Book Title: Jain Darshan ka Trividh Sadhna Marg
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Nanchandji_Maharaj_Janma_Shatabdi_Smruti_Granth_012031.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VPh પ. નાનજી મહારાજ જન્મશતાદિ 2 रस--आम्ल, मधुर, कटु, कषाय और तिक्त । गन्ध–सुगन्ध और दुर्गन्ध । वर्ण-कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत । जैन साहित्यमें पुद्गल और परमाणुके स्वरूप और कार्य का स्क्ष्म से सूक्ष्म विवेचन है। जैन दर्शन के परमाणु सिद्धांतकी सचाई से प्रभावित होकर Dr. G. S. Mallinathan लिखते है कि “A student of science if reads the Jain treatment ot matter will be surprised to find many corresponding ideas. अर्थात एक विज्ञान का विद्यार्थी जब जैन दर्शनका परमाणु सिद्धांत पढता है तो विज्ञान और जैन दर्शनमें आश्चर्यजनक क्षमता पाता है। पण्डित माधवाचार्य का कथन है कि आधुनिक विज्ञान के सर्वप्रथम जन्मदाता भगवान महावोर थे। परमाणु पुद्गल वर्ण, गंध, रस, स्पर्श सहित होने से रुपी है। परंतु दृष्टिगोचर नहीं होते। ऐसे अनंत परमाणु पुदगल एकत्रित होने से स्कंध बनता है। वह भी कोई कोई दृष्टिगोचर नहीं होते है। जैसे कि भाषा का शब्द, गंध के पुद्गल, हवा के पुद्गल दृष्टिगोचर नहीं होते। परन्तु आज के विज्ञानने सिद्ध कर दिया है कि, वे पुदगल दृष्टिगोचर नहीं होते तो भी टेलिव्हिजन, रेडिओ, वायरलेस, टेलिफोन टेपरेकॉर्ड, टेलिप्रिंट, फोनोग्राफ के रेकार्ड में शब्दों को पकडकर संग्रहीत किया जाता है और वे शब्द सुनाई भी देते हैं। वे रुपी है इसलिए मशीन की सहायता से पकडे जाते हैं। यह जैन दर्शनने अनेक वर्षों पहले सिद्ध कर दिया है । जैन दर्शन के तत्त्व को विज्ञान के साथ में सिद्ध किया जाता है। अतः जैन तत्त्व विज्ञान-सिद्ध है। जैन दर्शन का त्रिविध साधना मार्ग -डॉ. सागरमल जैन जैन दर्शन में मोक्ष की प्राप्ति के लिये विविध साधना मार्ग बताया गया है। तत्त्वार्थ सूत्र में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् • दर्शन और सम्यक् चारित्र को मोक्ष मार्ग कहा गया है।' उतराध्ययन सूत्र में सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यक तप ऐसे चतुर्विध मोक्षमार्ग का भी विधान है, किन्तु जैन आचार्यों ने तप का अन्तर्भाव चारित्र में करके इस विविध साधना मार्ग को ही मान्य किया है। त्रिविध साधना मार्ग ही क्यों ? - सम्भवतः यह प्रश्न हो सकता है कि त्रिविध साधना मार्ग का ही विधान क्यों किया गया है ? वस्तुतः विविध साधना मार्ग के विधान में जैन आचार्यों की एक गहन मनोवैज्ञानिक सूझ रही हुई है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय चेतना के तीन पहलु माने गये हैं। १ ज्ञान २ भाव और ३ संकल्प। चेतना के इन तीनों पक्षों के विकास के लिए त्रिविध साधना मार्ग के विधान का प्रावधान किया गया है। चेतना के भावात्मक पक्ष को सही दिशा में नियोजित करने के लिये सम्यक् दर्शन, ज्ञानात्मक पक्ष के सही दिशा में नियोजन के लिए ज्ञान और संकल्षात्मक पक्ष के सही दिशा में नियोजन के लिये सम्यक् चारित्र का प्रावधान किया गया है। • विक्रम विश्वविद्यालय के जैन दर्शन सम्बन्धी सेमीनार में पठित निबन्ध । जैन दर्शन का त्रिविध साधना मार्ग ३६५ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - પૂજ્ય ગુરૂદેવ કવિવય પં. નાનાયબ્રેજી મહારાજ જન્મશતાહિદ સ્મૃતિગ્રંથ अन्य दर्शनों में त्रिविध साधना मार्ग जैन दर्शन के समान ही बौद्ध दर्शन में भी विविध साधना मार्ग का विधान है। बौद्ध दर्शन का अष्टांग मार्ग भी त्रिविध साधना मार्ग में ही अर्न्तगत है। बौद्ध दर्शन के इस विविध साधना मार्ग के तीन अंग है- १ शील २ समाधि और ३ प्रज्ञा। वस्तुतः बौद्ध दर्शन का यह त्रिविध साधना मार्ग जैन दर्शन के त्रिविध साधना मार्ग का समानाथक ही हैं। तुलनास्मक दृष्टि से शील को सम्यक् चरित्र से समाधि को सम्यक् दर्शन से और प्रज्ञा को सम्यक ज्ञान से तुलनीय माना जा सकता है। सम्यक् दर्शन समाधि से इसलिए तुलनीय है कि दोनो में चित्त विकल्प नहीं होते हैं। गीता में भी ज्ञान कर्म और भक्ति के रूप में त्रिविध साधना मार्ग का उल्लेख हैं। हिन्दू धर्म के ज्ञान योग व कर्मयोग और भक्ति योग भी त्रिविध साधना मार्ग का ही एक रूप है। हिन्दू परम्परा में परम सत्ता के तीन पक्ष सत्य, सुन्दर और शिव माने गये हैं। इन तीनो पक्षों की उपलब्धि के लिए ही उन्होंने भी त्रिविध साधना माग का विधान किया है। सत्य की उपलब्धि के लिए ज्ञान, सुन्दर की उपलब्धि के लिए भाव या श्रद्धा और शिव की उपलब्धि के लिये सेवा या कर्म माने गये हैं। गीता में प्रसंगान्तर से त्रिविध साधना मार्ग के रूप में प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा का भी उल्लेख है ४ । इनमें प्रणिपात श्रद्धा का परिप्रश्न ज्ञान का और सेवा कर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं। उपनिषदों में श्रवण मनन और निदिध्यासन के रूप में भी विविध साधना मार्ग का प्रस्तुतीकरण हआ है। यदि हम गहराई से देखें तो इनमें श्रवण श्रद्धा के, मनन ज्ञान के और निदिध्यासन कर्म के अन्तर्भूत हो सकते हैं। पाश्चात्य परम्परा में भी तीन नैतिक आदेश उपलब्ध होते हैं १ स्वयं को जानो (Know thyself) २ स्वयं को स्वीकार करो (Accept thyself) और ३ स्वयं ही बन जावों (Be thyself) पाश्चात्य चिन्तन के यह तीन नैतिक आदेश ज्ञान, दर्शन और चारित्र के ही समकक्ष हो हैं । आत्मज्ञान में ज्ञान का तत्व, आत्म स्वीकृति में श्रद्धा का तत्व और आत्म निर्माण में चारित्र का तत्त्व उपस्थित है। जैन दर्शन बौद्ध दर्शन गीता उपनिषद पाश्चात्य दर्शन सम्यक् ज्ञान सम्यक् दर्शन सम्यक् चरित्र प्रज्ञा श्रद्धा शील ज्ञान, परिप्रश्न श्रद्धा, प्रणिपात कर्म, सेवा मनन श्रवण निदिध्यासन Know thyself Accept thyself Be thyself त्रिविध साधना मार्ग और मुक्ति कुछ भारतीय विचारकों ने इस त्रिविध साधना मार्ग के किसी एक ही पक्ष को मोक्ष की प्राप्ति का साधन मान लिया है। आचार्य शंकर मात्र ज्ञान से और रामानुज मात्र भक्ति से मुक्ति की संभावना को स्वीकार करते हैं। लेकिन जैन दार्शनिक ऐसे किसी एकान्तवादिता में नहीं गिरते हैं। उनके अनुसार तो ज्ञान, कर्म और भक्ति की समवेत साधना ही मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है। इनमें से किसी एक के अभाव में मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। उतराध्ययन सूत्र के अनुसार दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के अभाव में आवरण सम्यक नहीं होता है और सम्यक् आचरण के अभाव में मुक्ति भी नहीं होती है। इस प्रकार मुक्ति की प्राप्ति के लिए तीनों ही अंगों का होना आवश्यक है । सम्यक् दर्शन का अर्थ जैन आगमों में दर्शन शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है और इस के अर्थ के संबंध में जैन परम्परा में काफी विवाद रहा है। दर्शन शब्द को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध या प्रज्ञा और ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है। नैतिक जीवन की दृष्टि से दर्शन शब्द का दृष्टिकोण परक अर्थ भी लिया गया है । दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग, उसके दृष्टिकोण परक अर्थ का द्योतक है । जैन आगमों में दर्शन शब्द का एक अर्थ तत्व श्रद्धा भी माना गया है । परवर्ती जैन तत्त्वदर्शन Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્ય ગુરૂદેવ કવિવર્ય પં. નાનયજી મહારાજ જન્મશતાહિદ સ્મૃતિગ્રંથ साहित्य में दर्शन शब्द की देव गुरू और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त किया गया है । इस प्रकार जैन परम्परा में सम्यकदर्शन तत्त्व-साक्षात्कार, आत्म-साक्षात्कार, अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अनेक अर्थों को अपने में समेटे हुए हैं। सम्यक दर्शन शब्द के इन विभिन्न अर्थों पर विचार करने के पहले हमें यह देखना होगा कि इनमें से कौनसा अर्थ ऐतिहासिक दृष्टि से प्रथम था और किन किन ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण यही शब्द अपने दूसरे अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। प्रथमतः हम यह देखते हैं कि बुद्ध और महावीर के युग में प्रत्येक धर्म प्रर्वतक अपने सिद्धान्त को सम्यक दृष्टि और दूसरे सिद्धान्त को मिथ्यादृष्टि कहता था, लेकिन यहां पर मिथ्यादृष्टि शब्द मिथ्या श्रद्धा के अर्थ में नहीं बरन् गलत दृष्टिकोण के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। जीवन और जगत के संबंध में अपने से भिन्न दूसरों के दृष्टिकोणों की ही मिथ्यादर्शन कहा जाता था। प्रत्येक धर्मप्रवर्तक आत्मा और जगत के स्वरूप के विषय में अपने दृष्टिकोण को सम्यक दृष्टि और अपने विरोवो के दृष्टिकोण को मिथ्यादृष्टि कहता था। सम्यक् दर्शन शब्द अपने दृष्टिकोण परक अर्थ के बाद तत्त्वार्थ श्रद्धान के रूप में भी अभिरूढ हुआ । तत्त्वार्थ श्रद्धान के अर्थ में भी सम्यक दर्शन शब्द अपने मूल अर्थ से अधिक दूर नहीं हुआ था, यद्यपि उसकी दिशा बदल चुकी थी। उसमें श्रद्धा का तत्व प्रविष्ठ हो गया था। यद्यपि यह श्रद्धा तत्व के स्वरूप की मान्यता के सन्दर्भ में ही थी। वैयक्तिक श्रद्धा का विकास बाद की बात थी। यह श्रद्धा बौद्धिक श्रद्धा थी लेकिन जैसे भागवत सम्प्रदाय का विकास हुआ उसका प्रभाव श्रमण परम्पराओं पर भी पडा। तत्त्वार्थ श्रद्धा अब बुद्ध और जिन पर केन्द्रित होने लगी। वह ज्ञानात्मक से भावात्मक और निर्वयक्तिक से वैयक्तिक बन गई। जिसने जैन और बौध्ध परम्पराओं में भक्ति के तत्व का वपन किया। यद्यपि यह सब कुछ आगम एवं पिटक ग्रन्थों के संकलन एवं उनके लिपिबध्ध होने तक हो चुका था। फिर भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सम्यक् दर्शन का दृष्टिकोण परक अर्थ भाषाशास्त्रीय विश्लेषण की दृष्टि से उसका प्रयम एवं मूल अर्थ है। तत्त्वश्रध्दा परक अर्थ एक परवर्ती अर्थ है । यद्यपि ये परस्पर विपरीत नहीं है। आध्यात्मिक साधना के लिए दृष्टिकोण की यथार्थता अर्थात् राग द्वेष से पूर्ण विमुक्त दष्टि का होना आवश्यक है किन्तु साधक अवस्था में राग द्वेष से पूर्ण विमुक्ति संभव नहीं है। अतः जब तक वीतराग दृष्टि या यथार्थ दृष्टि उपलब्ध नहीं होती तब तक वीतराग के वचनों पर श्रब्धा आवश्यक है। सम्यक दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहे या तत्वार्थ श्रद्धान उसमें वास्तविकता की दृष्टि से अधिक अन्तर नहीं होता है। अन्तर होता है उनकी उपलब्धि की विधि में। एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसो सत्य का उद्घाटन वस्तुतत्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है किन्तु दूसरा व्यक्ति ऐसे वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तुतत्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है । यद्यपि यहाँ दोनों का ही दृष्टिकोण यथार्थ होगा, फिर भी एक ने उसे स्वानुभूति में पाया है तो दूसरे ने उसे श्रद्धा के माध्यम से। एक ने तत्त्वसाक्षात्कार किया है तो दूसरे ने तत्त्वश्रद्धा। फिर भी हमें यह मान लेना चाहिये कि तत्त्वश्रद्धा मात्र उस समय तक के लिये एक अनिवार्य विषय है, जब तक कि तत्त्व साक्षात्कार नही होता। पंडित सुखलालजी के शब्दों में तत्त्व श्रद्धा ही सम्यक दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ तत्त्वसाक्षात्कार या स्वानुभूति ही है और यही सम्यक् दर्शन का वास्तविक अर्थ है। सम्यक् ज्ञान का अर्थ ज्ञान को मुक्ति का साधन स्वीकार किया गया है, लेकिन कौनसा ज्ञान मुक्ति के लिए आवश्यक है, यह विचारणीय है। जैन दर्शन में सम्यक ज्ञान के दो रूप पाये जाते हैं। सामान्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान अनेकान्त या वैचारिक अनाग्रह है और इस रूप में वह विचार शुद्धि का माध्यम है। जैन दर्शन के अनुसार एकान्त मिथ्यात्व है क्योंकि वह सत्य के अनन्त पक्षों का अपलाप करता है। एकान्त या आग्रह की उपस्थिति में व्यक्ति सत्य को सम्यक प्रकार से नहीं समझ सकता है। जब तक आग्रह बुद्धि है तब तक वीतरागता संभव ही नहीं है और जब तक वीतराग दृष्टि नहीं है तब तक यथार्थ ज्ञान भी असंभव है । जैन दर्शन के अनुसार सत्य के अनन्त पहलुओं को जानने के लिए अनेकान्त दृष्टि सम्यक् ज्ञान है। एकान्त दृष्टि या वैचारिक आग्रह अपने में निहित छद्म राग के कारण सत्य को रंगीन कर देता है इस प्रकार एकान्त या आग्रह सत्य के साक्षात्कार में बाधक हैं। परम सत्य को अपने सम्पूर्ण रूप में आग्रह बुद्धि नहीं देख सकती। जब तक आँखों पर राग-द्वेष, आसक्ति या आग्रह का रंगीन चश्मा है अनावृत जैन दर्शन का त्रिविध साधना मार्ग ३६७ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્ય ગુરૂદેવ વિદ્યય પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જન્મશતાબ્દિ સ્મૃતિગ્રંથ सत्य का साक्षात्कार संभव नहीं है। वैचारिक आग्रह न केवल व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास को कुंठित करता है वरन् सामाजिक जीवन में भी विग्रह और वैमनस्य के बीज बो देता है। सम्यक् ज्ञान एक अनाग्रही दृष्टि है। वह उस भ्रान्ति का भी निराकरण करता हैं कि सत्य मेरे ही पास है वरन् वह हमें बताता है कि सत्यं हमारे पास भी हो सकता है और दूसरों के पास भी सत्य न मेरा है न पराया, जो भी उसे मेरा और पराया करके देखता है वह उसे ठीक ही प्रकार से समझ ही नहीं सकता। सूत्रकृतांग में कहा गया है कि जो अपने अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मत की निन्दा करने में अपना पांडित्य दिखाते हैं वह एकान्तवादी संसार चक्र में भटकते फिरते हैं। अतः जैन साधना की दृष्टि से वीतरागता को उपलब्ध करने के लिए वैचारिक आग्रह का परित्याग और अनाग्रही दृष्टि का निर्माण आवश्यक है और यही सम्यक् ज्ञान भी हैं। १२ एक अन्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान, आत्म-अनात्म का विवेक है। यह सही कि है आत्म तत्व को ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता है, उसे ज्ञाता ज्ञेय के द्वैत के आधार पर नहीं जाना जा सकता है क्योंकि वह तो स्वयं ज्ञान स्वरूप है, शाता है और ज्ञाता ज्ञेय नहीं बन सकता है लेकिन अनात्म तत्त्व तो ऐसा है जिसे हम ज्ञाता और ज्ञेय के द्वैत के आधार पर जान सकते हैं । सामान्य व्यक्ति भी अपने साधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान ही सकता है कि उसके ज्ञान के विषय क्या हैं ? और जो उसके ज्ञान के विषय है, वे उसका स्वस्वरूप नहीं है, वे अनात्म है । सम्यक् ज्ञान आत्म ज्ञान है, किन्तु आत्मा को अनात्म के माध्यम से ही पहचाना जा सकता है । अनात्म के स्वरूप को जानकर अनात्म से आत्मा का भेद करना यही भेदविज्ञान है और यही जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान का मूल अर्थ है । इस प्रकार जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान आत्म अनात्म का विवेक ही है । आचार्य अमृतचन्द्र सूरि के अनुसार जो कोई सिद्ध हुए हैं वे इस आत्म अनात्म के विवेक या भेद विज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जो बन्धन में हैं, वे इसके अभाव के कारण ही है१३ । आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में इस भेद विज्ञान का अत्यन्त गहन विवेचन किया है। आचार्य कुन्दकुन्द का यह विवेचन अनेक बार हमें बौद्ध त्रिपिटकों की याद दिला देता है जिसमें अनात्म के विवेचन को इतनी ही अधिक गम्भीरता से किया गया है १४ । सम्यक चरित्र का अर्थ जैन परम्परा में सम्यक चरित्र के दो रूप माने गये हैं । १ व्यवहार चरित्र और २ निश्चय चरित्र । आचरण का बाह्य पक्ष या आचरण के विधि विधान व्यवहार चरित्र कहे जाते हैं। जबकि आचरण की अन्तरात्मा निश्चय चरित्र कही जाती है। जहां तक नैतिकता के वैयक्तिक दृष्टिकोण का प्रश्न है अथवा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का प्रश्न है, निश्चयात्मक चरित्र ही उसका मूलभूत आधार है । लेकिन जहां तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है चरित्र का यह बाह्य पक्ष ही प्रमुख है । निश्चय दृष्टि से चरित्र निश्वय दृष्टि से चरित्र का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि है १५ । मानसिक या चैतिसिक जीवन में समत्व की उपलब्धि यही चरित्र का पारमार्थिक या नैश्चयिक पक्ष है। वस्तुतः चरित्र का यह पक्ष आत्म रमण की स्थिति है । नैश्चयिक चरित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था में ही होता है । अप्रमत चेतना की अवस्था में होने वाले सभी कार्य शुद्ध ही माने गए हैं। चेतना में जब राग, द्वेष, कषाय और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शांत हो जाती है। तभी सच्चे नैतिक एवं धार्मिक जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही सदाचार मोक्ष का कारण होता है। अप्रमत्त चेतना जो कि नैश्वविक चारित्र का आधार है राग, द्वेष, कषाय, विषय वासना, आलस्य और निद्रा से रहित अवस्था है। साधक जब जीवन की प्रत्येक क्रिया के सम्पादन में आत्म जाग्रत होता है, उसका आचरण बाह्य आवेगों और वासनाओं से चालित नहीं होता है तभी वह सच्चे अर्थों में नैश्चयिक चारित्र का पालन कर्ता माना जाता है । यही नैश्चयिक चारित्र मुक्ति का सोपान कहा गया है। - * - व्यवहार चारित्र – व्यवहार चरित्र का सम्बन्ध हमारे मन, वचन और कर्म को शुद्धि तथा उस शुद्धि के कारण मूल नियमों से है। सामान्यतया व्यवहार चरित्र में पंच महाव्रत, तीन गुप्ति, पंथ समिति आदि का समावेश है। तत्त्वदर्शन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્ય ગુરૂદેવ કવિવ પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જન્મશતાબ્દિ સ્મૃતિગ્રંથ सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान का पूर्वापर संबंध - - ज्ञान और दर्शन की पूर्वापरता को लेकर जैन विचारणा में काफी विवाद रहा है । कुछ आचार्य दर्शनको प्राथमिक मानते हैं तो कुछ ज्ञान को, कुछ ने दोनों को योगपथ ( समानान्तरता ) स्वीकार किया है । आचार मीमांसा की दृष्टि से दर्शन की प्राथमिकता का प्रश्न ही प्रबल रहा है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता । इस प्रकार ज्ञान की अपेक्षा दर्शन की प्राथमिकता दी गई है । तत्वार्थ सूत्रकार उमास्वाति ने भी अपने ग्रंथ में दर्शन को ज्ञान और चरित्र के पहले स्थान दिया है । आचार्य कुन्दकुन्द दर्शनपाहुड में कहते हैं कि धर्म ( साधना मार्ग ) दर्शन प्रधान है। लेकिन दूसरी ओर कुछ सन्दर्भ ऐसे भी हैं जिनमें ज्ञान की प्राथमिकता भी देखने को मिलती है । उत्तराध्ययन सूत्र में उसी अध्याय में मोक्षमार्ग की विवेचना में जो क्रम है उसमें ज्ञान का स्थान प्रथम है । वस्तुतः इस विवाद में कोई एकान्तिक निर्णय लेना अनुचित ही होगा । हमारे अपने दृष्टिकोण में इनमें से किसे प्रथम स्थान दिया जावे इसका निर्णय करने के पूर्व हमें दर्शन शब्द का क्या अर्थ है, इसका निश्चय कर लेना चाहिए। दर्शन शब्द के दो अर्थ हैं १ यथार्थ दृष्टिकोण और २ श्रद्धा । यदि हम दर्शन का यथार्थ दृष्टिकोण परक अर्थ लेते हैं तो हमें साधना मार्ग की दृष्टि से उसे प्रथम स्थान देना चाहिए | क्योंकि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण ही मिथ्या है, अयथार्थ है तो न तो उसका ज्ञान सम्यक् (यथार्थ ) होगा और न चारित्र ही । यथार्थ दृष्टि के अभाव में यदि ज्ञान और चरित्र सम्यक् प्रतीत भी हो तो भी वे सम्यक् नहीं कहे जा सकते, वह तो संयोगिक प्रसंग मात्र है। ऐसा साधक भी दिग्भ्रांत हो सकता है। जिसकी दृष्टि ही दूषित है वह क्या संत्य को जानेगा और क्या उसका समाचरण करेगा ? दूसरी ओर यदि हम सम्यक् दर्शन का श्रद्धा परक अर्थ लेते हैं तो उसे ज्ञान के पश्चात् ही स्थान देना चाहिए। क्योंकि अविचल श्रद्धा तो ज्ञान के बाद ही उत्पन्न हो सकती है । उत्तराध्ययन सूत्र में भी दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ करते समय ज्ञान के बाद ही स्थान दिया गया है। ग्रन्थकार कहते है कि “ज्ञान से पदार्थ (तत्व) स्वरूप को जाने और दर्शन के द्वारा उस पर श्रध्दा करें।""" व्यक्ति के स्वानुभव (ज्ञान) के पश्चात् ही जो श्रद्धा उत्पन्न होती है उसमें जो स्थायित्व होता है वह स्थायित्व ज्ञानाभाव में प्राप्त हुई श्रद्धा से नहीं हो सकता । ज्ञानाभाव में जो श्रद्धा होती है उसमें संशय होने की संभावना हो सकती है। ऐसी श्रद्धा वास्तविक श्रद्धा नहीं वरन् अन्ध श्रद्धा ही हो सकती है । जिन प्रणीत तत्वों में भी यथार्थ श्रद्धा तो उनके स्वानुभव एवं तार्किक परीक्षण के पश्चात् ही हो सकती है । यद्यपि साधना मार्ग के आचरण के लिए श्रद्धा अनिवार्य तत्व है लेकिन वह ज्ञान प्रसूत होना चाहिए । उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “धर्म की समीक्षा प्रज्ञा के द्वारा करें, तर्क से तत्व का विश्लेषण करें । २०" इस प्रकार यथार्थ दृष्टि परक अर्थ में सम्यक् दर्शन को ज्ञान के पूर्व लेना चाहिए और श्रद्धा परक अर्थ में ज्ञान के पश्चात् । न केवल जैन दर्शन में अपितु बौद्ध दर्शन और गीता में भी ज्ञान और श्रद्धा के संबंध का प्रश्न बहुचर्चित रहा है। चाहे बुद्ध ने आत्मदीप एवं आत्मशरण के स्वर्णिम सूत्र का उदघोष किया हो, किन्तु बौद्ध दर्शन में श्रद्धा का महत्वपूर्ण स्थान सभी युगों में मान्य रहा है । सुत्तनिपात में आलवक यक्ष के प्रति स्वयं बुद्ध कहते हैं मनुष्य का श्रेष्ठ धन श्रद्धा है ।" गीता में भी श्रद्धा या भक्ति एक प्रमुख तथ्य है मात्र इतना ही नहीं, अपितु गीता और बौद्ध दर्शन दोनों में ही ऐसे सन्दर्भ है जिनमें ज्ञान के पूर्व श्रद्धा को स्थान दिया है। ज्ञान की उपलब्धि के साधन के रूप में श्रद्धा को स्वीकार करके बुद्ध गीता की विचारणा के अत्यधिक निकट आ जाते हैं । गीता के समान ही बुद्ध सुत्तनिपात में आलवक यक्ष से कहते हैं । निर्वाण की और ले जाने वाले अर्हतों के धर्म में श्रद्धा रखने वाला अप्रमत्त और विचक्षण पुरूष प्रज्ञा को प्राप्त करता है । 'श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं' और सद्दहानी लभते पज्ज' का शब्द साम्य दोनों आचार दर्शनों में निकटता देखने वाले विद्वानों के लिए विशेष रूप से दृष्टव्य है । २२ लेकिन यदि हम श्रद्धा को आस्था के अर्थ में ग्रहण करते हैं तो बुद्ध की दृष्टि में प्रज्ञा प्रथम है और श्रध्दा द्वितीय स्थान पर । संयुक्त निकाय में बुध कहते हैं श्रध्धा पुरुष की साथी है और प्रज्ञा उस पर नियंत्रण करती है । इस प्रकार श्रध्दा पर विवेक का स्थान स्वीकार किया गया है । बुध्ध कहते हैं श्रध्धा से ज्ञान बडा है । २४ लेकिन इसका अर्थ यह भी नही है कि बुध्ध मानवीय प्रज्ञा को श्रध्धा से पूर्णतया निर्मुक्त कर देते हैं । बुध्ध की दृष्टि में ज्ञान विहीन श्रध्धा मनुष्य के स्व विवेक रूपी चक्षु को समाप्त कर जैन दर्शन का त्रिविध साधना मार्ग For Private Personal Use Only ३६९ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્ય ગુરૂદેવ ડવિલય પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જન્મશતાલિદ સ્મૃતિગ્રંથ उसे अन्धा बना देती है और श्रध्धा विहीन ज्ञान मनुष्य को संशय और तर्क के मरुस्थल में भटका देता है। इस मानवीय प्रकृति का विश्लेषण करते हुए विसुध्दिमग्ग में कहा गया है कि बलवान श्रध्धा वाला किन्तु मन्द प्रज्ञा वाला व्यक्ति विना सोचे ही विश्वास कर लेता है और बलवान प्रज्ञा किन्तु मन्द श्रध्धावाला व्यक्ति कुताकिक (धूर्त) हो जाता है। वह औषधि से उत्पन्न होने वाले रोग के समान ही असाध्य होता है। इस प्रकार बुध्ध श्रध्धा और विवेक के मध्य एक समन्वयवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। जहां तक गीता का प्रश्न है निश्चय ही उसमें ज्ञान की अपेक्षा श्रध्धा की ही प्राथमिकता सिध्ध होती है क्योंकि गीता में श्रध्धेय को इतना समर्थ माना गया है कि वह अपने उपासक के हृदय में ज्ञान की आभा को प्रकाशित कर सकता है। सम्यक् दर्शन और सम्यक् चरित्र का पूर्वापर संबंध चरित्र और ज्ञान दर्शन के संबंध की पूर्वापरता को लेकर जैन विचारणा में कोई विवाद नहीं है। जैन आगमों में चारित्र से दर्शन की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है। कि सम्यक् दर्शन के अभाव में सभ्यक् चरित्र नहीं होता। भक्त परिज्ञा में कहा गया है कि दर्शन से भ्रष्ट (पतित) ही वास्तविक रूप में भ्रष्ट है, चरित्र से भ्रष्ट भ्रष्ट नहीं हैं क्योंकि जो दर्शन से युक्त है वह संसार में अधिक परिभ्रमण नहीं करता जबकि दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति संसार से मुक्त नहीं होता है। कदाचित चरित्र से रहित सिद्ध भी हो जावे लेकिन दर्शन से रहित कभी भी मुक्त नहीं होता ।२६ वस्तूतः दृष्टिकोण या श्रद्धा ही एक ऐसा तस्व है जो व्यक्ति के ज्ञान और आचरण को सही दिशा निर्देश कर सकता है। मध्ययुग के जैन आचार्य भद्रबाहु आचारांग नियुक्ति में कहते हैं कि सम्यक् दृष्टि से ही तप, ज्ञान और सदाचरण सफल होते हैं ।२७ आध्यात्मिक संत आनन्दघनजी दर्शन की महत्ता को सिद्ध करते हुए अनन्त जिन स्तवन में कहते हैं कि शुद्ध श्रद्धा बिना सर्व किरिया करी, छार पर लीपणुं तेह जाणोरे । सभ्यक् ज्ञान और सभ्यक् चरित्र को पूर्वापरता चरित्र का संबंध है जैन विचारकोंने चरित्र को ज्ञान के बाद ही स्थान दिया है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि जो जीव और अजीव के स्वरूप को नहीं जानता, ऐसा जीव और अजीव के विषय में अज्ञानी साधक क्या धर्म (संयम) का आचरण करेगा ?१८ उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही बताया गया है कि सम्यक ज्ञान के अभाव में सदाचरण नहीं होता ।२९ इस प्रकार जैनदर्शनमें आचरण के पूर्व सम्यक ज्ञान का होना आवश्यक है फिर भी वे यह स्वीकार नहीं करते है कि अकेला ज्ञान ही मुक्ति का साधन हो सकता है। यद्यपि आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ज्ञान की चरित्र से पूर्वता को सिद्ध करते हुए एक चरम सीमा का स्पर्श कर लेते हैं। वे अपनी समयसार टीका में लिखते हैं कि ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है क्योंकि ज्ञान के अभाव होने से अज्ञानियों में अन्तरंग व्रत, नियम, सदाचरण, और तपस्या आदि की उपस्थिति होते हुए भी मोक्ष का अभाव है। क्योंकि अज्ञान ही बन्ध का हेतु है ३° । इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र बहुत कुछ रूप में ज्ञान को प्रमुख मान लेते हैं। उनका यह दृष्टिकोण जैनदर्शन को शंकराचार्य के निकट खडा कर देता है । फिर भी यह मानना कि जैन दृष्टि में ज्ञान ही मात्र मुक्ति का साधन है, जैन विचारणा के मौलिक मन्तव्य से दूर होना है। साधना मार्ग में ज्ञान और क्रिया के श्रेष्ठत्व को लेकर आज तक विवाद चला आ रहा है किन्तु महावीर ने ज्ञान और आचरण से दोनों से समन्वित साधना पथ का उपदेश दिया है। सूत्रकृतांग में महावीर कहते हैं कि मनुष्य चाहे वह ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो अथवा अनेक शास्त्रों का जानकार हो, यदि उसका आचरण अच्छा नहीं है तो वह अपने कृत्य कर्मों के कारण दुःखी ही होगा। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि अनेक भाषाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान आत्मा को शरणभूत नहीं होता। दुराचरण में अनुरक्त अपने आप को पंडित मानने वाले लोग वस्तुतः मूर्ख ही है। वे केवल वचनों से ही अपनी आत्मा को आश्वासन देते हैं ३२ । आवश्यक नियुक्ति में ज्ञान और आचरण के पारस्परिक संबंध का विवेचन अत्यन्त विस्तृत रूप से किया गया है। आचार्य भद्रबाह कहते हैं कि आचरण विहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता मी संसार समुद्र से पार नहीं होते। ज्ञान और क्रिया के ३७० तत्त्वदर्शन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્ય ગુરૂદેવ કવિવય પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જન મશતાહિદ સ્મૃતિગ્રંથ पारस्परिक संबंध को लोकप्रसिद्ध अंध पंगु न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं चलता है या अकेला अंधा अथवा अकेला पंगु इच्छित साध्य को नहीं पहुंचते वैसे ही मात्र ज्ञान अथवा मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं होती / अपितु दोनों के सहयोग से ही मुक्ति होती है / जैन दर्शन का यह दृष्टिकोण हमें कठोपनिषद और बौद्ध परम्परा में भी प्राप्त होता है। बुद्ध कहते हैं जो ज्ञान और आचरण दोनों से समन्वित है वही देवताओं और मनुष्यों में श्रेष्ठ है / सन्दर्भ सूचि 1. तत्त्वार्थ सूत्र 11 2. उत्तराध्ययन सूत्र 2802 3. सुत्तनिपात 288 4. गीता 4 / 34, 4 / 39 5. Psychology and Morals P. 180 6. उत्तराध्ययन 28130 7. Some problems of Jain Psychology P. 32. 8. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड 5 पृ. 2425 9. तत्त्वार्थ 1 / 2, उत्तराध्यन 28 / 35 10. सामायिक सूत्र - सम्यक्त्वपाठ 11. जैन धर्म का प्राण पृ. 24 12. सूत्रकृतांग 1 / 1 / 2 / 23 13. समयसार टीका 132 14. देखिये - समय सार 392-407 नियमसार 75 - 81 तुलनीय संयुक्तनिकाय 34 / 1 / 1 / 1-12 15. प्रवचनसार १७,पंचास्तिकायसार 107 16. उत्तराध्ययन 28130 17. तत्त्वार्थ सूत्र 111 18. दर्शन पाहुड 2 19. उत्तराध्ययन सूत्र 28135 20. उत्तराध्ययन 23 / 35 21. सुत्तनिपात 102 22. सुत्तनिपात 106, तुलनीय गीता 4139 23. संयुक्तनिकाय 1 / 1159 24. संयुक्तनिकाय 4 / 41 / 8 25. विसुद्धिमग्ग 4 / 47 26. भक्तपरिज्ञा 65-66 27. आचारांग नियुक्ति 221 28. दशवकालिक 4112 29. उत्तराध्ययन 28.30 30. समयसार टीका 153 तुलनीय गीता शांकरभाष्य अध्याय 5 की पीठिका 31. सूत्रकृतांग 2017 32. उत्तराध्ययन 6 / 9-11 33. आवश्यक नियुक्ति 95-102 तुलनीय - नृसिंह पुराण 61 / 9 / 11 34. मज्झिमनिकाय 2 / 3 / 5 जैन दर्शन का त्रिविध साधना मागे 371