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जैन दर्शन में अजीव तत्त्व
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भेद का एक और अन्य प्रकार है। वह है पुद्गल गलन की प्रक्रिया। बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से स्कन्ध का गलन या विदारण होना भेद है । पुद्गल वह है जिसमें पूरण और गलन ये दोनों संभव हों। इसलिए एक स्कन्ध दूसरे स्निग्ध-रूक्ष गुण युक्त स्कन्ध से मिलता है वह पूरण है । एक स्कन्ध से कुछ स्निग्ध, रूक्ष गुणों से युक्त परमाणु विच्छिन्न होते हैं वह गलन है।
पुद्गल अनन्त हैं और आकाश प्रदेश असंख्यात है। असंख्यात प्रदेशों में अनन्त प्रदेशों को किस प्रकार स्थान मिल सकता है ? इसका समाधान पूज्यपाद ने इस प्रकार किया है कि सूक्ष्म परिणमन और अवगाहन शक्ति के योग से परमाणु और स्कन्ध सूक्ष्म रूप में परिणत हो जाते हैं । सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र ने लिखा 'पुद्गल एक अविभाग परिच्छेद परमाणु आकाश के एक प्रदेश को घेरता है। उसी प्रदेश में अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु भी स्थित हो सकते है ।२3 परमाणु के विभाग नहीं होते पर उसमें सूक्ष्म परिणमन और अवगाहन शक्ति है। इन्हीं शक्तियों से असंभव भी संभव हो जाता है।
पुद्गल परमाणु बहुत ही सूक्ष्म है, उसकी अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग है। वह तलवार के नोक पार आ सकता है, पर तलवार की तीक्ष्ण धार उसे छेद नहीं सकती, यदि छेद दे तो वह परमाणु ही नहीं है।२४ परमाणु के हिस्से नहीं होते । परमाणु परस्पर जुड़ सकते हैं और पृथक् हो सकते हैं किन्तु उसका अन्तिम अंश अखण्ड है ।२५ वह शाश्वत, परिणामी, नित्य, सावकाश, स्कन्धकर्ता, भेत्ता भी है ।२६ परमाणु कारण रूप है, कार्य रूप नहीं, वह अन्तिम द्रव्य है।२७
तत्व-संख्या में परमाणु की पृथक् परिगणना नहीं की गई है। वह पुद्गल का एक विभाग है।
पुद्गल के परमाणु पुद्गल और नो परमाणु-पुद्गल, द्वयणुक आदि स्कन्ध, ये दो प्रकार हैं।
जैन दार्शनिकों ने जो पुद्गल की सूक्ष्म विवेचना और विश्लेषणा की है वह अपूर्व है।
कितने ही पाश्चात्य विचारकों का यह अभिमत है कि भारत में परमाणुवाद यूनान से आया है, पर यह कथन सत्य तथ्य से परे हैं। यूनान में परमाणुवाद का जन्मदाता डियोक्रिट्स (ईस्वी पूर्व ४६०-४७०) था किन्तु उसके परमाणुवाद से जैनदर्शन का परमाणुवाद बहुत ही पृथक् है। मौलिकता की दृष्टि से वह सर्वथा भिन्न है। जैन दृष्टि से परमाणु चेतन का प्रतिपक्षी है, जब कि डेयोक्रिट्स के अभिमतानुसार आत्मा सूक्ष्म परमाणुओं का ही विकार है।।
कितने ही भारतीय विचारक परमाणुवाद को कणाद ऋषि की उपज मानते हैं किन्तु गहराई से व तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करने पर सहज ज्ञात होता है कि वैशेषिक दर्शन का परमाणुवाद जैन-परमाणुवाद से पहले का नहीं है । जैन दार्शनिकों ने परमाणु के विभिन्न पहलुओं पर जैसा वैज्ञानिक प्रकाश डाला है वैसा वैशेषिकों ने नहीं । दर्शनशास्त्र के इतिहास में स्पष्ट रूप से लिखा
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२३ जावदियं आयास...
-द्रव्यसंग्रह २४ भगवती० ५७ २५ भगवती० १११० २६ पंचास्तिकाय ११७७, ७८, ८०, ८१ २७ कारणमेव तदन्त्यसूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणु ।
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आप्रवर अभिनन्दन यादव श्रीआनन्दथश्राआनन्दप्रसन्थः
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