Book Title: Jain Darshan me Ajiv Tattva Author(s): Pushkar Muni Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 2
________________ श्रीआनन्द अन्नाआना आ wririyarwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwNYOOVir oin २४० धर्म और दर्शन किया जितना जैन दर्शन ने किया है। अजीव द्रव्य, प्रकृति, पुद्गल, जड़, असत्, अचेतन, मैटर नाम से जाना-पहचाना जाता है। अस्तिकाय षद्रव्यों में से जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश इन पाँच को अस्तिकाय कहते हैं । कालद्रव्य अस्तिकाय नहीं है । अस्ति-काय यह एक यौगिक शब्द है। अस्ति का अर्थ प्रदेश है और काय का अर्थ समुह है। जो अनेक प्रदेशों का समूह है वह अस्तिकाय है। दूसरी परिभाषा इस प्रकार है 'अस्ति, अर्थात् जिसका अस्तित्व है और काय के समान जिसके प्रदेश हैं और जिसके प्रदेश बहुत हैं वह अस्तिकाय है।' जीव, धर्म अधर्म, असंख्यात प्रदेशी हैं । आकाश के प्रदेश अनन्त हैं। काल द्रव्य का अस्तित्व तो है पर बहुप्रदेशी न होने से उसे अस्तिकाय में नहीं लिया है। एक अविभागी पुद्गल परमाणु जितने आकाश को स्पर्श करता है उतने को प्रदेश कहते हैं । पुद्गल द्रव्य न्याय-वैशेषिक जिसे भौतिक तत्व कहते हैं, विज्ञान जिसे मेटर कहता है, उसे ही जैनदर्शन ने पुद्गल कहा है। बौद्ध साहित्य में 'पुद्गल' शब्द 'आलयविज्ञान', 'चेतनासंतति,' के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। भगवती में अभेदोपचार से पुद्गलयुक्त आत्मा को पुद्गल कहा है ।१० पर मुख्य रूप से जैन साहित्य में पुद्गल का अर्थ 'मूर्तिक द्रव्य' है, जो अजीव है। अजीव द्रव्यों में पुद्गल द्रव्य विलक्षण है। वह रूपी, मूर्त है उसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण पाये जाते हैं। पुद्गल के सूक्ष्म से सूक्ष्म परमाणु से लेकर बड़े से बड़े पृथ्वी स्कंध तक में मूर्त गुण पाये जाते हैं।" इन चारों गुणों में से किसी में एक, किसी में दो और किसी में तीन गुण हों ऐसा नहीं हो सकता। चारों ही गुण एक साथ रहते हैं। यह सत्य है कि किसी में एक गुण की प्रमुखता होती है जिससे वह इन्द्रियगोचर हो जाता है और दूसरे गुण गौण होते हैं जो इन्द्रियगोचर नहीं हो पाते हैं। इन्द्रिय अगोचर होने से हम किसी गुण का अभाव नहीं मान सकते । आज का वैज्ञानिक 'हायड्रोजन और नायट्रोजन को वर्ण, गंध और रसहीन मानते हैं, यह कथन गौणता को लेकर है। दूसरी दृष्टि से इन गुणों को सिद्ध कर सकते हैं। जैसे 'आमोनिया' में एकांश हायड्रोजन और तीन अंश नायट्रोजन रहता है। आमोनिया में गंध और रस ये दो गुण हैं। इन दोनों गुणों की नवीन उत्पत्ति नहीं मानते चूंकि यह सिद्ध है कि असत् की कभी भी उत्पत्ति नहीं हो सकती और सत् का कभी नाश नहीं हो सकता, इसलिए जो गुण अणु में होता है वही स्कंध में आता है। हायड्रोजन और नायट्रोजन ७ (क) स्थानांग ४।१११२५ (ख) तत्वार्थसूत्र ५॥१ (ग) द्रव्यसंग्रह २३ ८ भगवती पृ० २३८ है (क) द्रव्यसंग्रह २४ (ख) प्रवचनसारोद्धार २१४४ १० भगवती ८।१०।३६१ ११ (क) प्रवचनसारोद्धार २।४० (ख) तत्त्वार्थसूत्र अ. ५ (ग) सर्वार्थसिद्धि अ. ५, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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