Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनदर्शन में जनतांत्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्व
डा० नरेन्द्र भानावत एम० ए०, पी-एच० डी०
( हिन्दी प्राध्यापक, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर)
जैन मान्यता के अनुसार सभ्यता की प्रारम्भिक अवस्था में वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीनों आरों में- जीवन अत्यन्त सरल एवं प्राकृतिक था । तथाकथित कल्प वृक्षों से आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाया करती थी । यह अकर्मभूमि – भोगभूमि - का काल था । पर तीसरे आरे के अन्तिम पाद में कालचक्र के प्रभाव से इस अवस्था में परिवर्तन आया और मनुष्य कर्मभूमि की ओर अग्रसर हुआ । उसमें मानव सम्बन्धपरकता का भाव जगा और पारिवारिक व्यवस्था — कुल व्यवस्था – सामने आई । इसके व्यवस्थापक कुलकर या मनु कहलाये जो विकास क्रम में चौदह हुए । कुलकर व्यवस्था का विकास आगे चलकर समाजसंगठन, धर्मसंगठन के रूप में हुआ और इसके प्रमुख नेता हुए २४ तीर्थंकर तथा गौण नेता ३६ अन्य महापुरुष ( १२ चक्रवर्ती, & बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव) हुए जो सब मिलकर त्रिषष्ठि शलाका पुरुष कहे जाते हैं ।
उपर्युक्त पृष्ठभूमि में यह कहा जा सकता है कि जैन दृष्टि से धर्म केवल वैयक्तिक आचरण ही नहीं है, वह सामाजिक आवश्यकता और समाज व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण घटक भी है। जहाँ वैयक्तिक आचरण को पवित्र और मनुष्य की आंतरिक शक्ति को जागृत करने की दृष्टि से क्षमा, मादेव, आर्जव, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य जैसे मनोभावाधारित धर्मों की व्यवस्था है, वहाँ सामाजिक चेतना को विकसित और सामाजिक संगठन को सुदृढ़ तथा स्वस्थ बनाने की दृष्टि से ग्रामघर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म, कुलधर्म, गणधर्म, संघधर्म जैसे समाजोन्मुखी धर्मों तथा ग्राम स्थविर, नगर स्थविर, राष्ट्र स्थविर, प्रशास्ता स्थविर, कुल स्थविर, गण स्थविर, संघ स्थविर जैसे धर्म नायकों की भी व्यवस्था की गई है।
इस बिन्दु पर आकर 'जन' और 'समाज' परस्पर जुड़ते हैं और धर्म में निवृत्ति प्रवृत्ति, त्याग सेवा और ज्ञान-क्रिया का समावेश होता है ।
यद्यपि यह सही है कि धर्म का मूल केन्द्र व्यक्ति होता है क्योंकि धर्म आचरण से प्रकट होता है पर उसका प्रभाव समूह या समाज में प्रतिफलित होता है ओर इसी परिप्रेक्ष्य में जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्वों को पहचाना जा सकता है । कुछ लोगों की यह धारणा है कि जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना की अवधारणा पश्चिमी जनतन्त्र - यूनान के प्राचीन नगर राज्य और कालान्तर में फ्रांस की राज्य क्रान्ति की देन है । पर सर्वथा ऐसा मानना ठीक नहीं । प्राचीन भारतीय राजतन्त्र व्यवस्था में आधुनिक इंगलैण्ड की भाँति सीमित व वैधानिक राजतन्त्र से युक्त प्रजातन्त्रात्मक शासन के बीज विद्यमान थे । जनसभाओं और विशिष्ट आध्यात्मिक ऋषियों द्वारा
१ स्थानांग सूत्र, दसवां ठाणा विशेष विवेचन के लिए देखिए -आचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज कृत 'धर्म और धर्मनायक' पुस्तक |
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०२
मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
राजतन्त्र सीमित था। स्वयं भगवान महावीर लिच्छिवी गणराज्य से सम्बन्धित थे। यह अवश्य है कि पश्चिमी जनतन्त्र और भारतीय जनतन्त्र की विकास प्रक्रिया और उद्देश्यों में अन्तर रहा है, उसे इस प्रकार समझा जा सकता है:
१. पश्चिम में स्थानीय शासन की उत्पत्ति केन्द्रीय शक्ति से हई है जबकि भारत में इसकी उत्पत्ति जन समुदाय से हुई है।
२. पाश्चात्य जनतान्त्रिक राज्य पूंजीवाद, उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के बल पर फले-फूले हैं। वे अपनी स्वतन्त्रता के लिये तो मर-मिटते हैं, पर दूसरे देशों को राजनैतिक दासता का शिकार बनाकर उन्हें स्वशासन के अधिकार से वंचित रखने की साजिश करते हैं। पर भारतीय जनतन्त्र का रास्ता इससे भिन्न है। उसने आर्थिक शोषण और राजनैतिक प्रभुत्व के उद्देश्य से कभी बाहरी देशों पर आक्रमण नहीं किया। उसकी नीति शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व और अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की रही है।
३. पश्चिमी देशों में पूंजीवादी और साम्यवादी दोनों प्रकार के जनतन्त्रों को स्थापित करने में रक्तपात, हत्याकाण्ड और हिंसक क्रान्ति का सहारा लिया है पर भारतीय जनतन्त्र का विकास लोकशक्ति और सामूहिक चेतना का फल है। अहिंसक प्रतिरोध और सत्य के प्रति आग्रह उसके मूल आधार रहे हैं।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि भारतीय समाज-व्यवस्था में जनतन्त्र केवल राजनैतिक सन्दर्भ ही नहीं है। यह एक व्यापक जीवन पद्धति है, एक मानसिक दृष्टिकोण है जिसका सम्बन्ध जीवन के धार्मिक, नैतिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक सभी पक्षों से है। इस धरातल पर जब हम चिन्तन करते हैं तो मुख्यतः जैन दर्शन में और अधिकांश अन्य भारतीय दर्शनों में भी जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना के निम्नलिखित मुख्य तत्त्व रेखांकित किये जा सकते हैं:
१. स्वतन्त्रता २. समानता ३. लोक-कल्याण ४. धर्म निरपेक्षता
१. स्वतन्त्रता-स्वतन्त्रता जनतन्त्र की आत्मा है और जैनदर्शन की मूल भित्ति भी। जैन मान्यता के अनुसार जीव अथवा आत्मा स्वतन्त्र अस्तित्व वाला द्रव्य है। अपने अस्तित्व के लिए न तो यह किसी दूसरे द्रव्य पर आश्रित है और न इस पर आश्रित कोई अन्य द्रव्य है। इस दृष्टि से जीव को प्रभु कहा गया है जिसका अभिप्राय है जीव स्वयं ही अपने उत्थान या पतन का उत्तरदायी है। सद्प्रवृत्त आत्मा ही उसका मित्र है और दुष्प्रवृत्त आत्मा ही उसका शत्रु है । स्वाधीनता और पराधीनता उसके कर्मों के अधीन है। वह अपनी साधना के द्वारा घाती-अघाती सभी प्रकार के कर्मों को नष्ट कर पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर सकता है। स्वयं परमात्मा बन सकता है। जैनदर्शन में यही जीव का लक्ष्य माना गया है। यहाँ स्वतन्त्रता के स्थान पर मुक्ति शब्द का प्रयोग हुआ है। इस मुक्ति-प्राप्ति में जीव की साधना और उसका पुरुषार्थ ही मुख्य साधन है। गुरु आदि से मार्गदर्शन तो मिल सकता है, पर उनको पूजने-आराधने से मुक्ति नहीं मिल सकती। मुक्ति-प्राप्ति के लिए स्वयं के आत्मा को ही पुरुषार्थ में लगाना होगा। इस प्रकार जीव मात्र की गरिमा, महत्ता और इच्छा-शक्ति को जैन-दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसीलिए यहां मुक्त जीव अर्थात् परमात्मा की गुणात्मक एकता के साथ-साथ मात्रात्मक अनेकता है। क्योंकि प्रत्येक जीव ईश्वर के सान्निध्य का सामीप्य-लाभ ही प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है, बल्कि स्वयं परमात्मा
बनने के लिए क्षमतावान है। फलतः जैन दृष्टि में आत्मा ही परमात्मदशा प्राप्त करती है, पर
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनदर्शन में जनतांत्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्व
३०३
.
कोई परमात्मा आत्मदशा प्राप्त कर पुनः अवतरित नहीं होता। इस प्रकार व्यक्ति के अस्तित्व के धरातल पर जीव को ईश्वराधीनता और कर्माधीनता दोनों से मुक्ति दिलाकर उसकी पूर्ण स्वतन्त्रता की रक्षा की गयी है।
जैनदर्शन की यह स्वतन्त्रता निरंकुश या एकाधिकारवादिता की उपज नहीं है। इसमें दूसरों के अस्तित्व की स्वतन्त्रता की भी पूर्ण रक्षा है । इसी बिन्दु से अहिंसा का सिद्धान्त उभरता है जिसमें जन के प्रति ही नहीं प्राणीमात्र के प्रति मित्रता और बन्धुत्व का भाव है। यहां जन अर्थात् मनुष्य ही प्राणी नहीं है और मात्र उसकी हत्या ही हिंसा नहीं है। जैन शास्त्रों में प्राण अर्थात् जीवनी-शक्ति के दस भेद बताये गये हैं-सुनने की शक्ति, देखने की शक्ति, सूंघने की शक्ति, स्वाद लेने की शक्ति, छने की शक्ति, विचारने की शक्ति, बोलने की शक्ति, गमनागमन की शक्ति, श्वास लेने छोड़ने की शक्ति और जीवित रहने की शक्ति । इनमें से प्रमत्त योग द्वारा किसी भी प्राण को क्षति पहुँचाना, उस पर प्रतिबन्ध लगाना, उसकी स्वतन्त्रता में बाधा पहुँचाना, हिंसा है। जब हम किसी के स्वतन्त्र चिन्तन को बाधित करते हैं, उसके बोलने पर प्रतिबन्ध लगाते हैं और गमनागमन पर रोक लगाते हैं तो प्रकारान्तर से क्रमशः उसके मन, वचन और काया रूप प्राण की हिंसा करते हैं। इसी प्रकार किसी के देखने, सुनने, संघने, चखने, छुने आदि पर प्रतिबन्ध लगाना मी विभिन्न प्राणों की हिंसा है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि स्वतन्त्रता का यह सूक्ष्म, उदात्त चिन्तन ही हमारे संविधान के स्वतन्त्रता सम्बन्धी मौलिक अधिकारों का उत्स
स्वतन्त्रता का विचार-जगत में बड़ा महत्व है। आत्मनिर्णय और मताधिकार इसी के परिणाम हैं। कई साम्यवादी देशों में सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता होते हुए भी इच्छा स्वातन्त्र्य का यह अधिकार नहीं है । पर जैनदर्शन में और हमारे संविधान में भी विचार स्वातन्त्र्य को सर्वोपरि महत्व दिया गया है। भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा कि प्रत्येक जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व है, इसलिए उसकी स्वतन्त्र विचार-चेतना भी है। अतः जैसा तुम सोचते हो एकमात्र वही सत्य नहीं है। दूसरे जो सोचते हैं उसमें भी सत्यांश निहित है। अतः पूर्ण सत्य का साक्षास्कार करने के लिए इतर लोगों के सोचे हुए, अनुभव किये हुए सत्यांशों को भी महत्व दो। उन्हें समझो, परखो, और उसके आलोक में अपने सत्य का परीक्षण करो। इससे न केवल तुम्हें उस सत्य का साक्षात्कार होगा वरन् अपनी मूलों के प्रति सुधार करने का तुम्हें अवसर भी मिलेगा। प्रकारान्तर से महावीर का यह चिन्तन जनतान्त्रिक शासन-व्यवस्था में स्वस्थ विरोधी पक्ष की आवश्यकता और महत्ता प्रतिपादित करता है तथा इस बात की प्रेरणा देता है कि किसी भी तथ्य को भली प्रकार समझने के लिए अपने को विरोध-पक्ष की स्थिति में रख कर उस पर चिन्तन करो। तब जो सत्य निखरेगा वह निर्मल, निर्विकार और निष्पक्ष होगा। महावीर का यह वैचारिक औदार्य और सापेक्ष चिन्तन स्वतन्त्रता का रक्षा कवच है। यह दृष्टिकोण अनेकान्त सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित है।
२. समानता-स्वतन्त्रता की अनुमति वातावरण और अवसर की समानता पर निर्भर है। यदि समाज में जातिगत वैषम्य और आर्थिक असमानता है तो स्वतन्त्रता के प्रदत्त अधिकारों का भी कोई विशेष उपयोग नहीं। इसलिए महावीर ने स्वतन्त्रता पर जितना बल दिया उतना ही बल समानता पर दिया। उन्हें जो विरक्ति हुई वह केवल जीवन को नश्वरता या सांसारिक असारता को देखकर नहीं वरन् मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण देखकर वे तिलमिला उठे। और उस शोषण को मिटाने के लिए, जीवन के हर स्तर पर समता स्थापित करने के लिए उन्होंने क्रान्ति की, तीर्थ प्रवर्तन किया। भक्त और भगवान के बीच पनपे धर्म दलालों को अनावश्यक
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०४
मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
बताकर भक्त और भगवान के बीच गुणात्मक सम्बन्ध जोड़ा। जन्म के स्थान पर कर्म को प्रतिष्ठित कर गरीबों, दलितों और असहायों को उच्च आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त करने की कला सिखायी। अपने साधना काल में कठोर अभिग्रह धारण कर दासी बनी, हथकड़ी और बेड़ियों में जकड़ी, तीन दिन से भूखी, मुण्डित केश राजकुमारी चन्दना से आहार ग्रहण कर, उच्च क्षत्रिय राजकुल की महारानियों के मुकाबले समाज में निकृष्ट समझो जाने वाली नारी शक्ति की आध्यात्मिक गरिमा और महिमा प्रतिष्ठापित की। जातिवाद और वर्णवाद के खिलाफ छेड़ी गयी यह सामाजिक क्रान्ति भारतीय जनतन्त्र की सामाजिक समानता का मुख्य आधार बनी है। यह तथ्य पश्चिम के सभ्य कहलाने वाले तथाकथित जनतान्त्रिक देशों की रंगभेद नीति के विरुद्ध एक चुनौती है।
महावीर दूरद्रष्टा विचारक और अनन्तज्ञानी साधक थे। उन्होंने अनुभव किया कि आर्थिक समानता के बिना सामाजिक समानता अधिक समय तक कायम नहीं रह सकती और राजनैतिक स्वाधीनता भी आर्थिक स्वाधीनता के अभाव में कल्याणकारी नहीं बनती। इसलिए महावीर का सारा बल अपरिग्रह भावना पर रहा। एक ओर उन्होंने एक ऐसी साधु संस्था खड़ी की जिसके पास रहने को अपना कोई आगार नहीं। कल के खाने की आज कोई निश्चित व्यवस्था नहीं, सुरक्षा के लिए जिसके पास कोई साधन-संग्रह नहीं, जो अनगार है, भिक्षु है, पादविहारी है, निर्ग्रन्थ है, श्रमण है, अपनी श्रम साधना पर जीता है और दूसरों के कल्याण के लिए समर्पित हैं, उसका सारा जीवन जिसे समाज से कुछ लेना नहीं, देना ही देना है । दूसरी और उन्होंने उपासक संस्था-श्रावक संस्था खड़ी की जिसके परिग्रह की मर्यादा है, जो अणुव्रती है।
श्रावक के बारह व्रतों पर जब हम चिंतन करते हैं तो लगता है कि अहिंसा के समानान्तर ही परिग्रह की मर्यादा और नियमन का विचार चला है। गृहस्थ के लिए महावीर यह नहीं कहते कि तुम संग्रह न करो। उनका बल इस बात पर है कि आवश्यकता से अधिक संग्रह मत करो। और जो संग्रह करो उस पर स्वामित्व की भावना मत रखो। पाश्चात्य जनतान्त्रिक देशों में स्वामित्व को नकारा नहीं गया है। वहाँ सम्पत्ति को एक स्वामी से छीन कर दूसरे को स्वामी बना देने पर बल है। इस व्यवस्था में ममता छूटती नहीं, स्वामित्व बना रहता है और जब तक स्वामित्व का भाव है-संघर्ष है, वर्गमेद है। वर्गविहीन समाज रचना के लिए स्वामित्व का विसर्जन जरूरी है । महावीर ने इसलिए परिग्रह को सम्पत्ति नहीं कहा, उसे मूर्छा या ममत्व माव कहा है। साधु तो नितान्त अपरिग्रही होता ही है, गृहस्थ भी धीरे-धीरे उस ओर बढ़े, यह अपेक्षा है । इसीलिए महावीर ने श्रावक के बारह व्रतों में जो व्यवस्था दी है वह एक प्रकार से स्वैच्छिक स्वामित्वबिसर्जन और परिग्रह मर्यादा, सीलिंग की व्यवस्था है। आर्थिक विषमता के उन्मूलन के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति के उपार्जन के स्रोत और उपभोग के लक्ष्य मर्यादित और निश्चित हों । बारह व्रतों में तीसरा अस्तेय व्रत इस बात पर बल देता है कि चोरी करना ही वजित नहीं है, बल्कि चोर द्वारा चुराई हुई वस्तु को लेना, चोर को प्रेरणा करना, उसे किसी प्रकार की सहायता करना, राज्य नियमों के विरुद्ध प्रवृत्ति करना, झूठा नाप-तौल करना, झूठा दस्तावेज लिखना, झूठी साक्षी देना, वस्तुओं में मिलावट करना, अच्छी वस्तु दिखाकर घटिया दे देना आदि सब पाप हैं। आज की बढ़ती हुई चोर-बाजारी, टेक्स चोरी, खाद्य पदार्थों में मिलावट की प्रवृत्ति आदि सब महावीर की दृष्टि से व्यक्ति को पाप की ओर ले जाते हैं और समाज में आर्थिक विषमता के कारण बनते हैं। इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए पांचवें व्रत में उन्होंने खेत, मकान, सोना-चांदी आदि जेवरात, धन धान्य, पशु-पक्षी, जमीन-जायदाद आदि को मर्यादित, आज की शब्दावली में इनका सीलिंग करने पर जोर दिया है और इच्छाओं को उत्तरोत्तर नियन्त्रित करने की बात कही है। छठे व्रत में व्यापार करने के क्षेत्र को सीमित करने का विधान है। क्षेत्र और दिशा का परिमाण करने से न
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
जनदर्शन में जनतांत्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्व ३०५
तो तस्करवृत्ति को पनपने का अवसर मिलता है और न उपनिवेशवादी वृत्ति को बढ़ावा मिलता है। सातवें व्रत में अपने उपभोग में आने वाली वस्तुओं की मर्यादा करने की व्यवस्था है । यह एक प्रकार का स्वैच्छिक राशनिंग सिस्टम है । इससे व्यक्ति अनावश्यक संग्रह से बचता है और संयमित रहने से साधना की ओर प्रवृत्ति बढ़ती है। इसी व्रत में अर्थार्जन के ऐसे स्रोतों से बचते रहने की बात कही गयी है जिनसे हिंसा बढ़ती है. कृषि उत्पादन को हानि पहुंचती है और असामाजिक तत्वों को प्रोत्साहन मिलता है। भगवान महावीर ने ऐसे व्यवसायों को कर्मादान की संज्ञा दी है और उनकी संख्या पन्द्रह बतलायी है। आज के संदर्भ में इंगालकम्मे जंगल में आग लगाना, वणकम्मे - जगल आदि कटवाकर बेचना, असईजणपोसणया – असंयति जनों का पोषण करना अर्थात् असामाजिक तत्वों को पोषण देना, आदि पर शेक का विशेष महत्व है।
-
-
यह
(३) लोक-कल्याण जैसा कि कहा जा चुका है महावीर ने संग्रह का निषेध नहीं किया है बल्कि आवश्यकता से अधिक संग्रह न करने को कहा है। इसके दो फलितार्थ है - एक तो कि व्यक्ति अपने लिए जितना आवश्यक हो उतना ही उत्पादन करे और निष्क्रिय बन जाय दूसरा यह कि अपने लिए जितना आवश्यक हो उतना तो उत्पादन करे ही और दूसरों के लिए जो आवश्यक हो उसका भी उत्पादन करे । यह दूसरा अर्थ ही अभीष्ट है । जैनधर्म पुरुषार्थं प्रधान धर्म है अतः वह व्यक्ति को निष्क्रिय व अकर्मण्य बनाने की शिक्षा नहीं देता । राष्ट्रीय उत्पादन में व्यक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका को जैनदर्शन स्वीकार करता है पर वह उत्पादन शोषण, जमालोरी और आर्थिक विषमता का कारण न बने. इसका विवेक रखना आवश्यक है। सरकारी कानून कायदे तो इस दृष्टि से समय-समय पर बनते ही रहते हैं पर, जैन साधना में व्रत -नियम, तप त्याग और दान दवा के माध्यम से इस पर नियन्त्रण रखने का विधान है। तपों में वैयावृत्य अर्थात् सेवा को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसी सेवा भाव से धर्म का सामाजिक पक्ष उमरता है। जैन धर्मावलम्बियों ने शिक्षा, चिकित्सा, छात्रवृत्ति, विधवा सहायता आदि के रूप में अनेक ट्रस्ट खड़े कर राष्ट्र की महान सेवा की है। हमारे यहां शास्त्रों में पैसा अर्थात् रुपयों के दान का विशेष महत्व नहीं है । यहाँ विशेष महत्व रहा है- आहारदान, ज्ञानदान, औषधदान और अभयदान का स्वयं भूखे रह कर दूसरों को भोजन कराना पुण्य का कार्य माना गया है। अनशन अर्थात भूखा रहना अपने प्राणों के प्रति मोह छोड़ना, प्रथम तप कहा गया है पर दूसरों को भोजन, स्थान, वस्त्र आदि देना, उनके प्रति मन से शुभ प्रवृत्ति रखना, वाणी से हितकारी वचन बोलना और शरीर से शुभ व्यापार करना तथा समाज सेवियों व लोक सेवकों का आदर-सत्कार करना भी पुण्य माना गया है। इसके विपरीत किसी का भोजन-पानी से विच्छेद करना - भत्तपाणबुच्छए, अतिचार, पाप माना गया है ।
महावीर ने स्पष्ट कहा है-जैसे जीवित रहने का हमें अधिकार है जैसे ही अन्य प्राणियों को भी । जीवन का विकास संघर्ष पर नहीं, सहयोग पर ही आधारित है । जो प्राणी जितना अधिक उन्नत और प्रबुद्ध है, उसमें उसी अनुपात में सहयोग और त्यागवृत्ति का विकास देखा जाता है । मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है । इस नाते दूसरों के प्रति सहयोगी बनना उसका मूल स्वभाव है । अन्तःकरण में सेवा भाव का उदक तभी होता है जब "आत्मवत् सर्वभूतेषु" जैसा उदात्त विचार शेष सृष्टि के साथ आत्मीय सम्बन्ध जोड़ पाता है। इस स्थिति में जो सेवा की जाती है। वह एक प्रकार से सहज स्फूर्ति सामाजिक दायित्व ही होता है। लोककल्याण के लिये अपनी सम्पत्ति विसर्जित कर देना एक बात है और स्वयं सक्रिय घटक बन कर सेवा कार्यों में जुट जाना दूसरी बात है। पहला सेवा का नकारात्मक रूप है जबकि दूसरी में सकारात्मक रूप इसमें सेवा व्रती "स्लीपिंग पार्टनर” बन कर नहीं रह सकता, उसे सजग प्रहरी बन कर रहना होता है ।
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०६
मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
श्रावक के बारह व्रतों में पांचवां परिग्रह परिमाण व्रत सेवा के नकारात्मक पहलू को सूचित करता है जबकि बारहवां अतिथि संविभाग व्रत सेवा के सकारात्मक पहल को उजागर करता है।
__ लोक सेवक में सरलता, सहृदयता और संवेदनशीलता का गुण होना आवश्यक है। सेवाव्रती को किसी प्रकार का अहम् न छू पाए और वह सत्तालिप्सु न बन जाए, इस बात की सतर्कता पदपद पर बरतनी जरूरी है। विनय को जो धर्म का मूल कहा गया है, उसकी अर्थवत्ता इस संदर्भ में बड़ी गहरी है।
लोकसेवा के नाम पर अपना स्वार्थ साधने वालों को महावीर ने इस प्रकार चेतावनी दी है
असंविभागी असंगहरूई अप्पमाणभोई
से तारिसए नाराहए वयमिणं । अर्थात्-जो असंविभागी है-जीवन साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व की सत्ता स्थापित कर दूसरों के प्रकृति प्रदत्त संविभाग को नकारता है, असंग्रह रुचि-जो अपने लिए ही संग्रह करके रखता है और दूसरों के लिए कुछ भी नहीं रखता, अप्रमाणमोजी-मर्यादा से अधिक भोजन एवं जीवनसाधनों का स्वयं उपभोग करता है, वह आराधक नहीं विराधक है।
४. धर्म निरपेक्षता-स्वतन्त्रता, समानता और लोक-कल्याण का भाव धर्म-निरपेक्षता की भूमि में ही फल-फूल सकता है। धर्म निरपेक्षता का अर्थ धर्मरहितता न होकर असाम्प्रदायिक भावना और सार्वजनीन समभाव से है। हमारे देश में विविध धर्म और धर्मानुयायी हैं । इन विविध धों के अनुयायियों में पारस्परिक सौहार्द, सम्मान और ऐक्य की भावना बनी रहे, सबको अपनेअपने ढंग से उपासना करने और अपने धर्म का विकास करने का पूर्ण अवसर मिले तथा धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव या पक्षपात न हो इसी दृष्टि से धर्म-निरपेक्षता हमारे संविधान का महत्त्वपूर्ण अंग बना है। धर्म निरपेक्षता की इस अर्थभूमि के अभाव में न स्वतन्त्रता टिक सकती है और न समानता और न लोक-कल्याण की भावना पनप सकती है । जैन तीर्थंकरों ने सम्यता के प्रारम्भ में ही शायद यह तथ्य हृदयंगम कर लिया था। इसीलिए उनका सारा चिन्तन धर्म निरपेक्षता अर्थात् सार्वजनीन समभाव के रूप में ही चला । इस सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य विशेष महत्त्वपूर्ण है
(१) जैन तीर्थंकरों ने अपने नाम पर धर्म का नामकरण नहीं किया। जैन शब्द बाद का शब्द है । इसे समण (श्रमण), अहंत और निर्ग्रन्थ धर्म कहा गया है। श्रमण शब्द समभाव, श्रमशीलता और वृत्तियों के उपशमन का परिचायक है । अर्हत् शब्द भी गुणवाचक है जिसने पूर्ण योग्यतापूर्णता प्राप्त करली है वह है-अर्हत् । जिसने सब प्रकार की ग्रन्थियों से छुटकारा पा लिया है वह है निर्ग्रन्थ । जिन्होंने राग-द्वेष रूप शत्रुओं-आन्तरिक विकारों को जीत लिया है वे जिन कहे गये हैं और उनके अनुयायी जैन । इस प्रकार जैनधर्म किसी विशेष व्यक्ति, सम्प्रदाय या जाति का परिचायक न होकर उन उदात्त जीवन आदर्शों और सार्वजनीन भावों का प्रतीक है जिनमें संसार के सभी प्राणियों के प्रति आत्मोपम्य मैत्रीभाव निहित है।
(२) जैनधर्म में जो नमस्कार मन्त्र है, उसमें किसी तीर्थकर, आचार्य या गुरु का नाम लेकर वन्दना नहीं की गई है। उसमें पंच परमेष्ठियों को नमन किया गया है-नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं । अर्थात् जिन्होंने अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करली है, उन अरिहन्तों को नमस्कार हो; जो संसार के जन्म-म चक्र से छूटकर शुद्ध परमात्मा बन गए हैं उन सिद्धों को नमस्कार हो; जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप आदि आचारों का स्वयं पालन करते हैं और दूसरों से करवाते हैं उन आचार्यों को नमस्कार
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________ जैनदर्शन में जनतांत्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्व 307 हो; जो आगमादि ज्ञान के विशिष्ट व्याख्याता है और जिनके सान्निध्य में रहकर दूसरे अध्ययन करते हैं, उन उपाध्यायों को नमस्कार हो; लोक में जितने भी सत्पुरुष हैं उन सभी साधुओं को नमस्कार हो, चाहे वे किसी जाति, धर्म, मत या तीर्थ से सम्बन्धित हों। कहना न होगा कि नमस्कार मन्त्र का यह गुणनिष्ठ आधार जैनदर्शन की उदारचेता सार्वजनीन भावना का मेरुदण्ड है। (3) जैन-दर्शन के आत्म-विकास अर्थात् मुक्ति को सम्प्रदाय के साथ नहीं बल्कि धर्म के साथ जोड़ा है। महावीर ने कहा किसी भी परम्परा या सम्प्रदाय में दीक्षित, किसी भी लिंग में स्त्री हो या पुरुष, किसी भी वेश में साधु हो या गृहस्थ, व्यक्ति अपना पूर्ण विकास कर सकता है। उसके लिए यह आवश्यक नहीं कि वह महावीर द्वारा स्थापित धर्मसंघ में ही दीक्षित हो / महावीर ने अश्र त्वा केवली को जिसने कभी भी धर्म को सुना भी नहीं, परन्तु चित्त की निर्मलता के कारण, केवलज्ञान की कक्षा तक पहुंचाया है। पन्द्रह प्रकार के सिद्धों में अन्यलिंग और प्रत्येकबुद्ध सिद्धों को जो किसी सम्प्रदाय या धार्मिक परम्परा से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि अपने ज्ञान से प्रबुद्ध होते हैं सम्मिलित कर महावीर ने साम्प्रदायिकता की निस्सारता सिद्ध कर दी है। वस्तुतः धर्म-निरपेक्षता का अर्थ धर्म के सत्य से साक्षात्कार करने की तटस्थ वृत्ति से है। निरपेक्षता अर्थात अपने लगाव और दूसरों के द्वष-भाव से परे रहने की स्थिति? इसी अर्थ में जनदर्शन में धर्म की विवेचना करते हुए वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है। जब महावीर से पूछा गया कि आप जिसे नित्य, ध्रव और शाश्वत धर्म कहते हैं, वह कौनसा है-तब उन्होंने कहा-किसी प्राणी को मत मारो, उपद्रव मत करो, किसी को परिताप न दो और किसी को स्वतन्त्रता का अपहरण न करो। इस दृष्टि से जो धर्म के तत्त्व है प्रकारान्तर से वे ही जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्व हैं। उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैनदर्शन जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना से प्रारम्भ से ही अपने तत्कालीन सन्दर्भो में सम्पृक्त रहा है। उसकी दृष्टि जनतन्त्रात्मक परिवेश में राजनतिक क्षितिज तक ही सीमित नहीं रही है। उसने स्वतन्त्रता और समानता जैसे जनतान्त्रिक मूल्यों को लोकभूमि में प्रतिष्ठित करने की दृष्टि से अहिसा, अनेकान्त और अपरिग्रह जैसे मूल्यवान सूत्र दिये हैं और वैयक्तिक तथा सामाजिक धरातल पर धर्म-सिद्धान्तों की मनोविज्ञान और समाजविज्ञान सम्मत व्यवस्था दी है। इससे निश्चय ही सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में सांस्कृतिक स्वराज्य स्थापित करने की दिशा मिलती है /