muni
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 1
________________ ० O Jain Education International २६० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड जैन - दर्शन में जीव-तत्त्व एक विवेचन * श्री विजयमुनि शास्त्री O जीव तत्त्व *****+++++ दर्शनकार जीव का लक्षण इस प्रकार करते हैं- "जो द्रव्य और भाव प्राणों से जीता है, वह जीव है । जीव उपयोग है, कर्ता और भोक्ता है, अमूर्त है और स्वदेह-परिमाण है। यह संसारस्य है और सिद्ध भी है। जीव स्वभावतः एव ऊर्ध्वगमन करने वाला है ।" इस लक्षण में संसारी और मुक्त सभी प्रकार के जीवों का स्वरूप कह दिया गया है। Oooo. चार्वाक (नास्तिक) मत में जीव की सत्ता को स्वीकार नहीं किया जाता। उसका खण्डन करने के लिए लक्षण में 'जीव' शब्द जोड़ा गया है । नैयायिक मत में ज्ञान और दर्शन को आत्मा का स्वरूप नहीं माना गया है, उसका खण्डन करने के लिए जीव को उपयोगमय कहा है। चार्वाक जीव को देह से भिन्न नहीं मानता, देह मूर्त है, किन्तु जीव मूर्त नहीं हो सकता । यह बतलाने के लिए लक्षण में 'अमूर्त पद' दिया गया है। सांख्य मत में जीव को कर्मों का कर्ता नहीं माना है, उसका परिहार करने के लिए कर्ता पद लगाया गया हैं। नैयायिक, मीमांसक और सांख्य दर्शन वाले आत्मा को विभु एवं सर्व व्यापक मानते हैं, उनके मतों का खण्डन करने के लिए 'स्वदेह परिमाण' पद दिया है । बौद्धदर्शन में जीव को भोक्ता नहीं माना गया है, उसके निराकरण करने के लिए भोक्ता पद रखा है । सदाशिव सम्प्रदाय वाले जीव को सदा मुक्त मानते हैं, बुद्ध नहीं मानते, उनका निराश करने के लिए संसारस्थ पद जोड़ा गया है। भाट्ट और चार्वाक मत का खण्डन करने के लिए सिद्ध पद रखा है। क्योंकि वे जीव की सिद्ध दशा नहीं मानते के लिए जीव के लक्षण में मानते हैं, और वेदान्त एवं को परिणामी नित्य मानता हैं। कुछ लोग जीव का ऊर्ध्वगमन स्वभाव स्वीकार नहीं करते, उनके मत का खण्डन करने एक ऊर्ध्वगमन पद भी जोड़ दिया गया है। बौद्धदर्शन सभी पदार्थों को एकान्त क्षणिक सांख्य एकान्त नित्य । जीव के विषय में भी सीनों का यही मत है, परन्तु जैनदर्शन जीव है । द्रव्य दृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से परिवर्तनशील । उपयोग जीव का कर्तृत्व जीव के असाधारण परिणाम को उपयोग कहते हैं। वस्तु के स्वरूप को जानने के लिए जीव की जो शक्तिप्रवृत होती है, उसे उपयोग कहा गया है। उपयोग के दो भेद है— ज्ञान उपयोग और दर्शन उपयोग जैनदर्शन के अनुसार विश्व की प्रत्येक वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। प्रत्येक पदार्थ में सामान्य और विशेष—ये दो धर्म पाए जाते हैं | पदार्थ के सामान्य धर्म को ग्रहण करने वाला दर्शनोपयोग और पदार्थ के विशेष धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञानोपयोग होता है | दर्शन उपयोग को निराकार इसलिए कहते हैं, कि इसमें पदार्थ की सत्ता मात्र का ग्रहण होता है । उसमें वस्तु का आकार और प्रकार प्रतिभासित नहीं होता। इसी आधार पर इसे निर्विकल्पक भी कहते हैं, क्योंकि यह वचनव्यवहार से शून्य रहता है। ज्ञानोपयोग साकार होता है, क्योंकि ज्ञान से जो पदार्थ जाना जाता है, उसके आकार और प्रकार का स्पष्ट परिबोध हो जाता है, तथा वह वचन व्यवहार के योग्य भी होता है। इसे सविकल्पक ज्ञान भी कहते हैं । उपयोग जीव का असाधारण धर्म एवं परिणाम है। For Private & Personal Use Only प्रश्न उठता है कि जीव किसका कर्ता है ? इसका समाधान करते हुए कहा गया है, कि व्यवहार नय से www.jainelibrary.org

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