Book Title: Jain Darshan me Atmatattva
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

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Page 1
________________ जैन दर्शनमें आत्मतत्त्व १. जैन दर्शनके प्रकार प्रचलित दर्शनोंमेंसे किसी-किसी दर्शनको तो केवल भौतिक दर्शन और किसी-किसी दर्शनको केवल आध्यात्मिक दर्शन कहा जा सकता है । परन्तु जैन दर्शनके भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार स्वीकार किये गये हैं । विश्वको सम्पूर्ण वस्तुओंके अस्तित्व, स्वरूप, भेद-प्रभेद और विविध प्रकारसे होनेवाले उनके परिण मनका विवेचन करना 'भौतिक दर्शन' और आत्माके उत्थान, पतन तथा इनके कारणोंका विवेचन करना 'आध्यात्मिक दर्शन' है । साथ ही भौतिक दर्शनको 'द्रव्यानुयोग' और आध्यात्मिक दर्शनको 'करणानुयोग' भी कह सकते हैं । इस तरह भौतिकवाद, विज्ञान (साइन्स) और द्रव्यानुयोग ये सब भौतिक दर्शनके और अध्यात्मवाद तथा करणानुयोग ये दोनों आध्यात्मिक दर्शनके नाम हैं । २. जैन संस्कृतिमें विश्वकी मान्यता 'विश्व'" शब्दको कोष -ग्रन्थोंमें सर्वार्थवाची शब्द स्वीकार किया गया है, अतः विश्व शब्दके अर्थ में उन सब पदार्थोंका समावेश हो जाता है जिनका अस्तित्व संभव है । इस तरह विश्वको यद्यपि अनन्त े पदार्थोंका समुदाय कह सकते हैं । परन्तु जैन संस्कृति में इन सम्पूर्ण अनन्त पदार्थोंको निम्नलिखित छ: वर्गों में समाविष्ट कर दिया गया है— जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमेंसे जीवोंकी संख्या अनन्त है, पुद्गल भी अनन्त हैं, धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों एक-एक हैं तथा काल असंख्यात हैं। इन सबको जैन संस्कृति में अलग-अलग द्रव्य नामसे पुकारा गया है क्योंकि एक प्रदेशको आदि लेकर दो आदि संख्यात और अनन्त प्रदेशोंके रूपमें अलग-अलग इनके आकार पाये जाते हैं या बतलाये गये हैं । जिस द्रव्यका सिर्फ एक ही प्रदेश होता है उसे एकप्रदेशी और जिस द्रव्यके दो आदि संख्यात, असंख्यात या अनन्त प्रदेश होते हैं उसे बहुप्रदेशी' द्रव्य माना गया है। इस तरह प्रत्येक जीव तथा धर्म और १. अमरकोष - तृतीयकाण्ड - विशेष्यनिघ्नवर्ग, श्लोक - ६४, ६५ । २. 'अनन्त' शब्द जैन- संस्कृति में संख्याविशेषका नाम है । इसी तरह आगे आनेवाले संख्यात और असंख्यात शब्दों को भी संख्याविशेषवाची ही माना गया है। जैन संस्कृतिमें संख्यातके संख्यात, असंख्यातके असंख्यात और अनन्त अनन्त-भेद स्वीकार किये गये हैं । (इनका विस्तृत विवरण- तत्त्वार्थ राजवार्तिक-१-३८ । २. अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः, जीवाश्च और कालश्च । त० अ० ५ १ ४. यद्यपि विश्वके सम्पूर्ण पदार्थोंकी संख्या ही अनन्त है लेकिन अनन्त संख्या जीवोंकी संख्या भी अनन्त है और पुद्गलोंकी संख्या भी अनन्त है। इसमें कोई विरोध नहीं आता । ५. द्रव्याणि । तस्वार्थसूत्र ५१२ । ६. द्रव्यसंग्रह गा० २७ । ७. एकप्रदेशवदपि द्रव्यं स्यात् खण्डवर्जितः स यथा । - पंचाध्यायी, १ - ३६ । ८. पंचाध्यायी, १२५ । Jain Education International २३८ । अनन्त-भेद होने के कारण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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