Book Title: Jain Darshan ka Trividh Sadhna Marg Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Nanchandji_Maharaj_Janma_Shatabdi_Smruti_Granth_012031.pdf View full book textPage 5
________________ પૂજ્ય ગુરૂદેવ કવિવ પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જન્મશતાબ્દિ સ્મૃતિગ્રંથ सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान का पूर्वापर संबंध - - ज्ञान और दर्शन की पूर्वापरता को लेकर जैन विचारणा में काफी विवाद रहा है । कुछ आचार्य दर्शनको प्राथमिक मानते हैं तो कुछ ज्ञान को, कुछ ने दोनों को योगपथ ( समानान्तरता ) स्वीकार किया है । आचार मीमांसा की दृष्टि से दर्शन की प्राथमिकता का प्रश्न ही प्रबल रहा है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता । इस प्रकार ज्ञान की अपेक्षा दर्शन की प्राथमिकता दी गई है । तत्वार्थ सूत्रकार उमास्वाति ने भी अपने ग्रंथ में दर्शन को ज्ञान और चरित्र के पहले स्थान दिया है । आचार्य कुन्दकुन्द दर्शनपाहुड में कहते हैं कि धर्म ( साधना मार्ग ) दर्शन प्रधान है। लेकिन दूसरी ओर कुछ सन्दर्भ ऐसे भी हैं जिनमें ज्ञान की प्राथमिकता भी देखने को मिलती है । उत्तराध्ययन सूत्र में उसी अध्याय में मोक्षमार्ग की विवेचना में जो क्रम है उसमें ज्ञान का स्थान प्रथम है । वस्तुतः इस विवाद में कोई एकान्तिक निर्णय लेना अनुचित ही होगा । हमारे अपने दृष्टिकोण में इनमें से किसे प्रथम स्थान दिया जावे इसका निर्णय करने के पूर्व हमें दर्शन शब्द का क्या अर्थ है, इसका निश्चय कर लेना चाहिए। दर्शन शब्द के दो अर्थ हैं १ यथार्थ दृष्टिकोण और २ श्रद्धा । यदि हम दर्शन का यथार्थ दृष्टिकोण परक अर्थ लेते हैं तो हमें साधना मार्ग की दृष्टि से उसे प्रथम स्थान देना चाहिए | क्योंकि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण ही मिथ्या है, अयथार्थ है तो न तो उसका ज्ञान सम्यक् (यथार्थ ) होगा और न चारित्र ही । यथार्थ दृष्टि के अभाव में यदि ज्ञान और चरित्र सम्यक् प्रतीत भी हो तो भी वे सम्यक् नहीं कहे जा सकते, वह तो संयोगिक प्रसंग मात्र है। ऐसा साधक भी दिग्भ्रांत हो सकता है। जिसकी दृष्टि ही दूषित है वह क्या संत्य को जानेगा और क्या उसका समाचरण करेगा ? दूसरी ओर यदि हम सम्यक् दर्शन का श्रद्धा परक अर्थ लेते हैं तो उसे ज्ञान के पश्चात् ही स्थान देना चाहिए। क्योंकि अविचल श्रद्धा तो ज्ञान के बाद ही उत्पन्न हो सकती है । उत्तराध्ययन सूत्र में भी दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ करते समय ज्ञान के बाद ही स्थान दिया गया है। ग्रन्थकार कहते है कि “ज्ञान से पदार्थ (तत्व) स्वरूप को जाने और दर्शन के द्वारा उस पर श्रध्दा करें।""" व्यक्ति के स्वानुभव (ज्ञान) के पश्चात् ही जो श्रद्धा उत्पन्न होती है उसमें जो स्थायित्व होता है वह स्थायित्व ज्ञानाभाव में प्राप्त हुई श्रद्धा से नहीं हो सकता । ज्ञानाभाव में जो श्रद्धा होती है उसमें संशय होने की संभावना हो सकती है। ऐसी श्रद्धा वास्तविक श्रद्धा नहीं वरन् अन्ध श्रद्धा ही हो सकती है । जिन प्रणीत तत्वों में भी यथार्थ श्रद्धा तो उनके स्वानुभव एवं तार्किक परीक्षण के पश्चात् ही हो सकती है । यद्यपि साधना मार्ग के आचरण के लिए श्रद्धा अनिवार्य तत्व है लेकिन वह ज्ञान प्रसूत होना चाहिए । उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “धर्म की समीक्षा प्रज्ञा के द्वारा करें, तर्क से तत्व का विश्लेषण करें । २०" इस प्रकार यथार्थ दृष्टि परक अर्थ में सम्यक् दर्शन को ज्ञान के पूर्व लेना चाहिए और श्रद्धा परक अर्थ में ज्ञान के पश्चात् । न केवल जैन दर्शन में अपितु बौद्ध दर्शन और गीता में भी ज्ञान और श्रद्धा के संबंध का प्रश्न बहुचर्चित रहा है। चाहे बुद्ध ने आत्मदीप एवं आत्मशरण के स्वर्णिम सूत्र का उदघोष किया हो, किन्तु बौद्ध दर्शन में श्रद्धा का महत्वपूर्ण स्थान सभी युगों में मान्य रहा है । सुत्तनिपात में आलवक यक्ष के प्रति स्वयं बुद्ध कहते हैं मनुष्य का श्रेष्ठ धन श्रद्धा है ।" गीता में भी श्रद्धा या भक्ति एक प्रमुख तथ्य है मात्र इतना ही नहीं, अपितु गीता और बौद्ध दर्शन दोनों में ही ऐसे सन्दर्भ है जिनमें ज्ञान के पूर्व श्रद्धा को स्थान दिया है। ज्ञान की उपलब्धि के साधन के रूप में श्रद्धा को स्वीकार करके बुद्ध गीता की विचारणा के अत्यधिक निकट आ जाते हैं । गीता के समान ही बुद्ध सुत्तनिपात में आलवक यक्ष से कहते हैं । निर्वाण की और ले जाने वाले अर्हतों के धर्म में श्रद्धा रखने वाला अप्रमत्त और विचक्षण पुरूष प्रज्ञा को प्राप्त करता है । 'श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं' और सद्दहानी लभते पज्ज' का शब्द साम्य दोनों आचार दर्शनों में निकटता देखने वाले विद्वानों के लिए विशेष रूप से दृष्टव्य है । २२ लेकिन यदि हम श्रद्धा को आस्था के अर्थ में ग्रहण करते हैं तो बुद्ध की दृष्टि में प्रज्ञा प्रथम है और श्रध्दा द्वितीय स्थान पर । संयुक्त निकाय में बुध कहते हैं श्रध्धा पुरुष की साथी है और प्रज्ञा उस पर नियंत्रण करती है । इस प्रकार श्रध्दा पर विवेक का स्थान स्वीकार किया गया है । बुध्ध कहते हैं श्रध्धा से ज्ञान बडा है । २४ लेकिन इसका अर्थ यह भी नही है कि बुध्ध मानवीय प्रज्ञा को श्रध्धा से पूर्णतया निर्मुक्त कर देते हैं । बुध्ध की दृष्टि में ज्ञान विहीन श्रध्धा मनुष्य के स्व विवेक रूपी चक्षु को समाप्त कर जैन दर्शन का त्रिविध साधना मार्ग Jain Education International For Private Personal Use Only ३६९ www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7