Book Title: Jain Darshan me Dhwani ka Swarup Author(s): Nandighoshvijay Publisher: Z_Jain_Dharm_Vigyan_ki_Kasoti_par_002549.pdf View full book textPage 2
________________ को ऐसी बात में श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती है । किन्तु उस कारण से ऐसी शक्तियाँ हो सकती नहीं है, ऐसा विधान करना उचित नहीं है । श्री अशोक कुमार दत्त को प्राप्त ध्वनि के वर्ण को प्रत्यक्ष करने की शक्ति भी ऐसी ही विशिष्ट अज्ञात लब्धि हो सकती है । श्री दत्त की यही विशिष्ट शक्ति जैन कर्मवाद के अनुसार मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त हुई हो क्यों कि इसी कर्म से पाँचों इन्द्रिय व छठे मन द्वारा प्राप्त ज्ञान का आवरण होता है । अर्थात् यही कर्म इन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान में बाधक होता है । | जब इसी कर्म का आवरण आत्मा के ऊपर से दूर होता है तब सहजता से ही इन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । श्री दत्त को हुए संस्कृत वर्णमाला संबंधित रंग का अनुभव और प्राचीन तंत्र विज्ञान के ग्रंथों में प्राप्त संस्कृत अक्षर के रंग में बहुत कुछ स्थान पर भिन्नता दिखाई पड़ती है । साथ-साथ तंत्र विज्ञान के ग्रंथों में भी परस्पर अक्षरों के वर्ण में भिन्नता दिखाई पड़ती है । तथापि यह संदर्भ इतना तो सिद्ध करता ही है कि प्राचीन काल के ऋषि-मुनि व विशिष्ट आराधक / तांत्रिकों को ध्वनि के रंग के बारे में अनुभव होता था । ब्रह्मांड में सभी जगह भाषा अर्थात् ध्वनि की उत्पत्ति व प्रसार किस तरह होता है उसको अच्छी तरह समझ लेने की आवश्यकता है । इसके बारे में आचारांग नामक पवित्र जैन आगम के द्वितीय श्रुतस्कंध / खंड के चौथे भाषाजात नामक प्रकरण में बताया है कि भाषा के चार प्रकार हैं । 1. उत्पत्तिजात : आगे बतायी हुई वर्गणाओं में से भाषा वर्गणा में जिनका | समावेश होता है वैसे परमाणु समूह को जीव शरीर के द्वारा ग्रहण करता है। | और भाषा के रूप में परिणत करके पुनः बाहर निकालता है उसी परमाणुसमूह को "उत्पत्तिजात" शब्द कहा जाता है । 2. पर्यवजात : उपर्युक्त पद्धति से बाहर निकले हुये शब्द के परमाणुसमूह द्वारा उसके आसपास के विश्रेणिगत अर्थात् पंक्तिबद्ध न हो | ऐसे भाषा वर्गणा के परमाणुसमूह को टकराकर उसी परमाणुसमूह भाषा के रूप में परिणत करते हैं । इस नये परिणत हुए शब्द को पर्यवजात शब्द कहा जाता है । 3. अन्तरजात : प्रथम प्रकार से परिणत हुये शब्द के परमाणुसमूह जब समश्रेणिगत अर्थात् पंक्तिबद्ध आये हुये भाषा वर्गणा के परमाणुसमूह को Jain Education International 39 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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