Book Title: Jain Darshan me Jan tantrik Samajik Chetna ke Tattva
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf

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Page 3
________________ जैनदर्शन में जनतांत्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्व ३०३ . कोई परमात्मा आत्मदशा प्राप्त कर पुनः अवतरित नहीं होता। इस प्रकार व्यक्ति के अस्तित्व के धरातल पर जीव को ईश्वराधीनता और कर्माधीनता दोनों से मुक्ति दिलाकर उसकी पूर्ण स्वतन्त्रता की रक्षा की गयी है। जैनदर्शन की यह स्वतन्त्रता निरंकुश या एकाधिकारवादिता की उपज नहीं है। इसमें दूसरों के अस्तित्व की स्वतन्त्रता की भी पूर्ण रक्षा है । इसी बिन्दु से अहिंसा का सिद्धान्त उभरता है जिसमें जन के प्रति ही नहीं प्राणीमात्र के प्रति मित्रता और बन्धुत्व का भाव है। यहां जन अर्थात् मनुष्य ही प्राणी नहीं है और मात्र उसकी हत्या ही हिंसा नहीं है। जैन शास्त्रों में प्राण अर्थात् जीवनी-शक्ति के दस भेद बताये गये हैं-सुनने की शक्ति, देखने की शक्ति, सूंघने की शक्ति, स्वाद लेने की शक्ति, छने की शक्ति, विचारने की शक्ति, बोलने की शक्ति, गमनागमन की शक्ति, श्वास लेने छोड़ने की शक्ति और जीवित रहने की शक्ति । इनमें से प्रमत्त योग द्वारा किसी भी प्राण को क्षति पहुँचाना, उस पर प्रतिबन्ध लगाना, उसकी स्वतन्त्रता में बाधा पहुँचाना, हिंसा है। जब हम किसी के स्वतन्त्र चिन्तन को बाधित करते हैं, उसके बोलने पर प्रतिबन्ध लगाते हैं और गमनागमन पर रोक लगाते हैं तो प्रकारान्तर से क्रमशः उसके मन, वचन और काया रूप प्राण की हिंसा करते हैं। इसी प्रकार किसी के देखने, सुनने, संघने, चखने, छुने आदि पर प्रतिबन्ध लगाना मी विभिन्न प्राणों की हिंसा है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि स्वतन्त्रता का यह सूक्ष्म, उदात्त चिन्तन ही हमारे संविधान के स्वतन्त्रता सम्बन्धी मौलिक अधिकारों का उत्स स्वतन्त्रता का विचार-जगत में बड़ा महत्व है। आत्मनिर्णय और मताधिकार इसी के परिणाम हैं। कई साम्यवादी देशों में सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता होते हुए भी इच्छा स्वातन्त्र्य का यह अधिकार नहीं है । पर जैनदर्शन में और हमारे संविधान में भी विचार स्वातन्त्र्य को सर्वोपरि महत्व दिया गया है। भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा कि प्रत्येक जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व है, इसलिए उसकी स्वतन्त्र विचार-चेतना भी है। अतः जैसा तुम सोचते हो एकमात्र वही सत्य नहीं है। दूसरे जो सोचते हैं उसमें भी सत्यांश निहित है। अतः पूर्ण सत्य का साक्षास्कार करने के लिए इतर लोगों के सोचे हुए, अनुभव किये हुए सत्यांशों को भी महत्व दो। उन्हें समझो, परखो, और उसके आलोक में अपने सत्य का परीक्षण करो। इससे न केवल तुम्हें उस सत्य का साक्षात्कार होगा वरन् अपनी मूलों के प्रति सुधार करने का तुम्हें अवसर भी मिलेगा। प्रकारान्तर से महावीर का यह चिन्तन जनतान्त्रिक शासन-व्यवस्था में स्वस्थ विरोधी पक्ष की आवश्यकता और महत्ता प्रतिपादित करता है तथा इस बात की प्रेरणा देता है कि किसी भी तथ्य को भली प्रकार समझने के लिए अपने को विरोध-पक्ष की स्थिति में रख कर उस पर चिन्तन करो। तब जो सत्य निखरेगा वह निर्मल, निर्विकार और निष्पक्ष होगा। महावीर का यह वैचारिक औदार्य और सापेक्ष चिन्तन स्वतन्त्रता का रक्षा कवच है। यह दृष्टिकोण अनेकान्त सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित है। २. समानता-स्वतन्त्रता की अनुमति वातावरण और अवसर की समानता पर निर्भर है। यदि समाज में जातिगत वैषम्य और आर्थिक असमानता है तो स्वतन्त्रता के प्रदत्त अधिकारों का भी कोई विशेष उपयोग नहीं। इसलिए महावीर ने स्वतन्त्रता पर जितना बल दिया उतना ही बल समानता पर दिया। उन्हें जो विरक्ति हुई वह केवल जीवन को नश्वरता या सांसारिक असारता को देखकर नहीं वरन् मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण देखकर वे तिलमिला उठे। और उस शोषण को मिटाने के लिए, जीवन के हर स्तर पर समता स्थापित करने के लिए उन्होंने क्रान्ति की, तीर्थ प्रवर्तन किया। भक्त और भगवान के बीच पनपे धर्म दलालों को अनावश्यक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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