Book Title: Jain Darshan me Ajiv Tattva
Author(s): Pushkar Muni
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 श्री पुष्कर मुनिजी जैन आगम एवं दर्शनशास्त्र के गम्भीर विद्वान, ओजस्वी प्रवक्ता, शिक्षा एवं समाज सुधार में विशेष रुचि; श्रमणसंघ के वरिष्ठ मुनि ।] - IN जिमा जैनदर्शन में अजीव तत्त्व जैनदर्शन में षद्रव्य, साततत्त्व और नौ पदार्थ माने गए हैं। (१) जीव, (२) अजीव, (धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल) (३) आश्रव, (४) संवर (५) निर्जरा, (६) बंध और (७) मोक्ष ये सात तत्व माने हैं। इन सात तत्वों में पुण्य और पाप मिलाने से नौ पदार्थ हो जाते है। नौ पदार्थ को संक्षेप में दो भागों में विभक्त कर सकते हैं जीव और अजीव । जीव का प्रतिपक्षी अजीव है।' जीव चेतनायुक्त है, वह ज्ञान, दर्शन आदि उपयोग लक्षणवाला है तो अजीव अचेतन है। शरीर में जो ज्ञानवान पदार्थ है, जो सभी को जानता है, देखता है और उपयोग करता है, वह जीव है ।२ जिसमें चेतना गुण का पूर्ण रूप से अभाव हो, जिसे सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती है, वह अजीव द्रव्य है। अजीव द्रव्य के दो भेद है--रूपी और अरूपी।४ पुद्गल रूपी है, शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार अरूपी हैं। आगम साहित्य में रूपी के लिए मूर्त और अरूपी के लिए अमूर्त शब्द का प्रयोग हुआ है । पुद्गल द्रव्य मूर्त है और शेष चार अमुर्त है । आकाश द्रव्य में पाँचों अजीव द्रव्य और एक जीव द्रव्य ये छहों एक ही क्षेत्र को अवगाह कर परस्पर एक दूसरे से मिले हुए रहते हैं किन्तु छहों द्रव्यों का अपना-अपना अस्तित्व है। सभी द्रव्य अपने आप में अवस्थित हैं। तीन काल में जीव कभी अजीव नहीं होता और अजीब जीव नहीं होता। ‘पद्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करते हैं, परस्पर अवकाश देते हैं, मदा काल मिलते रहते हैं तथापि अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते ।६ अजीव द्रव्य का विवेचन अन्य दार्शनिकों ने उतना नहीं IAAD गया १ स्थानांग २।१।५७ २ पंचास्तिकाय २११२२ ३ पंचास्तिकाय २११२४-१२५ ४ (क) उत्तराध्ययन ३६।४ । (ख) समवायांग १४६ ५ (क) उत्तराध्ययन ३६।६ (ख) भगवती १८७- ७।१० ६ पञ्चास्तिकाय १७ आपाप्रवभिआचार्यप्रवभिनय श्रीआनन्दा श्रीआनन्दप्रसन्थ viyinhindi orcraf Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआनन्द अन्नाआना आ wririyarwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwNYOOVir oin २४० धर्म और दर्शन किया जितना जैन दर्शन ने किया है। अजीव द्रव्य, प्रकृति, पुद्गल, जड़, असत्, अचेतन, मैटर नाम से जाना-पहचाना जाता है। अस्तिकाय षद्रव्यों में से जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश इन पाँच को अस्तिकाय कहते हैं । कालद्रव्य अस्तिकाय नहीं है । अस्ति-काय यह एक यौगिक शब्द है। अस्ति का अर्थ प्रदेश है और काय का अर्थ समुह है। जो अनेक प्रदेशों का समूह है वह अस्तिकाय है। दूसरी परिभाषा इस प्रकार है 'अस्ति, अर्थात् जिसका अस्तित्व है और काय के समान जिसके प्रदेश हैं और जिसके प्रदेश बहुत हैं वह अस्तिकाय है।' जीव, धर्म अधर्म, असंख्यात प्रदेशी हैं । आकाश के प्रदेश अनन्त हैं। काल द्रव्य का अस्तित्व तो है पर बहुप्रदेशी न होने से उसे अस्तिकाय में नहीं लिया है। एक अविभागी पुद्गल परमाणु जितने आकाश को स्पर्श करता है उतने को प्रदेश कहते हैं । पुद्गल द्रव्य न्याय-वैशेषिक जिसे भौतिक तत्व कहते हैं, विज्ञान जिसे मेटर कहता है, उसे ही जैनदर्शन ने पुद्गल कहा है। बौद्ध साहित्य में 'पुद्गल' शब्द 'आलयविज्ञान', 'चेतनासंतति,' के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। भगवती में अभेदोपचार से पुद्गलयुक्त आत्मा को पुद्गल कहा है ।१० पर मुख्य रूप से जैन साहित्य में पुद्गल का अर्थ 'मूर्तिक द्रव्य' है, जो अजीव है। अजीव द्रव्यों में पुद्गल द्रव्य विलक्षण है। वह रूपी, मूर्त है उसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण पाये जाते हैं। पुद्गल के सूक्ष्म से सूक्ष्म परमाणु से लेकर बड़े से बड़े पृथ्वी स्कंध तक में मूर्त गुण पाये जाते हैं।" इन चारों गुणों में से किसी में एक, किसी में दो और किसी में तीन गुण हों ऐसा नहीं हो सकता। चारों ही गुण एक साथ रहते हैं। यह सत्य है कि किसी में एक गुण की प्रमुखता होती है जिससे वह इन्द्रियगोचर हो जाता है और दूसरे गुण गौण होते हैं जो इन्द्रियगोचर नहीं हो पाते हैं। इन्द्रिय अगोचर होने से हम किसी गुण का अभाव नहीं मान सकते । आज का वैज्ञानिक 'हायड्रोजन और नायट्रोजन को वर्ण, गंध और रसहीन मानते हैं, यह कथन गौणता को लेकर है। दूसरी दृष्टि से इन गुणों को सिद्ध कर सकते हैं। जैसे 'आमोनिया' में एकांश हायड्रोजन और तीन अंश नायट्रोजन रहता है। आमोनिया में गंध और रस ये दो गुण हैं। इन दोनों गुणों की नवीन उत्पत्ति नहीं मानते चूंकि यह सिद्ध है कि असत् की कभी भी उत्पत्ति नहीं हो सकती और सत् का कभी नाश नहीं हो सकता, इसलिए जो गुण अणु में होता है वही स्कंध में आता है। हायड्रोजन और नायट्रोजन ७ (क) स्थानांग ४।१११२५ (ख) तत्वार्थसूत्र ५॥१ (ग) द्रव्यसंग्रह २३ ८ भगवती पृ० २३८ है (क) द्रव्यसंग्रह २४ (ख) प्रवचनसारोद्धार २१४४ १० भगवती ८।१०।३६१ ११ (क) प्रवचनसारोद्धार २।४० (ख) तत्त्वार्थसूत्र अ. ५ (ग) सर्वार्थसिद्धि अ. ५, Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में अजीव तत्त्व २४१ गुण हैं वे गुण । 1 के अंश से आमोनिया निर्मित हुआ है, इसलिए रस और गंध जो आमोनिया के उस अंश में अवश्य ही होने चाहिए। जो प्रच्छन्न गुण थे वे उसमें प्रकट हुए हैं पुद्गल में चारों गुण रहते हैं चाहे वे प्रकट हों या अप्रकट हों । पुद्गल तीनों कालों में रहता है, इसलिए सत् उत्पाद, व्यय, धौव्य युक्त है। जो अपने सत् स्वभाव का परित्याग नहीं करता, उत्पाद, व्यय, star से युक्त है और गुण पर्याय सहित है वह द्रव्य है ।१२ व्यय के बिना उत्पाद नहीं होता, उत्पाद के बिना व्यय नहीं होता । उत्पाद और व्यय के बिना ध्रौव्य हो नहीं सकता । द्रव्य का एक पर्याय उत्पन्न होता है, दूसरा नष्ट होता है पर द्रव्य न उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है किन्तु सदा धौव्य रहता है । आज का विज्ञान भी मानता है कि किसी भौतिक पदार्थ के परिवर्तन में जड़ पदार्थ कभी भी नष्ट नहीं होता और न उत्पन्न होता है । केवल उसका रूप बदलता है। मोमबत्ती के उदाहरण से इस बात को स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं । सभी पुद्गल परमाणुओं से निर्मित हैं । यह परमाणु सूक्ष्म और अविभाज्य हैं । तत्त्वार्थराजवार्तिक में परमाणु का लक्षण और उसके विशिष्ट गुण इस प्रकार बताए हैं--' 3 (१) सभी पुद्गल स्कंध परमाणुओं से निर्मित हैं और परमाणु पुद्गल के सूक्ष्मतम अश हैं । (२) परमाणु नित्य, अविनाशी, सूक्ष्म है । (३) परमाणुओं में रस, गंध, वर्ण और दो स्पर्श -- स्निग्ध या रूक्ष, शीत या उष्ण होते हैं । (४) परमाणु का अनुमान उससे निर्मित स्कन्ध से लगा सकते हैं । जैन दृष्टि से कितने ही पुद्गल स्कंध संख्यात प्रदेशों के कितने ही असंख्यात प्रदेशों के और कितने ही अनंत प्रदेशों के होते हैं । सब से बड़ा स्कंध अनन्त प्रदेशी होता है और सब से लघु स्कन्ध द्विप्रदेशी होता है । अनन्त प्रदेशी स्कंध एक प्रदेश में भी समा सकता है, वही स्कंध सम्पूर्ण लोक में भी व्याप्त हो सकता है। पुद्गल परमाणु लोक में सभी जगह है । १४ पुद्गल परमाणु की गति का वर्णन करते हुए कहा है कि वह एक समय में लोक के पूर्व अन्त से पश्चिम अन्त, पश्चिम अन्त से पूर्व अन्त, दक्षिण अन्त से उत्तर अन्त और उत्तर अन्त से दक्षिण अन्त में जा सकता है ।" पुद्गल स्कंधों की स्थिति न्यून से न्यून एक समय और अधिक से अधिक असंख्यात काल तक है ।१६ स्कन्ध और परमाणु संतति की दृष्टि से अनादि-अनन्त हैं और स्थिति की दृष्टि से सादि- सान्त हैं । १७ पुद्गल के दो भेद हैं- अणु और स्कन्ध 195 स्कन्ध के (१) स्थूल स्थूल, (२) स्थूल ( ३ ) सूक्ष्म - स्थूल, (४) स्थूल सूक्ष्म, (५) सूक्ष्म (६) सूक्ष्म सूक्ष्म, ये छह भेद हैं । १२ प्रवचन सारोद्धार २।१।११ १३ तत्त्वार्थ राजवार्तिक अ. ५, सूत्र २५ १४ उत्तराध्ययन ३६।११ १५ भगवती० १८/११ १६ भगवती० ५।७ १७ १८ उत्तराध्ययन ३६।१३ अणवः स्कन्धाश्च روال ७ Vo - तत्त्वार्थसूत्र अ. ५ आचार्य प्रवरुप अभिनंदन आआनन्दत्र ग्रन्थ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दत्र ग्रन्थ २४२ धर्म और दर्शन CHAPORID च अणुओं के संघात को स्कन्ध कहते हैं । स्कंध के जो छह भेद बताए हैं उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है श्री आनन्द अन्थ (१) स्थूल - स्थूल - ठोस पदार्थों को इस वर्ग में रखा गया है। जैसे लकड़ी, पत्थर, धातुएं आदि । स्थूल - इसमें द्रवणशील पदार्थ आते हैं । जैसे जल, केरोसिन, दूध आदि । (३) सूक्ष्म - स्थूल - इसमें वायु आती है । (४) स्थूल सूक्ष्म -- इसमें प्रकाश, ऊर्जा शक्ति का समावेश किया है। जैसे प्रकाश, छाया, तम । (५) सूक्ष्म - हमारे विचारों और भावों का प्रभाव इन पर पड़ता है । इनका प्रभाव अन्य पुद्गलों तथा हमारी आत्मा पर पड़ता है । जैसे कर्म वर्गणा । (६) सूक्ष्म सूक्ष्म - अतिसूक्ष्म अणु का समावेश होता है। विद्युतणु, विद्युत्कण आदि । जैन दार्शनिकों ने प्रकृति और ऊर्जा को पुद्गल पर्याय माना है। विज्ञान भी यही मानता है । छाया, तम, शब्द आदि पुद्गल के पर्याय हैं । १६ अन्धकार और प्रकाश का लक्षण अभावात्मक न मानकर दृष्टि- प्रतिबंधकारक व विरोधी माना है । २० आधुनिक विज्ञान भी प्रकाश के अभाव रूप को अन्धकार नहीं मानता । अन्धकार पुद्गल की पर्याय है । प्रकाश पुद्गल से पृथक उसका अस्तित्व है । छाया पुद्गल की ही एक पर्याय है। प्रकाश का निमित्त पाकर छाया होती है । प्रकाश को आप और उद्योत के रूप में दो भागों में विभक्त किया है । सूर्य का चमचमाता उष्ण प्रकाश 'आप' है और चन्द्रमा, जुगुनू आदि का शीत प्रकाश 'उद्योत' है । शब्द भी पौद्गलिक है । इस विराट् विश्व में जितने भी पुद्गल हैं वे सभी स्निग्ध और रूक्ष गुणों से युक्त परमाओं के बंध से पैदा होते हैं। सभी पुद्गल का रचनातत्त्व एक ही प्रकार का होता है । रचना तत्व की दृष्टि से सभी पुद्गल एक ही प्रकार के हैं । २१ पुद्गलद्रव्य, स्कन्ध में अणु चालित क्रियाशील होते हैं । २२ इस क्रिया का प्ररूपण दो विभागों में विभक्त किया जा सकता है (१) विस्रसा क्रिया और (२) प्रायोगिक क्रिया । विस्रसा क्रिया प्राकृतिक होती है और प्रयोगनिमित्ता क्रिया बाह्य निमित्त से पैदा होती है । परमाणु और स्कंध के बंध तीन प्रक्रियाओं से उत्पन्न होते हैं (१) भेद, (२) संघात, (३) भेद-संघात । भेद का अर्थ है स्कंध में से कुछ परमाणु विघटित हों और दूसरे में मिल जायें । संघात का अर्थ है एक स्कन्ध के कुछ अणु दूसरे स्कन्ध के कुछ अणुओं के साथ संघटित हो । भेदसंघात का अर्थ है भेद और संघात प्रक्रिया का एक साथ होना । एक स्कन्ध के कुछ अणु दूसरे से मिलकर दोनों स्कंधों से समान रूप से सम्बद्ध रहें । संघात में संघटित होकर समान रूप से दोनों स्कंधों से सम्बद्ध रहने वाले अणु किसी भी स्कन्ध से विच्छिन्न नहीं होते । भेद-संघात में विघटित होकर संघटित रूप से रहते हैं । १६ सद्दो बंधो 'दब्वस्स पज्जाया । — द्रव्य संग्रह २० तमो दृष्टिः प्रतिबंधकारणं प्रकाश विरोधी । —सर्वार्थसिद्धि २१ ( क ) तत्त्वार्थ सूत्र ५।२६-३३ (ख) सर्वार्थ सिद्धि अ. ५, सूत्र २४ २२ गोम्मटसार गा० २६२ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में अजीव तत्त्व २४३ भेद का एक और अन्य प्रकार है। वह है पुद्गल गलन की प्रक्रिया। बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से स्कन्ध का गलन या विदारण होना भेद है । पुद्गल वह है जिसमें पूरण और गलन ये दोनों संभव हों। इसलिए एक स्कन्ध दूसरे स्निग्ध-रूक्ष गुण युक्त स्कन्ध से मिलता है वह पूरण है । एक स्कन्ध से कुछ स्निग्ध, रूक्ष गुणों से युक्त परमाणु विच्छिन्न होते हैं वह गलन है। पुद्गल अनन्त हैं और आकाश प्रदेश असंख्यात है। असंख्यात प्रदेशों में अनन्त प्रदेशों को किस प्रकार स्थान मिल सकता है ? इसका समाधान पूज्यपाद ने इस प्रकार किया है कि सूक्ष्म परिणमन और अवगाहन शक्ति के योग से परमाणु और स्कन्ध सूक्ष्म रूप में परिणत हो जाते हैं । सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र ने लिखा 'पुद्गल एक अविभाग परिच्छेद परमाणु आकाश के एक प्रदेश को घेरता है। उसी प्रदेश में अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु भी स्थित हो सकते है ।२3 परमाणु के विभाग नहीं होते पर उसमें सूक्ष्म परिणमन और अवगाहन शक्ति है। इन्हीं शक्तियों से असंभव भी संभव हो जाता है। पुद्गल परमाणु बहुत ही सूक्ष्म है, उसकी अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग है। वह तलवार के नोक पार आ सकता है, पर तलवार की तीक्ष्ण धार उसे छेद नहीं सकती, यदि छेद दे तो वह परमाणु ही नहीं है।२४ परमाणु के हिस्से नहीं होते । परमाणु परस्पर जुड़ सकते हैं और पृथक् हो सकते हैं किन्तु उसका अन्तिम अंश अखण्ड है ।२५ वह शाश्वत, परिणामी, नित्य, सावकाश, स्कन्धकर्ता, भेत्ता भी है ।२६ परमाणु कारण रूप है, कार्य रूप नहीं, वह अन्तिम द्रव्य है।२७ तत्व-संख्या में परमाणु की पृथक् परिगणना नहीं की गई है। वह पुद्गल का एक विभाग है। पुद्गल के परमाणु पुद्गल और नो परमाणु-पुद्गल, द्वयणुक आदि स्कन्ध, ये दो प्रकार हैं। जैन दार्शनिकों ने जो पुद्गल की सूक्ष्म विवेचना और विश्लेषणा की है वह अपूर्व है। कितने ही पाश्चात्य विचारकों का यह अभिमत है कि भारत में परमाणुवाद यूनान से आया है, पर यह कथन सत्य तथ्य से परे हैं। यूनान में परमाणुवाद का जन्मदाता डियोक्रिट्स (ईस्वी पूर्व ४६०-४७०) था किन्तु उसके परमाणुवाद से जैनदर्शन का परमाणुवाद बहुत ही पृथक् है। मौलिकता की दृष्टि से वह सर्वथा भिन्न है। जैन दृष्टि से परमाणु चेतन का प्रतिपक्षी है, जब कि डेयोक्रिट्स के अभिमतानुसार आत्मा सूक्ष्म परमाणुओं का ही विकार है।। कितने ही भारतीय विचारक परमाणुवाद को कणाद ऋषि की उपज मानते हैं किन्तु गहराई से व तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करने पर सहज ज्ञात होता है कि वैशेषिक दर्शन का परमाणुवाद जैन-परमाणुवाद से पहले का नहीं है । जैन दार्शनिकों ने परमाणु के विभिन्न पहलुओं पर जैसा वैज्ञानिक प्रकाश डाला है वैसा वैशेषिकों ने नहीं । दर्शनशास्त्र के इतिहास में स्पष्ट रूप से लिखा TOOAA कम २३ जावदियं आयास... -द्रव्यसंग्रह २४ भगवती० ५७ २५ भगवती० १११० २६ पंचास्तिकाय ११७७, ७८, ८०, ८१ २७ कारणमेव तदन्त्यसूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणु । JawAAAAAAAAAAAAAADAASARAMAnandanAMANABAJRAAJAAAAAAVARANAMASJABRDadam आप्रवर अभिनन्दन यादव श्रीआनन्दथश्राआनन्दप्रसन्थः जाम Marwmaraw marwrime Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान अभिनन्दन है कि परमाणुवाद के सिद्धान्त को जन्म देने का श्रेय जैनदर्शन को ही मिलना चाहिए । २६ उपनिषद् साहित्य में अणु शब्द का प्रयोग हुआ है किन्तु परमाणुवाद का कहीं भी नाम नहीं है । वैशेषिकों का परमाणुवाद संभव है उतना पुराना नहीं है । जैन साहित्य में परमाणु के स्वरूप और कार्य का सूक्ष्मतम विवेचन किया है, वह आज के शोधकर्ता विद्यार्थी के लिए अतीव उपयोगी है । परमाणु का जैसा हमने पूर्व लक्षण बताया कि वह अछेद्य है, अभेद्य है, अग्राह्य है, किन्तु आज के वैज्ञानिक विद्यार्थी को परमाणु के उपलक्षणों में सहज सन्देह हो सकता है, क्योंकि विज्ञान के श्री आनन्द अन्थ धर्म और दर्शन مانی २४४ सूक्ष्म यंत्रों में परमाणु की अविभाज्यता सुरक्षित नहीं है । परमाणु यदि अविभाज्य न हो तो उसे परम अणु नहीं कह सकते । विज्ञान सम्मत परमाणु टूटता है, इससे हम इन्कार नहीं होते । जैन आगम अनुयोगद्वार में परमाणु के दो प्रकार बताए हैं—२० १. सूक्ष्म परमाणु २. व्यावहारिक परमाणु सूक्ष्म परमाणु का स्वरूप वही है जो हमने पूर्व बताया है किन्तु व्यावहारिक परमाणु अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं के समुदाय से बनता है । ३० वस्तुवृत्या वह स्वयं परमाणु - पिंड है तथापि साधारण दृष्टि से ग्राह्य नहीं होता और साधारण अस्त्र-शस्त्र से तोड़ा नहीं जा सकता । उसकी परिणति सूक्ष्म होती है एतदर्थ ही उसे व्यवहाररूप से परमाणु कहा है। विज्ञान के परमाणु की तुलना इस व्यावहारिक परमाणु से होती है । इसलिए परमाणु के टूटने की बात एक सीमा तक जैनदृष्टि को भी स्वीकार है । पुद्गल के बीस गुण हैं स्पर्श - शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध, लघु, गुरु, मृदु, और कर्कश । रस-- आम्ल, मधुर, कटु, कषाय और तिक्त । गन्ध - सुगन्ध और दुर्गन्ध । वर्ण – कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत । यद्यपि संस्थान, परिमंडल, वृत्त, त्र्यंश, चतुरंश आदि पुद्गल में ही होता है तथापि वह उसका गुण नहीं है । ३१ सूक्ष्म परमाणु द्रव्य-रूप में निरवयव और अविभाज्य होते हुए भी पर्यायदृष्टि से उस प्रकार नहीं है । उसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये चार गुण और अनन्त पर्याय होते हैं । ३२ एक परमाणु में एक वर्ण, एक गंध, एक रस और दो स्पर्श (शीत, उष्ण, स्निग्ध-रूक्ष, इन युगलों में से एक-एक ) होते हैं । पर्याय की दृष्टि से एक गुण वाला परमाणु अनन्त गुण वाला हो जाता है। और अनन्त गुण वाला परमाणु एक गुण वाला है । एक परमाणु में वर्ण से वर्णान्तर, गन्ध से गन्धान्तर, रस से रसान्तर और स्पर्श से स्पर्शान्तर होना जैन- दृष्टि-सम्मत है । ३२ २८ दर्शनशास्त्र का इतिहास पृ० १२६ २६ परमाणु दुविहे पन्नते, तं जहा सुहमेय, ववहारियेय । ३० ताणं सुमपरमाणु पोग्गलाणं समुदयसमिति समागयेणं निफ्फज्जति । ३१ भगवती० २५ ३ ३२ चउविहे पोग्गल परिणामे पनते, तं जहा -- वण्णपरिणामे, गंधपरिणामे, रसपरिणामे, फास परिणामे । - स्थानांग ४।१३५ -- अनुयोगद्वार ( प्रमाणद्वार ) ववहारिए परमाणु पोग्गले - अनुयोगद्वार ( प्रमाणद्वार ) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में अजीव तत्त्व २४५ Cale... N धर्म-अधर्म जैन साहित्य में धर्म और अधर्म शब्द का प्रयोग शुभाशुभ प्रवृत्ति के अर्थ में भी होता है और पृथक् अर्थ में भी । यहाँ पर दूसरा अर्थ विवक्षित है। धर्म द्रव्य गतितत्व और अधर्म द्रव्य स्थितितत्त्व के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। भारत के अन्य दार्शनिकों ने इस पर चिन्तन नहीं किया है। विज्ञान में न्यूटन ने गतितत्त्व (Medium of Motion) को माना है। अलवर्ट आईस्टीन ने गतितत्त्व को मानते हुए कहा-'लोक परिमित है, लोक के परे अलोक अपरिमित है, लोक का परिमित होने का कारण गतितत्त्व यहाँ पर है और वह द्रव्य शक्ति है, लोक के बाहर नहीं जा सकती।' लोक के बाहर उस शक्ति का अभाव है जो गति में सहायक है। ईथर (Ether) को भी गतितत्त्व माना है। जैनदर्शन में धर्म और अधर्म शब्द पारिभाषिक रहा है। धर्म और अधर्म द्रव्य दोनों द्रव्य से एक हैं और व्यापक हैं । 3 3 क्षेत्र से लोक प्रमाण है।३४ काल से अनादि-अनन्त हैं । भाव से अमूर्त हैं। गुण से धर्म गति-सहायक है और अधर्म स्थितिसहायक है। धर्म और अधर्म ये दोनों द्रव्य तीनों कालों में अपने गुण और पर्यायों से विद्यमान रहते हैं, एक क्षेत्रावगाही होते हुए भी उनकी पृथक् उपलब्धि है। दोनों का स्वभाव और कार्य भिन्न है, सत्ता में विद्यमान हैं, लोक व्यापक हैं। धर्म-अधर्म तो अनादि काल से अपने स्वभाव से लोक में विस्तृत है । ५ जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य परद्रव्य की निमित्तभूत सहायता से क्रियावंत होते हैं। शेष चार द्रव्य क्रियावंत नहीं है।३६ धर्म, अधर्म द्रव्य निष्क्रिय हैं, धर्म और अधर्म द्रव्य जीव, पुद्गल के लिए सिर्फ सहायक बनते हैं। ३७ हलन-चलन या स्थितिकरण क्रिया इन दो द्रव्य के अभाव में नहीं हो सकती। ये गति और स्थिति के उदासीन कारण हैं। ये स्वयं क्रियाशील नहीं हैं । तैरने में जल मछलियों के लिए माध्यम है वैसे ही गति में धर्म द्रव्य सहायक है। अधर्म द्रव्य भी वृक्ष की छाया की भांति पथिक को विश्राम में सहायक हैं। गतितत्त्व के लिए 'रेल की पटरी का उदाहरण दे सकते हैं। रेल की पटरी गाड़ी चलाने में सहायक है । वह गाड़ी को यह नहीं कहती कि तू चल, वैसे ही धर्म द्रव्य है । जहाँ तक पटरी है वहाँ तक ही रेलगाड़ी जा सकती है, आगे नहीं । लोक में धर्म के आधार से हम गमन कर सकते हैं, लोक से बाहर नहीं। आकाश आकाश लोक और अलोक दोनों में है।३८ अन्य द्रव्यों के समान आकाश भी तीनों काल में अपने गुण और पर्यायों सहित विद्यमान है। उसका स्वभाव है जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल को अवकाश देना ।३६ पाँच द्रव्य लोकाकाश में ही रहते हैं। आकाश के प्रदेश में वे VAA या ३३ स्थानांग०१ ३४ (क) भगवती० २।१० (ख) उत्तराध्ययन ३६७ ३५ पंचास्तिकाय-जयसेनाचार्य की टीका ३६ पंचास्तिकाय-जयसेनाचार्य की टीका १६८ ३७ पंचास्तिकाय-बालावबोध टीका ३८ (क) स्थानांग ५।३।४४२ (ख) उत्तराध्ययन ३६।८ ३६ (क)उत्तराध्ययन २८६ (ख) पंचास्तिकाय ११६० mamatarMADAAIIANORKadwasnasasarawaiswasnasRIMARRARAMJAAAAAAMANASAILIMJAILASAKARMADAamannaos प्रवरब अभियान आभन्न प्राआनन्दायथागाAMMAR Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवर अभिआचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्दकग्रन्थ श्रीआनन्द २४६ धर्म और दर्शन मिलजुल कर रह सकते हैं । पाँच द्रव्य लोकाकाश में ही रहते हैं। बिना आकाश के वे नहीं रह सकते । आकाश में अनन्त पुद्गलों को स्थान देने की शक्ति है। महासागर में जैसे नमक रहता है वैसे ही अन्य द्रव्य आकाश में रहते हैं । अकाश के दो भेद हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश। अलोकाकाश में आकाश द्रव्य के अतिरिक्त कोई भी द्रव्य नहीं है। धर्म और अधर्म द्रव्य का कार्य आकाश नहीं करता किन्तु वह केवल अवकाश देता है। लोक और अलोक जैन साहित्य में इसकी अनेक परिभाषाएँ मिलती हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय लोक है।४० पंचास्तिकायमय लोक है।४१ जीवाजीव लोक है।४२ षद्रव्यात्मक लोक है।४३ अपनीअपनी दृष्टि से ये परिभाषाएँ हैं । लोक इन्द्रिय गोचर है और अलोक इन्द्रियातीत है । अलोकाकाश में गति और स्थिति नहीं है। आकाश द्रव्य अपने ही आधार से अपने ही अवकाश में है। कालद्रव्य द्रव्यों की वर्तना, परिणाम-क्रिया या नवीनत्त्व काल के कारण ही संभव है । ४४ काल तो दिखलाई नहीं देता, इसलिए उसका अनुमान आकाश की तरह सिद्ध होता है। कितने ही आचार्य काल को स्वतंत्र द्रव्य न मानकर जीवाजीव की पर्याय मानते हैं । उपचार से उसे द्रव्य कहते हैं ।४५ भगवती में काल को स्वतत्र द्रव्य माना है।४६ कुन्दकुन्द लिखते हैं 'काल-द्रव्य परिवर्तन-लिंग से संयुक्त है।४७ कालाण संख्या में लोकाकाश के प्रदेशों की तरह असंख्यात है।४८ श्वेताम्बर परम्परा में काल द्रव्य को अनन्त माना है।४६ रहट-घटिका के समान वह निरन्तर घूमता रहता है । इसलिए अनादि अनन्त है। काल-द्रव्य अस्तिकाय नहीं, अखण्ड है। समस्त विश्व में एक काल युगपत् है। निश्चय और व्यवहार के रूप में उसके दो भेद हैं । व्यवहार काल को 'समय' कहते हैं, वर्तना निश्चय काल से होती है। सामान्य परिवर्तन व्यावहारिक काल से है। समय का प्रारम्भ और अन्त दोनों होते हैं। निश्चयकाल नित्य है, निराकार है। दिन, मास, ऋतु, वर्ष आदि काल के व्यावहारिक भेद हैं ।५० निश्चय काल का कोई भी भेद नहीं है। ४० भगवती० २०१० ४१ भगवती० १३।४ (क) उत्तराध्ययन ३६ (ख) स्थानांग० २।४ ४३ उत्तराध्ययन० २८ ४४ तत्त्वार्थसूत्र ५।२२ ४५ नव तत्त्व० प्र० -देवेन्द्रसूरि ४६ भगवती० २५॥४, २५।२ ४७ पंचास्तिकाय १।६।२२, २४ ४८ द्रव्यसंग्रह २२ ४६ सप्ततत्त्वप्रकरण -देवेन्द्रसुरि (क) द्रव्यसंग्रह २१ (ख) पंचास्तिकाय १११००,१०१ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में अजीव तत्त्व 247 कालाणु की उत्पत्ति, स्थिति, और विनाश की दृष्टि से उस को शाश्वत और अशाश्वत कहा है। काल का सूक्ष्म अंश समय है। दो समय साथ नहीं रहते / काल के स्कन्ध आदि भेद-प्रभेद नहीं होते।५१ एक-एक कालाणु लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में रत्नराशि के समान स्थित है।५२ इस प्रकार जैन दर्शन में अजीव तत्त्व का अत्यन्त विस्तार से निरूपण है। किन्तु अभिनन्दन ग्रन्थ की पृष्ठ संख्या की मर्यादा को लक्ष्य में रखकर अत्यन्त संक्षेप में लिखने का प्रयास किया है। 51 सप्ततत्त्व प्रकरण-हेमचन्द्रसूरि 48 52 द्रव्यसंग्रह 22 आनन्द-वचनामृत 0 गुलाब जैसे कोमल और सुन्दर फूल पर तीखे कांटे-देखकर आश्चर्य होता है। पर यह कुदरत का नियम ही है। संतों और सज्जनों के परोपकारपरायण जीवन में कितने कष्ट और विपत्तियां आती हैं ? गुलाब में कांटे और संतों में कष्ट--यह उनकी महत्ता बढ़ाने के लिए ही हैं। कांटों से गुलाब की रक्षा होती है, कष्टों से संत अपने पथ में सदा अप्रमत्त होकर चलते हैं। 0 विश्व का सब से बड़ा रोग तपेदिक या कोढ़ नहीं, किंतु अज्ञान है। अज्ञान से ग्रस्त मनुष्य पद-पद पर उपहास एवं आपत्तियों की ठोकरें खाता हुआ दुखी होता है। 0 प्रार्थना अन्तःकरण की एक पवित्र पुकार है। प्रार्थना को मैं परमात्मा की ओर आत्मा का ऊर्ध्वगमन मानता हूँ। 0 सच्ची प्रार्थना मंत्रों व स्तोत्रों का पाठ मात्र नहीं है, किंतु वह मन की रहस्यमय स्थिति है, जिसके हर स्वर एवं हर नाद के साथ भक्तिरस का उद्रेक फूटता है। 0 प्रार्थना अशुद्ध चेतन की शुद्ध चेतन में लीनता है। 0 प्रार्थना का आनन्द दार्शनिक और पंडित नहीं समझा सकता, किंतु एक सरल भक्त उस आनन्द का स्वतः अनुभव कर सकता है। जैसे सूर्य की ऊष्मा, जल की शीतलता, फूल की सुगंध और गन्ने की मिठास अपने आप अनुभव की जा सकती है, वैसे ही प्रार्थना का आनन्द भी स्व-संवेद्य है। ' SARIMJANAMInathamainamainancialsasaaaaaataiNASABAIABAAAAAKIAN aajanaamaadiKNA SARAIAAAA M AME NIUI-10 17. भाया प्रवास अ सा प्रवन अभिनत श्रीआनन्दप श्रीआनन्दा