Book Title: Jain Darshan me Dhwani ka Swarup Author(s): Nandighoshvijay Publisher: Z_Jain_Dharm_Vigyan_ki_Kasoti_par_002549.pdf View full book textPage 1
________________ 7 जैनदर्शन में ध्वनि का स्वरूप प्राचीन जैन दार्शनिक साहित्य व तंत्रविज्ञान ध्वनि को कण स्वरूप में ही स्वीकार करते हैं, इतना ही नहीं अपि तु उनके रंग भी उन्होंने बताये हैं उसके साथ पश्चिम के अर्वाचीन साहित्य में भी पश्चिम की दो तीन व्यक्तियाँ ने ध्वनि के वर्ण/रंग देखे हैं ऐसे संदर्भ प्राप्त होते हैं । उसी प्रकार श्री अशोक कुमार दत्त को भी इस प्रकार की प्राकृतिक देन है । वे आज भी ध्वनि के रंग को प्रत्यक्ष देख सकते हैं । जैनदर्शन ध्वनि को पुद्गल परमाणुसमूह से निष्पन्न मानता है, अतः पुद् गल परमाणु के प्रत्येक गुण सूक्ष्म स्वरूप में ध्वनि में भी होते हैं । तत्त्वा सूत्र जैनियों के दिगंबर व श्वेताम्बर सभी को मान्य है, उसमें स्पष्ट रूप पुद्गल द्रव्य व उसके सूक्ष्मतम अविभाज्य अंश स्वरूप परमाणु में वर्ण गंध, रस और स्पर्श होने का निर्देश किया गया है । अतः ध्वनि का भी वर्षा | जैसे किसी अतीन्द्रिय ज्ञानी पुरुष देख सकते हैं वैसे अन्य किसी को उसके रस या गंध का भी अनुभव हो सकता है । हालाँकि, ध्वनि के स्पर्श क अनुभव तो सभी को होता ही है और टेप रेकॉर्डर, ग्रामोफोन की रेकॉर इत्यादि ध्वनि के स्पर्श से ही तैयार होते हैं । बहुत तीव्र ध्वनि के स्पर्श क भी हम सब को स्पष्ट रूप से अनुभव होता है । उसके बारे में ज्यादा कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं है । जैन प्राचीन परंपरा में कुछ विशिष्ट तपस्वियों को तप के प्रभाव विशिष्ट शक्तियाँ प्राप्त होने का निर्देश मिलता है । ऐसी शक्तियों को जै साहित्य में लब्धि कहा जाता है। श्री सिद्धचक्रमहापूजन नामक विधि विधा विषयक ग्रंथ में ऐली भिन्न-भिन्न 48 विशिष्ट लब्धियों के नाम पाये जाते हैं उसमें संभिन्नस्रोतस् नामक एक विशिष्ट है । यह लब्धि जिसको प्राप्त होती है, वह अपनी किसी भी एक इन्द्रिय द्वारा उससे भिन्न सबी चारों इन्द्रि द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान प्राप्त कर सकता है । अर्थात् केवल स्पर्शनेन्द्रि से वह देख भी सकता है, सुगंध या दुर्गंध का अनुभव भी कर सकता शब्द भी सुन सकता है, और स्वाद भी ले सकता है । हालांकि आज युग में ऐसी विशिष्ट लब्धि की प्राप्ति होना असंभव लगता है । अतः किस Jain Education International 38 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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