Book Title: Jain Darshan me Atmatattva
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

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Page 7
________________ २४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ बड़ा है' आदि रूपसे स्वसंवेदन' नहीं पाया जाता है जबकि प्राणवाले शरीरोंमें उक्त प्रकारसे स्वसंवेदन करने की यथायोग्य योग्यता पायी जाती है। इस प्रकार निष्प्राण घटादि पदार्थों और प्राणवान् शरीरोंमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्शकी समानता पायी जाने पर भी प्राणवान् शरीरोंमें जो परपदार्थज्ञातत्व, प्रयत्नकर्तत्व और स्वसंवेदकत्व ये तीनों विशेषताएँ पायी जाती हैं उनका जब घटादि निष्प्राण पदार्थों में सर्वथा अभाव विद्यमान है तो इससे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्राणवान शरीरोंके अन्दर किसी ऐसे स्वतन्त्र पदार्थकी सत्ता स्वीकृत करनी चाहिये, जिसकी वजहसे ही उनमें (प्राणवान् शरीरोंमें) उक्त प्रकारसे ज्ञातृत्व, कर्तृत्व और भोक्तत्व ये विशेषताएँ पायी जाती हैं तथा जिसके अभावके कारण ही निष्प्राण घटादि पदार्थों में उक्त विशेषताओंका भी अभाव पाया जाता है। इस पदार्थको ही 'आत्मा' नामसे पुकारा गया है। ___ तात्पर्य यह है कि ज्ञातृत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व ये तीनों ही प्राणशब्दके वाच्य हैं। ये जिस शरीरमें जब तक विद्यमान रहते हैं तब तक वह शरीर प्राणवान् कहलाता है तथा जब जिस शरीरमें इनका सर्वथा अभाव हो जाता है तब वह शरीर तथा जिन पदार्थों में इनका सतत अभाव पाया जाता है वे घटादि पदार्थ निष्प्राण कहे जाते हैं। हम देखते है कि शरीरके विद्यमान रहते हुए भी कालान्तरमें उक्त प्राणोंका उसमें सर्वथा अभाव भी हो जाता है अतः यह मानना अयुक्त नहीं है कि वे शरीरसे ही उत्पन्न होने वाले धम नहीं हैं तो जिसके वे धर्म हो सकते है, वही 'आत्मा' है। प्रश्न-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँचों भूतों ( पदार्थों ) के योगसे ही शरीरका निर्माण होता है और तब उस शरीरमें उक्त प्राणोंका प्रादुर्भाव अनायास ही ( अपने आप ही) हो जाता है। यही कारण है कि शरीरमें पृथ्वीतत्त्वका मिश्रण होनेसे हमें नासिका द्वारा गन्धका ज्ञान होता रहता है क्योंकि गन्ध पृथ्वीका गुण है, जल तत्त्वका मिश्रण होनेसे हमें रसना द्वारा रसका ज्ञान होता रहता है क्योंकि रस जलका गुण है, अग्नि तत्त्वका मिश्रण होनेसे नेत्रों द्वारा हमें रूपका ज्ञान होता रहता है क्योंकि रूप अग्निका गुण है, वायु तत्त्वका मिश्रण होनेसे हमें स्पर्शन द्वारा स्पर्शका ज्ञान होता रहता है, क्योंकि स्पर्श वायुका गुण है और इसी तरह आकाश तत्त्वका मिश्रण होनेसे हमें कर्णों द्वारा शब्दका ग्रहण होता रहता है क्योंकि शब्द आकाशका गुण है ? उत्तर-पहली बात तो यह है कि 'शब्द आकाशका गुण है' इस सिद्धान्तको शब्दके लिए कैद कर लेने वाले विज्ञानने आज समाप्त कर दिया है। इसलिए शब्दका ज्ञान करनेके लिये शरीरमें अब आकाश तत्त्वके मिश्रणको स्वीकार करनेकी आवश्यकता नहीं रह गयी है। इसके अलावा शब्दमें जब घात-प्रतिघात रूप शक्ति पायी जाती है तो इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि शब्द आकाशका या दूसरी किसी वस्तुका गुण न होकर अपने आपमें द्रव्य रूप ही हो सकता है क्योंकि गुणमें वह शक्ति नहीं पायी जाती है कि वह स्वयं असहाय होकर किसी दूसरे पदार्थका घात कर सके अथवा दूसरे पदार्थ से उसका घात हो सके। और यदि शब्दको कदाचित् गुण भी मान लिया जाय, तो फिर आकाशके अलावा वह किसका गुण हो सकता है ? इसका निर्णय करना असम्भव है । यही कारण है कि जैन-संस्कृतिमें शब्द को रूप, रस, गन्ध और स्पर्श वाला पदगल द्रव्य माना गया है तथा जैन-संस्कृतिकी यह मान्यता तो है ही, कि पृथ्वी, जल, अग्नि, १. पंचाध्यायी अध्याय २ श्लोक ५। २. वही, अध्याय २, श्लोक ९७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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