Book Title: Jain Darshan ka Parmanuvad
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन नित्य है, न अनवकाशी है, न सावकाशी है, एक प्रदेशी है, स्कन्धों का कर्त्ता है, कालसंख्या का भेद करने वाला है ' जिसमें एक रूप, एक रस, एक गन्ध और दो स्पर्श होते हैं, शब्द का कारण है, स्वयं शब्दरहित है और स्कन्धों से जो भिन्न द्रव्य है वह परमाणु कहलाता है । " (ङ) जो स्वयं ही आदि है, स्वयं ही मध्य है, स्वयं ही अन्त है, चक्षु आदि इन्द्रियों द्वारा जिसे नहीं ग्रहण किया जा सकता है और जो अविभागी है, वह परमाणु कहलाता है । " (च) जो पृथ्वी आदि चार धातुओं का कारण है, वह कारण परमाणु और जो स्कन्धों के टूटने (विभाज्य अंश) से बनता है, वह कार्य परमाणु कहलाता है । " आचार्य उमा स्वामी उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में प्रदेशरहित द्रव्य को अर्थात् जिससे मात्र एक प्रदेश होता है, उसे अणु कहा है। " (क) अणुओं की उत्पत्ति स्कन्धों के टूटने से होती है १ । (ख) श्वेताम्बर मत में मान्य, उमास्वामी ने अपने, भाष्य में कहा है, कि परमाणु आदि मध्य और प्रदेश से रहित होता है" । (ग) भाष्य में यह भी कहा गया है कि परमाणु कारण ही है, अन्त्य है (उसके अनन्तर दूसरा कोई भेद नहीं है) सूक्ष्म है, नित्य है, स्पर्श रस, गन्ध तथा वर्ण गुणवाला है, कार्यलिङ्ग है अर्थात् परमाणुओं के कार्यों को देख कर . उसके अस्तित्व का बोध होता है २ । (घ) परमाणु अबद्ध हैं, अर्थात् वे परस्पर में अलग-अलग असंश्लिष्ट अवस्था में रहते हैं १३ । पूज्यपादाचार्य 'तत्त्वार्थसूत्र के सर्वप्रथम टीकाकार आचार्य पूज्यपाद ने स्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थसूत्र की टीका में परमाणु की निम्नांकित परिभाषाएँ दी हैं- Jain Education International (क) अणु प्रदेशरहित अर्थात् प्रदेशमात्र होता है। क्योंकि अणु के अतिरिक्त अन्य कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जो अणु से भी अधिक अल्प परिमाणवाली अर्थात् छोटी हो । अतः पूज्यपाद ने प्रदेश और अणु को एकार्थ माना है" । (ख) प्रदेशमात्र में होने वाले स्पर्शादि पर्याय को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रूप से जो अत्यंत अर्थात् शब्दों के द्वारा कहे जाते हैं, वे अणु कहलाते हैं।१७ For Private (ग) अणु अत्यंत सूक्ष्म है। यही कारण है कि वही आदि है, वही मध्य और वही अन्त है" । भट्ट अकलंकदेव परमाणु के स्वरूप का विवेचन करते हुए सर्वप्रथम अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में परमाणु की सत्ता सिद्ध करना आवश्यक समझा है। (१) परमाणु अप्रवेशी होते हुए भी खर- विषाण की तरह अस्तित्वहीन नहीं है, क्योंकि अप्रवेशी कहने का अर्थ प्रदेशों का सर्वथा अभाव नहीं है । अप्रदेशी का अर्थ है कि परमाणु एक प्रदेशी है। जिसके प्रदेश नहीं होते हैं उनका अस्तित्व नहीं होता है, जैसे- खरविषाण । परमाणु के एक प्रदेश होता है इसलिए उसका अस्तित्व है १९ । (२) परमाणु की सत्ता सिद्ध करने के लिए दूसरा तर्क यह दिया है कि जिस प्रकार विज्ञान का आदि मध्य और अन्त नहीं होता है, फिर भी उसकी सत्ता सभी स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार आदि, मध्य और अन्त से रहित परमाणु की भी सत्ता है । अतः आदि, मध्य और अन्त रहित परमाणु की सत्ता न मानना ठीक नहीं है" । इस प्रकार भट्ट अकलंकदेव ने परमाणु का अस्तित्व सिद्ध किया है। ग्रीक और वैशेषिक दर्शन में परमाणु की स्वतंत्र सत्ता सिद्ध करने के लिए उक्त प्रकार के प्रमाण उपलब्ध नहीं होते हैं। जहाँ भट्ट अकलंकदेव ने पूज्यपादाचार्य का अनुकरण करते हुए परमाणु के स्वरूप का विवेचन किया है २२ । वहीं amanGramsan ? o movimóniam (३) परमाणु का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए तीसरा कारण दिया है कि परमाणु की सत्ता है, क्योंकि उसका कार्य दिखलाई पड़ता है | शरीर, इन्द्रिय, महाभूत आदि परमाणु के कार्य हैं, क्योंकि परमाणुओं के संयोग से उनकी स्कन्ध रूप में रचना हुई है। कार्य बिना कारण के नहीं होता है। यह सर्वमान्य सिद्धान्त है। अतः कार्यलिंग के कारण के रूप में परमाणु का अस्तित्व सिद्ध होता है" । तत्त्वार्थाधिगम भाष्य में भी यह तर्क दिया गया है। Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8