________________ जैनदर्शन में जनतांत्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्व 307 हो; जो आगमादि ज्ञान के विशिष्ट व्याख्याता है और जिनके सान्निध्य में रहकर दूसरे अध्ययन करते हैं, उन उपाध्यायों को नमस्कार हो; लोक में जितने भी सत्पुरुष हैं उन सभी साधुओं को नमस्कार हो, चाहे वे किसी जाति, धर्म, मत या तीर्थ से सम्बन्धित हों। कहना न होगा कि नमस्कार मन्त्र का यह गुणनिष्ठ आधार जैनदर्शन की उदारचेता सार्वजनीन भावना का मेरुदण्ड है। (3) जैन-दर्शन के आत्म-विकास अर्थात् मुक्ति को सम्प्रदाय के साथ नहीं बल्कि धर्म के साथ जोड़ा है। महावीर ने कहा किसी भी परम्परा या सम्प्रदाय में दीक्षित, किसी भी लिंग में स्त्री हो या पुरुष, किसी भी वेश में साधु हो या गृहस्थ, व्यक्ति अपना पूर्ण विकास कर सकता है। उसके लिए यह आवश्यक नहीं कि वह महावीर द्वारा स्थापित धर्मसंघ में ही दीक्षित हो / महावीर ने अश्र त्वा केवली को जिसने कभी भी धर्म को सुना भी नहीं, परन्तु चित्त की निर्मलता के कारण, केवलज्ञान की कक्षा तक पहुंचाया है। पन्द्रह प्रकार के सिद्धों में अन्यलिंग और प्रत्येकबुद्ध सिद्धों को जो किसी सम्प्रदाय या धार्मिक परम्परा से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि अपने ज्ञान से प्रबुद्ध होते हैं सम्मिलित कर महावीर ने साम्प्रदायिकता की निस्सारता सिद्ध कर दी है। वस्तुतः धर्म-निरपेक्षता का अर्थ धर्म के सत्य से साक्षात्कार करने की तटस्थ वृत्ति से है। निरपेक्षता अर्थात अपने लगाव और दूसरों के द्वष-भाव से परे रहने की स्थिति? इसी अर्थ में जनदर्शन में धर्म की विवेचना करते हुए वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है। जब महावीर से पूछा गया कि आप जिसे नित्य, ध्रव और शाश्वत धर्म कहते हैं, वह कौनसा है-तब उन्होंने कहा-किसी प्राणी को मत मारो, उपद्रव मत करो, किसी को परिताप न दो और किसी को स्वतन्त्रता का अपहरण न करो। इस दृष्टि से जो धर्म के तत्त्व है प्रकारान्तर से वे ही जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्व हैं। उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैनदर्शन जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना से प्रारम्भ से ही अपने तत्कालीन सन्दर्भो में सम्पृक्त रहा है। उसकी दृष्टि जनतन्त्रात्मक परिवेश में राजनतिक क्षितिज तक ही सीमित नहीं रही है। उसने स्वतन्त्रता और समानता जैसे जनतान्त्रिक मूल्यों को लोकभूमि में प्रतिष्ठित करने की दृष्टि से अहिसा, अनेकान्त और अपरिग्रह जैसे मूल्यवान सूत्र दिये हैं और वैयक्तिक तथा सामाजिक धरातल पर धर्म-सिद्धान्तों की मनोविज्ञान और समाजविज्ञान सम्मत व्यवस्था दी है। इससे निश्चय ही सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में सांस्कृतिक स्वराज्य स्थापित करने की दिशा मिलती है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org