Book Title: Jain Darshan me Ajiv Tattva
Author(s): Pushkar Muni
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 9
________________ जैन दर्शन में अजीव तत्त्व 247 कालाणु की उत्पत्ति, स्थिति, और विनाश की दृष्टि से उस को शाश्वत और अशाश्वत कहा है। काल का सूक्ष्म अंश समय है। दो समय साथ नहीं रहते / काल के स्कन्ध आदि भेद-प्रभेद नहीं होते।५१ एक-एक कालाणु लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में रत्नराशि के समान स्थित है।५२ इस प्रकार जैन दर्शन में अजीव तत्त्व का अत्यन्त विस्तार से निरूपण है। किन्तु अभिनन्दन ग्रन्थ की पृष्ठ संख्या की मर्यादा को लक्ष्य में रखकर अत्यन्त संक्षेप में लिखने का प्रयास किया है। 51 सप्ततत्त्व प्रकरण-हेमचन्द्रसूरि 48 52 द्रव्यसंग्रह 22 आनन्द-वचनामृत 0 गुलाब जैसे कोमल और सुन्दर फूल पर तीखे कांटे-देखकर आश्चर्य होता है। पर यह कुदरत का नियम ही है। संतों और सज्जनों के परोपकारपरायण जीवन में कितने कष्ट और विपत्तियां आती हैं ? गुलाब में कांटे और संतों में कष्ट--यह उनकी महत्ता बढ़ाने के लिए ही हैं। कांटों से गुलाब की रक्षा होती है, कष्टों से संत अपने पथ में सदा अप्रमत्त होकर चलते हैं। 0 विश्व का सब से बड़ा रोग तपेदिक या कोढ़ नहीं, किंतु अज्ञान है। अज्ञान से ग्रस्त मनुष्य पद-पद पर उपहास एवं आपत्तियों की ठोकरें खाता हुआ दुखी होता है। 0 प्रार्थना अन्तःकरण की एक पवित्र पुकार है। प्रार्थना को मैं परमात्मा की ओर आत्मा का ऊर्ध्वगमन मानता हूँ। 0 सच्ची प्रार्थना मंत्रों व स्तोत्रों का पाठ मात्र नहीं है, किंतु वह मन की रहस्यमय स्थिति है, जिसके हर स्वर एवं हर नाद के साथ भक्तिरस का उद्रेक फूटता है। 0 प्रार्थना अशुद्ध चेतन की शुद्ध चेतन में लीनता है। 0 प्रार्थना का आनन्द दार्शनिक और पंडित नहीं समझा सकता, किंतु एक सरल भक्त उस आनन्द का स्वतः अनुभव कर सकता है। जैसे सूर्य की ऊष्मा, जल की शीतलता, फूल की सुगंध और गन्ने की मिठास अपने आप अनुभव की जा सकती है, वैसे ही प्रार्थना का आनन्द भी स्व-संवेद्य है। ' SARIMJANAMInathamainamainancialsasaaaaaataiNASABAIABAAAAAKIAN aajanaamaadiKNA SARAIAAAA M AME NIUI-10 17. भाया प्रवास अ सा प्रवन अभिनत श्रीआनन्दप श्रीआनन्दा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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