Book Title: Jain Darshan ka Trividh Sadhna Marg Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Nanchandji_Maharaj_Janma_Shatabdi_Smruti_Granth_012031.pdf View full book textPage 3
________________ પૂજ્ય ગુરૂદેવ કવિવર્ય પં. નાનયજી મહારાજ જન્મશતાહિદ સ્મૃતિગ્રંથ साहित्य में दर्शन शब्द की देव गुरू और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त किया गया है । इस प्रकार जैन परम्परा में सम्यकदर्शन तत्त्व-साक्षात्कार, आत्म-साक्षात्कार, अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अनेक अर्थों को अपने में समेटे हुए हैं। सम्यक दर्शन शब्द के इन विभिन्न अर्थों पर विचार करने के पहले हमें यह देखना होगा कि इनमें से कौनसा अर्थ ऐतिहासिक दृष्टि से प्रथम था और किन किन ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण यही शब्द अपने दूसरे अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। प्रथमतः हम यह देखते हैं कि बुद्ध और महावीर के युग में प्रत्येक धर्म प्रर्वतक अपने सिद्धान्त को सम्यक दृष्टि और दूसरे सिद्धान्त को मिथ्यादृष्टि कहता था, लेकिन यहां पर मिथ्यादृष्टि शब्द मिथ्या श्रद्धा के अर्थ में नहीं बरन् गलत दृष्टिकोण के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। जीवन और जगत के संबंध में अपने से भिन्न दूसरों के दृष्टिकोणों की ही मिथ्यादर्शन कहा जाता था। प्रत्येक धर्मप्रवर्तक आत्मा और जगत के स्वरूप के विषय में अपने दृष्टिकोण को सम्यक दृष्टि और अपने विरोवो के दृष्टिकोण को मिथ्यादृष्टि कहता था। सम्यक् दर्शन शब्द अपने दृष्टिकोण परक अर्थ के बाद तत्त्वार्थ श्रद्धान के रूप में भी अभिरूढ हुआ । तत्त्वार्थ श्रद्धान के अर्थ में भी सम्यक दर्शन शब्द अपने मूल अर्थ से अधिक दूर नहीं हुआ था, यद्यपि उसकी दिशा बदल चुकी थी। उसमें श्रद्धा का तत्व प्रविष्ठ हो गया था। यद्यपि यह श्रद्धा तत्व के स्वरूप की मान्यता के सन्दर्भ में ही थी। वैयक्तिक श्रद्धा का विकास बाद की बात थी। यह श्रद्धा बौद्धिक श्रद्धा थी लेकिन जैसे भागवत सम्प्रदाय का विकास हुआ उसका प्रभाव श्रमण परम्पराओं पर भी पडा। तत्त्वार्थ श्रद्धा अब बुद्ध और जिन पर केन्द्रित होने लगी। वह ज्ञानात्मक से भावात्मक और निर्वयक्तिक से वैयक्तिक बन गई। जिसने जैन और बौध्ध परम्पराओं में भक्ति के तत्व का वपन किया। यद्यपि यह सब कुछ आगम एवं पिटक ग्रन्थों के संकलन एवं उनके लिपिबध्ध होने तक हो चुका था। फिर भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सम्यक् दर्शन का दृष्टिकोण परक अर्थ भाषाशास्त्रीय विश्लेषण की दृष्टि से उसका प्रयम एवं मूल अर्थ है। तत्त्वश्रध्दा परक अर्थ एक परवर्ती अर्थ है । यद्यपि ये परस्पर विपरीत नहीं है। आध्यात्मिक साधना के लिए दृष्टिकोण की यथार्थता अर्थात् राग द्वेष से पूर्ण विमुक्त दष्टि का होना आवश्यक है किन्तु साधक अवस्था में राग द्वेष से पूर्ण विमुक्ति संभव नहीं है। अतः जब तक वीतराग दृष्टि या यथार्थ दृष्टि उपलब्ध नहीं होती तब तक वीतराग के वचनों पर श्रब्धा आवश्यक है। सम्यक दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहे या तत्वार्थ श्रद्धान उसमें वास्तविकता की दृष्टि से अधिक अन्तर नहीं होता है। अन्तर होता है उनकी उपलब्धि की विधि में। एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसो सत्य का उद्घाटन वस्तुतत्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है किन्तु दूसरा व्यक्ति ऐसे वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तुतत्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है । यद्यपि यहाँ दोनों का ही दृष्टिकोण यथार्थ होगा, फिर भी एक ने उसे स्वानुभूति में पाया है तो दूसरे ने उसे श्रद्धा के माध्यम से। एक ने तत्त्वसाक्षात्कार किया है तो दूसरे ने तत्त्वश्रद्धा। फिर भी हमें यह मान लेना चाहिये कि तत्त्वश्रद्धा मात्र उस समय तक के लिये एक अनिवार्य विषय है, जब तक कि तत्त्व साक्षात्कार नही होता। पंडित सुखलालजी के शब्दों में तत्त्व श्रद्धा ही सम्यक दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ तत्त्वसाक्षात्कार या स्वानुभूति ही है और यही सम्यक् दर्शन का वास्तविक अर्थ है। सम्यक् ज्ञान का अर्थ ज्ञान को मुक्ति का साधन स्वीकार किया गया है, लेकिन कौनसा ज्ञान मुक्ति के लिए आवश्यक है, यह विचारणीय है। जैन दर्शन में सम्यक ज्ञान के दो रूप पाये जाते हैं। सामान्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान अनेकान्त या वैचारिक अनाग्रह है और इस रूप में वह विचार शुद्धि का माध्यम है। जैन दर्शन के अनुसार एकान्त मिथ्यात्व है क्योंकि वह सत्य के अनन्त पक्षों का अपलाप करता है। एकान्त या आग्रह की उपस्थिति में व्यक्ति सत्य को सम्यक प्रकार से नहीं समझ सकता है। जब तक आग्रह बुद्धि है तब तक वीतरागता संभव ही नहीं है और जब तक वीतराग दृष्टि नहीं है तब तक यथार्थ ज्ञान भी असंभव है । जैन दर्शन के अनुसार सत्य के अनन्त पहलुओं को जानने के लिए अनेकान्त दृष्टि सम्यक् ज्ञान है। एकान्त दृष्टि या वैचारिक आग्रह अपने में निहित छद्म राग के कारण सत्य को रंगीन कर देता है इस प्रकार एकान्त या आग्रह सत्य के साक्षात्कार में बाधक हैं। परम सत्य को अपने सम्पूर्ण रूप में आग्रह बुद्धि नहीं देख सकती। जब तक आँखों पर राग-द्वेष, आसक्ति या आग्रह का रंगीन चश्मा है अनावृत जैन दर्शन का त्रिविध साधना मार्ग ३६७ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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