Book Title: Jain Darshan me Jan tantrik Samajik Chetna ke Tattva Author(s): Narendra Bhanavat Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 6
________________ ३०६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ श्रावक के बारह व्रतों में पांचवां परिग्रह परिमाण व्रत सेवा के नकारात्मक पहलू को सूचित करता है जबकि बारहवां अतिथि संविभाग व्रत सेवा के सकारात्मक पहल को उजागर करता है। __ लोक सेवक में सरलता, सहृदयता और संवेदनशीलता का गुण होना आवश्यक है। सेवाव्रती को किसी प्रकार का अहम् न छू पाए और वह सत्तालिप्सु न बन जाए, इस बात की सतर्कता पदपद पर बरतनी जरूरी है। विनय को जो धर्म का मूल कहा गया है, उसकी अर्थवत्ता इस संदर्भ में बड़ी गहरी है। लोकसेवा के नाम पर अपना स्वार्थ साधने वालों को महावीर ने इस प्रकार चेतावनी दी है असंविभागी असंगहरूई अप्पमाणभोई से तारिसए नाराहए वयमिणं । अर्थात्-जो असंविभागी है-जीवन साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व की सत्ता स्थापित कर दूसरों के प्रकृति प्रदत्त संविभाग को नकारता है, असंग्रह रुचि-जो अपने लिए ही संग्रह करके रखता है और दूसरों के लिए कुछ भी नहीं रखता, अप्रमाणमोजी-मर्यादा से अधिक भोजन एवं जीवनसाधनों का स्वयं उपभोग करता है, वह आराधक नहीं विराधक है। ४. धर्म निरपेक्षता-स्वतन्त्रता, समानता और लोक-कल्याण का भाव धर्म-निरपेक्षता की भूमि में ही फल-फूल सकता है। धर्म निरपेक्षता का अर्थ धर्मरहितता न होकर असाम्प्रदायिक भावना और सार्वजनीन समभाव से है। हमारे देश में विविध धर्म और धर्मानुयायी हैं । इन विविध धों के अनुयायियों में पारस्परिक सौहार्द, सम्मान और ऐक्य की भावना बनी रहे, सबको अपनेअपने ढंग से उपासना करने और अपने धर्म का विकास करने का पूर्ण अवसर मिले तथा धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव या पक्षपात न हो इसी दृष्टि से धर्म-निरपेक्षता हमारे संविधान का महत्त्वपूर्ण अंग बना है। धर्म निरपेक्षता की इस अर्थभूमि के अभाव में न स्वतन्त्रता टिक सकती है और न समानता और न लोक-कल्याण की भावना पनप सकती है । जैन तीर्थंकरों ने सम्यता के प्रारम्भ में ही शायद यह तथ्य हृदयंगम कर लिया था। इसीलिए उनका सारा चिन्तन धर्म निरपेक्षता अर्थात् सार्वजनीन समभाव के रूप में ही चला । इस सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य विशेष महत्त्वपूर्ण है (१) जैन तीर्थंकरों ने अपने नाम पर धर्म का नामकरण नहीं किया। जैन शब्द बाद का शब्द है । इसे समण (श्रमण), अहंत और निर्ग्रन्थ धर्म कहा गया है। श्रमण शब्द समभाव, श्रमशीलता और वृत्तियों के उपशमन का परिचायक है । अर्हत् शब्द भी गुणवाचक है जिसने पूर्ण योग्यतापूर्णता प्राप्त करली है वह है-अर्हत् । जिसने सब प्रकार की ग्रन्थियों से छुटकारा पा लिया है वह है निर्ग्रन्थ । जिन्होंने राग-द्वेष रूप शत्रुओं-आन्तरिक विकारों को जीत लिया है वे जिन कहे गये हैं और उनके अनुयायी जैन । इस प्रकार जैनधर्म किसी विशेष व्यक्ति, सम्प्रदाय या जाति का परिचायक न होकर उन उदात्त जीवन आदर्शों और सार्वजनीन भावों का प्रतीक है जिनमें संसार के सभी प्राणियों के प्रति आत्मोपम्य मैत्रीभाव निहित है। (२) जैनधर्म में जो नमस्कार मन्त्र है, उसमें किसी तीर्थकर, आचार्य या गुरु का नाम लेकर वन्दना नहीं की गई है। उसमें पंच परमेष्ठियों को नमन किया गया है-नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं । अर्थात् जिन्होंने अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करली है, उन अरिहन्तों को नमस्कार हो; जो संसार के जन्म-म चक्र से छूटकर शुद्ध परमात्मा बन गए हैं उन सिद्धों को नमस्कार हो; जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप आदि आचारों का स्वयं पालन करते हैं और दूसरों से करवाते हैं उन आचार्यों को नमस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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