Book Title: Jain Darshan me Atmatattva
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ २२ : सरस्वतो-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ की अवस्थाओंमें जो भतता, वर्तमानता और भविष्यत्ताका व्यवहार होता रहता है अथवा कालिक दृष्टिसे जो नये-पुराने या छोटे-बड़ेका व्यवहार वस्तुओंमें होता है उससे कालद्रव्योंके अस्तित्वको स्वीकार किया गया है। आकाश द्रव्य एक क्यों है ? इसका सीधा-सादा उत्तर यही है कि वह सीमारहित द्रव्य है । 'सीमारहित' शब्दका व्यापकरूप अर्थ होता है और 'सीमासहित' शब्दका व्याप्य रूप अर्थ होता है तथा व्यापक द्रव्य वही होगा जिससे बड़ा कोई दुसरा द्रव्य न हो। अतः आकाश द्रव्यका एकत्व अपरिहार्य है और इस आकाशकी बदौलत ही दुसरे द्रव्योंको ससीम कहा जा सकता है। धर्म और अधर्म इन दोनों द्रव्योंको भी जैन-संस्कृतिमें जो एक-एक ही माना गया है उसका कारण यह है कि लोकाकाशमें विद्यमान समस्त जीव द्रव्यों और समस्त पुद्गल द्रव्योंको गमनमें सहायक होना धर्म द्रव्यका काम है और ठहरने में सहायक होना अधर्म द्रव्यका काम है । वे दोनों काम एक, अखण्ड और लोकाकाश भरमें व्याप्त धर्म द्रव्य और इसी प्रकार एक, अखण्ड और लोकाकाश भरमें व्याप्त अधर्म द्रव्यके माननेसे सिद्ध हो जाते हैं । अतः इन दोनों द्रव्योंको भी अनेक स्वीकार न करके एक-एक ही स्वीकार किया गया है। काल द्रव्यको अणुरूप (एकप्रदेशी) स्वीकार करके उसके लोकाकाशके प्रमाण विस्तारमें रहनेवाले असंख्यात भेद स्वीकार करनेका अभिप्राय यह है कि काल द्रव्यसे संयुक्त होनेपर ही वस्तुमें वर्तमानताका व्यवहार होता है और यदि किसी वस्तुका काल द्रव्यसे संयोग था, अब नहीं है तो उस वस्तुमें भूतताका तथा यदि किसी वस्तुका आगे काल द्रव्यसे संयोग होने वाला हो, तो उस वस्तुमें भविष्यताका व्यवहार होता है। अब यदि काल द्रव्यको धर्म और अधर्म द्रव्योंकी तरह एक अखण्ड लोकाकाश भरमें व्याप्त स्वीकार कर लेते हैं तो किसी भी वस्तुका कभी भी काल द्रव्यसे असंयोग नहीं रहेगा। ऐसी हालतमें प्रत्येक वस्तु सतत और सर्वत्र विद्यमान ही मानी जायगी, उसमें भूतता और भविष्यत्ताका व्यवहार करना असंगत हो जायगा। लेकिन जब काल द्रव्योंको अणु रूपसे अनेक मान लेते हैं तो जितने काल द्रव्योंसे जिस वस्तुका जब संयोग रहता है उन काल द्रव्योंकी अपेक्षा उस वस्तुमें तब वर्तमानताका व्यवहार होता है और जिनसे पहले संयोग रहा है किन्तु अब नहीं है उनकी अपेक्षा भूतताका तथा जिनसे आगे संयोग होने वाला है उनकी अपेक्षा भविष्यत्ताका व्यवहार भी उस वस्तुमै सामञ्जस हो जाता है । जैसे एक हो व्यक्तिमें एक ही साथ हम 'यहाँ है, पहले वहाँ था, और आगे वहाँ होगा' इस तरह वर्तमानता, भूतता और भविष्यत्ताका जो व्यवहार किया करते है उसका कारण यही है कि जहाँके काल द्रव्योंसे पहले उसका संयोग था उनसे अब नहीं है । अब दुसरे काल द्रव्योंसे उसका संयोग हो रहा है और आगे दूसरे काल द्रव्योंसे उसका संयोग होनेकी संभावना है। इस प्रकार जब दूसरे अणुरूप भी द्रव्य पाये जाते हैं और उनमें भी भूतता, वर्तमानता और भविष्यत्ताका व्यवहार होता है तो इनमें यह व्यवहार कालकी अणुरूप स्वीकार किये बिना संभव नहीं हो सकता है अत. काल द्रव्यको अणुरूप मानकर उसके लोकाकाशके प्रमाण असंख्यात भेद मानना हो युक्तिसंगत है । इस तरहसे अनन्त जीव, अनन्त पुद्गल, एक धर्म, एक अधर्म, एक आकाश और असंख्यात काल इन सब द्रव्योंके समुदायका नाम ही विश्व है क्योंकि इनके अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु विश्वमें शेष नहीं रह जाती १. आ आकाशादेकद्रव्याणि ।-तत्त्वा० ५।६। इस सूत्रमें धर्म, अधर्म और आकाशको एक-एक ही द्रव्य बतलाया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13