Book Title: Jain Darshan me Agam Praman Author(s): Harindrabhushan Jain Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 5
________________ जैनदर्शन में आगम (श्रुत) प्रमाण २७३ . कर श्रु तज्ञान शब्दानुसारी' और इन्होंने कुछ विशेषणा कहना है कि उमास्वाति को श्र तज्ञान का इतना ही लक्षण इष्ट नहीं हुआ। इसलिए इन्होंने अपने तत्त्वार्थसूत्र में श्र तज्ञान का एक दूसरा लक्षण किया है जिसके अनुसार श्रु तज्ञान मतिपूर्वक होता है । उमास्वाति के पश्चात्वर्ती जन दार्शनिकों में नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक को छोड़कर प्रायः सभी यह मानते हैं कि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। किन्तु इनका कहना है कि इतना कह देने से ही श्र तज्ञान का स्वरूप पूर्णतः स्पष्ट नहीं होता है। इसलिए इन्होंने कुछ विशेषण और जोड़कर श्र तज्ञान का लक्षण स्पष्ट किया है । जिनमें जिनभद्रगणि ने 'शब्दानुसारी' और 'अपने में प्रतिभासमान अर्थ का प्रतिपादन करने में समर्थ, ये दो विशेषण और जोड़कर श्र तज्ञान का लक्षण अपने विशेषावश्यकभाष्य में इस प्रकार किया है "इन्द्रिय और मन की सहायता से शब्दानुसारी जो ज्ञान होता है तथा जो अपने में प्रतिभासमान अर्थ का प्रतिपादन करने में समर्थ होता है उसे श्रु तज्ञान कहते हैं । जिनभद्रगणि के इस लक्षण से यद्यपि अकलंक सहमत हैं किन्तु इन्होंने शब्द पर जिनभद्रगणि से अधिक बल दिया है। अकलंक का तो कहना है कि शब्दयोजना से पूर्व जो मति, स्मृति, चिन्ता, तर्क और अनुमान ज्ञान होते हैं वे मतिज्ञान हैं और शब्दयोजना होने पर वे ही श्रतज्ञान हैं। अक्लंक ने श्र तज्ञान का यह लक्षण करके अन्य दर्शनों में माने गये उपमान, अर्थापत्ति, अभाव, सम्भव, ऐतिह्य और प्रतिभा प्रमाणों का अन्तर्भाव श्रुत नाम में किया है और इनका यह भी कहना है कि शब्दप्रमाण तो श्र तज्ञान ही है । इनके इस मत का विद्यानन्दी ने भी समर्थन किया है। परन्तु बाद के जैन दार्शनिकों को इनका शब्द पर इतना अधिक बल देना ठीक प्रतीत नहीं हुआ। यद्यपि वे भी इस बात को तो मानते हैं कि श्रु तज्ञान में शब्द की प्रमुखता होती है । इसीलिए अमृतचन्द्रसूरि ने श्रु तज्ञान का लक्षण करते हुए इतना ही कहा कि 'मतिज्ञान के बाद स्पष्ट अर्थ की तर्कणा को लिए हुए जो ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान है ।''30 माधवाचार्य ने एक विशेषण और जोड़कर श्रु तज्ञान का लक्षण इस प्रकार किया है कि 'ज्ञान के आवरण के क्षय या उपशम हो जाने पर मतिज्ञान से उत्पन्न स्पष्ट ज्ञान श्रुतज्ञान है। इनका अमृतचन्द्रसूरि से भेद यह है कि जहाँ अमृतचन्द्ररि ने मतिज्ञान के बाद स्पष्ट अर्थ की तर्कणा को लिए हुए ज्ञान को थ तज्ञान कहा है वहां माधवाचार्य ने एक विशेषण और जोड़कर मतिज्ञान से उत्पन्न स्पष्ट ज्ञान को श्र तज्ञान कहा है। इस प्रकार शब्दों के हेर-फेर के कारण दोनों में भेद होने पर भी सूक्ष्म-दृष्टि से विचार करने पर इन दोनों में कोई मूलतः भेद दृष्टिगोचर नहीं होता है। किन्तु नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक ने तो श्रुतज्ञान का लक्षण इन सबसे एकदम भिन्न किया है । ये तो इस बात को ही नहीं मानते हैं कि श्र तज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। इनके इसको न मानने का कारण शायद यह रहा होगा कि श्र तज्ञान के अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक रूप से जो दो भेद हैं, उनमें अनक्षरात्मक श्रु त दिगम्बर परम्परा के अनुसार शब्दात्मक नहीं है और ऊपर तज्ञान की यह परिभाषा दी गयी है कि शब्द-योजना से पूर्व जो मति, स्मृति, चिन्ता, तर्क और अनुमान ज्ञान हैं वे मतिज्ञान है और शब्दयोजना होने पर वे श्र तज्ञान हैं । इस परिभाषा को मानने पर मतिज्ञान और अनक्षरात्मकश्रु त में कोई भेद नहीं रह जाता है । इसीलिये इन्होंने श्रुतज्ञान का लक्षण इन सबसे भिन्न किया है। इनके अनुसार 'मतिज्ञान के विषयभूत पदार्थ से भिन्न पदार्थ के ज्ञान को श्रु तज्ञान कहते हैं । किन्तु श्रु तज्ञान मतिपूर्वक होता है-इस कथन में कोई असंगति नहीं है, क्योंकि यह इस दृष्टि से कहा गया है कि श्रु तज्ञान होने के लिये शब्द-श्रवण आवश्यक है और शब्द-श्रवण मति के अन्तर्गत है, क्योंकि यह श्रोत्रन्द्रिय का विषय है। जब शब्द सुनाई देता है तब उसके अर्थ का स्मरण होता है । शब्द श्रवण रूप जो व्यापार है वह मतिज्ञान है, और उसके बाद उत्पन्न होने वाला ज्ञान ७ तज्ञान है। मतिज्ञान के अभाव में श्र तज्ञान नहीं हो सकता है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि श्रु तज्ञान में मतिज्ञान मुख्य कारण है, क्योंकि मतिज्ञान के होने पर भी जब तक श्रु तज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम न हो तब तक श्रुतज्ञान नहीं हो सकता है । मतिज्ञान तो इसका बाह्य कारण है। अतः संक्षेप में श्र तज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम होने पर मन और इन्द्रिय को सहायता से अपने में प्रतिभासमान अर्थ को प्रतिपादित करने में समर्थ स्पष्ट ज्ञान को शुतज्ञान कहते हैं। श्रुतज्ञान के भेद श्र तज्ञान के कितने भेद हैं इस विषय में जैनाचार्यों में परस्पर मत भेद है । सभी ने अपने-अपने मत के अनुसार श्रु तज्ञान के भेदों को गिनाया है। श्रु तज्ञान के अंगप्रविष्ट और अंगबाह्यरूप से जो भेद हैं, ये दो भेद सभी जैनाचार्यों को मान्य हैं। इसलिए अब इन दो भेदों के अतिरिक्त जो भेद-प्रभेद जैनाचार्यों ने अपने अपने मतानुसार बताये हैं उन पर विचार किया जायेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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