Book Title: Jain Darshan me Atmatattva Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 8
________________ ३ / धम और सिद्धान्त २५ और वायु इन चारों ही तत्त्वोंमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चारों ही गुण विद्यमान रहते हैं । अतः रूप, रस, गन्ध और स्पर्शका शान करनेके लिये शरीर में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन पृथक्-पृथक् चारों तत्त्वोंके संयोगकी आवश्यकता नहीं रह जाती है । इतना अवश्य है कि शरीर भी घटादि पदार्थोंकी तरह रूप, रस, गन्ध और स्पर्श वाला एक पुद्गल पिण्ड है और जिस प्रकार घटादि पदार्थ निष्प्राण हैं उसी प्रकार यह शरीर भी अपने आपमें निष्प्राण ही है; फिर भी जब तक इस शरीर के अन्दर आत्मा विराजमान रहती है तब तक वह प्राणवान् कहा जाता है। दूसरी बात यह है कि उक्त प्राणरूप शक्ति जब पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन सबमें या इनमेंसे किसी एक में स्वतन्त्र रूपसे नहीं पायी जाती है तो इन सबके मिश्रणसे वह शरीरमें कैसे पैदा हो जायेगी ? यह बात समझके बाहरकी है। कारण कि स्वभावरूपसे अविद्यमान शक्तिका किसी भी वस्तुमें दूसरी वस्तुओं द्वारा उत्पाद किया जाना असम्भव है । इसका मतलब यह है कि जो वस्तु स्वभावसे निष्प्राण है उसे लाख प्रयत्न करनेपर भी प्राणवान् नहीं बनाया जा सकता है। अतः शरीरके भिन्न-भिन्न अंगोंको कोई कदाचित् अलग-अलग पृथ्वी आदि तत्वोंके रूपमें मान भी ले, तो भी उस शरीर में स्वभाव रूपसे असम्भव स्वरूप प्राणशक्तिका प्रादुर्भाव कैसे माना जा सकता है ? इसलिए विश्वके समस्त पदार्थोंमें चित् ( प्राणवान् ) और अचित् (निष्प्राण) इन दो परस्परविरोधी पदार्थोंका मूलतः भेद स्वीकार करना आवश्यक है । तीसरी बात यह है कि कोई-कोई प्राणवान् शरीर ऐसे होते हैं जिनमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्शका ज्ञान करनेकी योग्यता होनेपर भी शब्द श्रवणकी योग्यताका सर्वथा अभाव रहता है, कोई-कोई प्राणवान् शरीर ऐसे होते हैं जिनमें रस, गन्ध और स्पशंका ज्ञान करने की योग्यता होनेपर भी शब्द श्रवण और रूप-ग्रहणकी योग्यताका सर्वथा अभाव रहता है, कोई-कोई प्राणवान् शरीर ऐसे होते हैं जिनमें रस और स्पर्शका ज्ञान करने की योग्यता होनेपर भी शब्द, रूप और गन्धका ज्ञान करनेकी योग्यताका सर्वथा अभाव रहता है। इसी प्रकार कोई-कोई प्राणवान् शरीर ऐसे होते हैं जिनमें केवल स्पर्श-ग्रहणकी ही योग्यता पायी जाती है, शेष योग्यताओंका उनमें सर्वथा अभाव रहता है। ऐसी हालत में इन शरीरोंमें यथासम्भव पंचभूतोंके मिश्रणका अभाव मानना अनिवार्य होगा । अब यदि पंचभूतोंके मिश्रणसे शरीरमें चितृशक्तिका उत्पाद स्वीकार किया जाय तो उक्त शरीरोंमें चित्शक्तिका उत्पाद असम्भव हो जाएगा, लेकिन उनमें भी चित्शक्तिका सद्भाव तो पाया ही जाता है । चौथी बात यह है कि सम्पूर्ण शरीरमें एक ही चित्शक्तिका उत्पाद होता है या शरीरके भिन्न-भिन्न अंगोंमें अलग-अलग चितृशक्ति उत्पन्न होती है? यदि सम्पूर्ण शरीरमें एक ही चित्शक्तिका उत्पाद होता है तो नियत रूपसे स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा स्पर्शका ही रसना इन्द्रिय द्वारा रसका ही, नासिका द्वारा गन्धका ही, नेत्रों द्वारा रूपका ही ओर कणों द्वारा शब्दका ही ग्रहण नहीं होना चाहिये। यदि शरीरके भिन्न-भिन्न अंगों में पृथक्-पृथक् चित्शक्ति उत्पन्न होती है तो हमें स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण द्वारा एक ही साथ स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्दका ग्रहण होते रहना चाहिये। लेकिन यह अनुभव सिद्ध बात है कि जिस काल में हमें किसी एक इन्द्रियसे ज्ञान हो रहा हो, उस कालमें दूसरी सब इन्द्रियोंसे ज्ञान नहीं होता है । यदि कहा जाय कि चित्शक्तिका धारक स्वतन्त्र आत्माका अस्तित्व शरीरमें माननेसे निवत अंगों १. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक ९६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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