Book Title: Jain Darshan ka Trividh Sadhna Marg Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Nanchandji_Maharaj_Janma_Shatabdi_Smruti_Granth_012031.pdf View full book textPage 4
________________ પૂજ્ય ગુરૂદેવ વિદ્યય પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જન્મશતાબ્દિ સ્મૃતિગ્રંથ सत्य का साक्षात्कार संभव नहीं है। वैचारिक आग्रह न केवल व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास को कुंठित करता है वरन् सामाजिक जीवन में भी विग्रह और वैमनस्य के बीज बो देता है। सम्यक् ज्ञान एक अनाग्रही दृष्टि है। वह उस भ्रान्ति का भी निराकरण करता हैं कि सत्य मेरे ही पास है वरन् वह हमें बताता है कि सत्यं हमारे पास भी हो सकता है और दूसरों के पास भी सत्य न मेरा है न पराया, जो भी उसे मेरा और पराया करके देखता है वह उसे ठीक ही प्रकार से समझ ही नहीं सकता। सूत्रकृतांग में कहा गया है कि जो अपने अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मत की निन्दा करने में अपना पांडित्य दिखाते हैं वह एकान्तवादी संसार चक्र में भटकते फिरते हैं। अतः जैन साधना की दृष्टि से वीतरागता को उपलब्ध करने के लिए वैचारिक आग्रह का परित्याग और अनाग्रही दृष्टि का निर्माण आवश्यक है और यही सम्यक् ज्ञान भी हैं। १२ एक अन्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान, आत्म-अनात्म का विवेक है। यह सही कि है आत्म तत्व को ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता है, उसे ज्ञाता ज्ञेय के द्वैत के आधार पर नहीं जाना जा सकता है क्योंकि वह तो स्वयं ज्ञान स्वरूप है, शाता है और ज्ञाता ज्ञेय नहीं बन सकता है लेकिन अनात्म तत्त्व तो ऐसा है जिसे हम ज्ञाता और ज्ञेय के द्वैत के आधार पर जान सकते हैं । सामान्य व्यक्ति भी अपने साधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान ही सकता है कि उसके ज्ञान के विषय क्या हैं ? और जो उसके ज्ञान के विषय है, वे उसका स्वस्वरूप नहीं है, वे अनात्म है । सम्यक् ज्ञान आत्म ज्ञान है, किन्तु आत्मा को अनात्म के माध्यम से ही पहचाना जा सकता है । अनात्म के स्वरूप को जानकर अनात्म से आत्मा का भेद करना यही भेदविज्ञान है और यही जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान का मूल अर्थ है । इस प्रकार जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान आत्म अनात्म का विवेक ही है । आचार्य अमृतचन्द्र सूरि के अनुसार जो कोई सिद्ध हुए हैं वे इस आत्म अनात्म के विवेक या भेद विज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जो बन्धन में हैं, वे इसके अभाव के कारण ही है१३ । आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में इस भेद विज्ञान का अत्यन्त गहन विवेचन किया है। आचार्य कुन्दकुन्द का यह विवेचन अनेक बार हमें बौद्ध त्रिपिटकों की याद दिला देता है जिसमें अनात्म के विवेचन को इतनी ही अधिक गम्भीरता से किया गया है १४ । सम्यक चरित्र का अर्थ जैन परम्परा में सम्यक चरित्र के दो रूप माने गये हैं । १ व्यवहार चरित्र और २ निश्चय चरित्र । आचरण का बाह्य पक्ष या आचरण के विधि विधान व्यवहार चरित्र कहे जाते हैं। जबकि आचरण की अन्तरात्मा निश्चय चरित्र कही जाती है। जहां तक नैतिकता के वैयक्तिक दृष्टिकोण का प्रश्न है अथवा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का प्रश्न है, निश्चयात्मक चरित्र ही उसका मूलभूत आधार है । लेकिन जहां तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है चरित्र का यह बाह्य पक्ष ही प्रमुख है । निश्चय दृष्टि से चरित्र निश्वय दृष्टि से चरित्र का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि है १५ । मानसिक या चैतिसिक जीवन में समत्व की उपलब्धि यही चरित्र का पारमार्थिक या नैश्चयिक पक्ष है। वस्तुतः चरित्र का यह पक्ष आत्म रमण की स्थिति है । नैश्चयिक चरित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था में ही होता है । अप्रमत चेतना की अवस्था में होने वाले सभी कार्य शुद्ध ही माने गए हैं। चेतना में जब राग, द्वेष, कषाय और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शांत हो जाती है। तभी सच्चे नैतिक एवं धार्मिक जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही सदाचार मोक्ष का कारण होता है। अप्रमत्त चेतना जो कि नैश्वविक चारित्र का आधार है राग, द्वेष, कषाय, विषय वासना, आलस्य और निद्रा से रहित अवस्था है। साधक जब जीवन की प्रत्येक क्रिया के सम्पादन में आत्म जाग्रत होता है, उसका आचरण बाह्य आवेगों और वासनाओं से चालित नहीं होता है तभी वह सच्चे अर्थों में नैश्चयिक चारित्र का पालन कर्ता माना जाता है । यही नैश्चयिक चारित्र मुक्ति का सोपान कहा गया है। - * Jain Education International - व्यवहार चारित्र – व्यवहार चरित्र का सम्बन्ध हमारे मन, वचन और कर्म को शुद्धि तथा उस शुद्धि के कारण मूल नियमों से है। सामान्यतया व्यवहार चरित्र में पंच महाव्रत, तीन गुप्ति, पंथ समिति आदि का समावेश है। For Private & Personal Use Only तत्त्वदर्शन www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7