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जैन दर्शन का परमाणुवाद
प्रो. डॉ. लालचन्द्र जैन....
जैन दर्शन के अहिंसावाद, अपरिग्रहवाद, कर्मवाद, तीर्थंकरों के उपदेश जिस पुस्तक में निबद्ध किए गए, वे आगम अनेकान्तवाद, स्याद्वावाद, अध्यात्मवाद और परमाणुवाद मूलभूत कहलाते हैं। आगमों में अन्य सिद्धान्तों की तरह परमाणुवाद भी सिद्धान्त हैं। इनमें से कतिपय सिद्धान्तों का तुलनात्मक विवेचन उपलब्ध रहा। इस प्रकार सिद्ध है कि जैन परमाणुवाद अत्यधिक किया गया है। परमाणुवाद भी इसकी अपेक्षा रखता है। परमाणुवाद प्राचीन है। जैन वाङ्मय में परमाणु के स्वरूप, भेद आदि का
जैन दर्शन की भारतीय दर्शन को एक महत्त्वपूर्ण और अनुपम देन सूक्ष्म विवेचन उपलब्ध होता है। इस प्रकार का विवेचन अन्यत्र है। विश्व के सामने सर्वप्रथम भारतीय चिन्तकों ने यह सिद्धान्त अर्थात् भारतीय और पाश्चात्य वाङ्मय में नहीं हो सका है। प्रस्तुत किया था। अब प्रश्न यह उठता है कि भारत में सर्वप्रथम और
जैन दर्शन में परमाणु का स्वरूप - परिभाषाएँ किस निकाय के मनीषियों ने परमाण सिद्धान्त प्रस्तुत किया? जैकोबि ने इस पर गहराई से विचार करके इसका श्रेय जैन
परमाणु शब्द परम + अणु के मेल से बना है। परमाणु का मनीषियों को दिया है। इसके बाद वैशेषिक दार्शनिक कणाद इस अर्थ हुआ सबसे उत्कृष्ट सूक्ष्मतम अणु। द्रव्यों में जिससे छोटा परंपरा में आते हैं। एम. हिरियन्ना ने भी भारतीय दर्शन की रूपरेखा दूसरा द्रव्य नहीं होता है, वह अणु कहलाता है। अतः अणु का में यही कहा है। ऐटम का संस्कत पर्याय अण उपनिषदों में अर्थ सूक्ष्म है। अणुओं में जो अत्यंत सूक्ष्म होता है वह परमाण पाया जाता है, लेकिन वेदान्त के लिए अण सिद्धान्त बाहरी है। जैसा कहलाता है। श्वेताम्बर आगमों में भगवतीसूत्र में जैन परमाणुवाद कि हम देखेंगे, भारतीय दर्शन के शेष सम्प्रदायों में से एक से अधिक का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। दिगम्बर परंपरा में बारहवें इसे मानते हैं और जैन दर्शन में शायद इसका रूप प्राचीनतम है। अंग दृष्टिवाद का दोहन करने वाले आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुडों
में परमाणु का सर्वप्रथम विवेचन हुआ है, जिसका अनुकरण पाश्चात्य देशों में जो दार्शनिक विचारधारा उपलब्ध है,
अन्य दिगम्बर आचायों ने किया है। * उसका बीजारोपण सर्वप्रथम यूनान (ग्रीस) में ईसा पूर्व छठी शताब्दी में हुआ था। ग्रीकदर्शन के प्रारंभिक दार्शनिकों को वैज्ञानिक आचार्य कुन्दकुन्द कहना अधिक उपयुक्त समझा गया है। इनमें इन्पेडोवलीज के
आचार्य कुन्दकुन्द ने परमाणु की निम्नांकित परिभाषा दी है-- समकालीन ईसा से पूर्व पाँचवीं शताब्दी में होने वाले ल्यूसीयस और डिमाक्रिप्स का सिद्धान्त परमाणुवाद के नाम से प्रसिद्ध है।
(क) परमाणु पुद्गल द्रव्य कहलाता है। इनके इस सिद्धान्त की जैनों के परमाणवाद के साथ तलना (ख) पुद्गल द्रव का वह सबसे छोटा भाग, जिसको पुनः विभाजित प्रस्तुत की जाएगी ताकि अनेक प्रकार की भ्रान्तियों और आशंकाओं
नहीं किया जा सकता है, परमाणु कहलाता है।' का निराकरण हो सके।
(ग) स्कन्धों (छह प्रकार के स्कन्धों) का अंतिम भेद (अर्थात् भगवान ऋषभदेव जैन-धर्म-दर्शन के इस युग के प्रवर्तक अति सूक्ष्म) जो शाश्वत, शब्दहीन, एक अविभागी और सिद्ध हो चुके हैं। जैन धर्म में इन्हें तीर्थंकर कहा जाता है। इस मूर्तिक है, परमाणु कहलाता है।' प्रकार के तीर्थंकर जैन धर्म में चौबीस हो चुके हैं। भगवान (घ) जो आदेशमात्र से (गुण-गुणी के संज्ञादि भेदों से) मूर्तिक तीर्थंकर अंतिम तीर्थंकर थे। ऋषभदेव की परंपरा से प्राप्त जैन है, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार धातुओं का धर्म - दर्शन के सिद्धान्तों को ई.पू. ५४० में भगवान महावीर ने कारण है, परिणाम स्वभाव वाला है, स्वयं अशब्दरूप है, संशोधित व परमार्जित करके नये रूप में प्रस्तुत किया था।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
नित्य है, न अनवकाशी है, न सावकाशी है, एक प्रदेशी है, स्कन्धों का कर्त्ता है, कालसंख्या का भेद करने वाला है ' जिसमें एक रूप, एक रस, एक गन्ध और दो स्पर्श होते हैं, शब्द का कारण है, स्वयं शब्दरहित है और स्कन्धों से जो भिन्न द्रव्य है वह परमाणु कहलाता है । "
(ङ) जो स्वयं ही आदि है, स्वयं ही मध्य है, स्वयं ही अन्त है, चक्षु आदि इन्द्रियों द्वारा जिसे नहीं ग्रहण किया जा सकता है और जो अविभागी है, वह परमाणु कहलाता है । "
(च) जो पृथ्वी आदि चार धातुओं का कारण है, वह कारण परमाणु और जो स्कन्धों के टूटने (विभाज्य अंश) से बनता है, वह कार्य परमाणु कहलाता है । "
आचार्य उमा स्वामी
उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में प्रदेशरहित द्रव्य को अर्थात् जिससे मात्र एक प्रदेश होता है, उसे अणु कहा है। "
(क) अणुओं की उत्पत्ति स्कन्धों के टूटने से होती है १ । (ख) श्वेताम्बर मत में मान्य, उमास्वामी ने अपने, भाष्य में कहा है, कि परमाणु आदि मध्य और प्रदेश से रहित होता है" ।
(ग) भाष्य में यह भी कहा गया है कि परमाणु कारण ही है,
अन्त्य है (उसके अनन्तर दूसरा कोई भेद नहीं है) सूक्ष्म है, नित्य है, स्पर्श रस, गन्ध तथा वर्ण गुणवाला है, कार्यलिङ्ग है अर्थात् परमाणुओं के कार्यों को देख कर . उसके अस्तित्व का बोध होता है २ ।
(घ) परमाणु अबद्ध हैं, अर्थात् वे परस्पर में अलग-अलग असंश्लिष्ट अवस्था में रहते हैं १३ ।
पूज्यपादाचार्य
'तत्त्वार्थसूत्र के सर्वप्रथम टीकाकार आचार्य पूज्यपाद ने स्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थसूत्र की टीका में परमाणु की निम्नांकित परिभाषाएँ दी हैं-
(क) अणु प्रदेशरहित अर्थात् प्रदेशमात्र होता है। क्योंकि अणु के अतिरिक्त अन्य कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जो अणु से भी अधिक अल्प परिमाणवाली अर्थात् छोटी हो । अतः पूज्यपाद ने प्रदेश और अणु को एकार्थ माना है" ।
(ख) प्रदेशमात्र में होने वाले स्पर्शादि पर्याय को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रूप से जो अत्यंत अर्थात् शब्दों के द्वारा कहे जाते हैं, वे अणु कहलाते हैं।१७
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(ग) अणु अत्यंत सूक्ष्म है। यही कारण है कि वही आदि है, वही मध्य और वही अन्त है" ।
भट्ट अकलंकदेव
परमाणु के स्वरूप का विवेचन करते हुए सर्वप्रथम अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में परमाणु की सत्ता सिद्ध करना आवश्यक समझा है।
(१) परमाणु अप्रवेशी होते हुए भी खर- विषाण की तरह अस्तित्वहीन नहीं है, क्योंकि अप्रवेशी कहने का अर्थ प्रदेशों का सर्वथा अभाव नहीं है । अप्रदेशी का अर्थ है कि परमाणु एक प्रदेशी है। जिसके प्रदेश नहीं होते हैं उनका अस्तित्व नहीं होता है, जैसे- खरविषाण । परमाणु के एक प्रदेश होता है इसलिए उसका अस्तित्व है १९ ।
(२) परमाणु की सत्ता सिद्ध करने के लिए दूसरा तर्क यह दिया है कि जिस प्रकार विज्ञान का आदि मध्य और अन्त नहीं होता है, फिर भी उसकी सत्ता सभी स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार आदि, मध्य और अन्त से रहित परमाणु की भी सत्ता है । अतः आदि, मध्य और अन्त रहित परमाणु की सत्ता न मानना ठीक नहीं है" ।
इस प्रकार भट्ट अकलंकदेव ने परमाणु का अस्तित्व सिद्ध किया है। ग्रीक और वैशेषिक दर्शन में परमाणु की स्वतंत्र सत्ता सिद्ध करने के लिए उक्त प्रकार के प्रमाण उपलब्ध नहीं होते हैं। जहाँ भट्ट अकलंकदेव ने पूज्यपादाचार्य का अनुकरण करते हुए परमाणु के स्वरूप का विवेचन किया है २२ । वहीं amanGramsan ? o movimóniam
(३) परमाणु का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए तीसरा कारण दिया है कि परमाणु की सत्ता है, क्योंकि उसका कार्य दिखलाई पड़ता है | शरीर, इन्द्रिय, महाभूत आदि परमाणु के कार्य हैं, क्योंकि परमाणुओं के संयोग से उनकी स्कन्ध रूप में रचना हुई है। कार्य बिना कारण के नहीं होता है। यह सर्वमान्य सिद्धान्त है। अतः कार्यलिंग के कारण के रूप में परमाणु का अस्तित्व सिद्ध होता है" । तत्त्वार्थाधिगम भाष्य में भी यह तर्क दिया गया है।
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उन्होंने श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में मान्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के भाष्य में दिया गया परमाणु के स्वरूप का निराकरण भी किया है जो यहाँ प्रस्तुत है
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
( १ ) परमाणु कथञ्चित् कारण और कथञ्चित कार्य स्वरूप है - तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में परमाणु कारण ही है ऐसा कहा गया है। भट्ट अकलंकदेव कहते हैं कि परमाणु को कारणमेव अर्थात् कारण ही है, ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि परमाणु एकान्तरूप से कारण ही नहीं है, बल्कि कार्य भी है। उमास्वामी ने स्वयं बतलाया है कि परमाणु स्कन्धों के टूटने से बनते हैं। अत: परमाणु कथञ्चित् कारण और कथञ्चित् कार्यस्वरूप है।
( २ ) परमाणु नित्य और अनित्य स्वरूप है - कुछ जैन, वैशेषिक और ग्रीक दार्शनिकों ने परमाणु को एकान्त रूप से नित्य ही माना है। भट्ट अकलंक कहते हैं कि परमाणु को नित्य ही मानना ठीक नहीं है, क्योंकि स्नेह आदि गुण परमाणु में विद्यमान रहने के कारण परमाणु अनित्य भी है। ये स्नेह, रस आदि गुण परमाणु में उत्पन्न और विनष्ट होते रहते हैं । परमाणु द्रव्य की अपेक्षा नित्य और स्नेह रूक्ष रस, गंध आदि गुणों के उत्पन्न विनष्ट होने की अपेक्षा अनित्य भी है २४ । इसलिए परमाणु को सर्वथा नित्य-नित्य कहना ठीक नहीं है। दूसरी बात है कि परमाणु परिणामी होते हैं । कोई भी पदार्थ अपरिमाणी नहीं होता है । इसलिए परमाणु कथञ्चित् अनित्य भी है।
(३) परमाणु सर्वथा अनादि नहीं है- परमाणु को कुछ दार्शनिक अनादि मानते हैं, अकलंकदेव ने इस कथन का खण्डन किया है। उनका कहना है कि परमाणु को सर्वथा अनादि मानने से उससे कार्य नहीं हो सकेगा। यदि अनादिकालीन परमाणु से संघात आदि कार्यों का होना माना जाएगा तो उसका स्वभाव नष्ट हो जाएगा। अतः कार्य के अभाव में वह कारण रूप भी नहीं हो सकेगा। अतः परमाणु अनादि नहीं है। दूसरी बात यह है कि अणु भेदपूर्वक होते हैं, ऐसा तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है। (४) परमाणु निरवमय है भट्ट अकलंकदेव ने भी परमाणु को निरवमय कहा है, क्योंकि उसमें एक रस, एक रूप और एक ग्रंथ होती है। अतः द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा ही अकलंकदेव परमाणु को निरवमय बतलाया है।
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भट्ट अकलंकदेव ने अनेकान्त सिद्धान्त के आधार पर परमाणु का स्वरूप प्रतिपादित किया है। परमाणु द्वयणुक आदि स्कन्धों की उत्पत्ति होती है, इसलिए परमाणु स्यात्कारण
परमाणु स्यात्कार्य है, क्योंकि स्कन्ध के भेदन करने से उत्पन्न होता है, और वह स्निग्ध, रूक्ष आदि कार्यभूत गुणों का आधार है।
परमाणु से छोटा कोई भेद नहीं है, इसलिए परमाणु स्यात् अन्त्य है। यद्यपि परमाणु में प्रदेशभेद नहीं होता है, लेकिन गुणभेद होता है, इसलिए परमाणु नान्त्य है ।
परमाणु सूक्ष्म परिगमन करता है, इसलिए वह स्यात् सूक्ष्म है। परमाणु में स्थूल कार्य करने की योग्यता होती है, अतः परमाणु स्यात् स्थूल है।
परमाणु द्रव्य रूप से नष्ट नहीं होता है, इसलिए वह स्यात् नित्य है।
परमाणु स्यात् अनित्य भी है, क्योंकि वह बन्ध और भेद रूप पर्याय को प्राप्त होता है और उसके गुणों का विपरिणमन होता है।
अप्रदेशी होने से परमाणु में एक रस, एक गन्ध, एक वर्ण और दो अविरोधी रस होते हैं, अनेक प्रदेशी स्कन्ध रूप परिणमन करने की शक्ति परमाणु में होती है, इसलिए परमाणु अनेक रसादि वाला भी है।
परमाणु कार्यलिङ्ग है, क्योंकि कार्यलिङ्ग से अनुमेय है, किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय होने से परमाणु कार्यलिङ्ग नहीं भी है।
इस प्रकार अकलंकदेव भट्ट ने अनेकान्त प्रक्रिया के द्वारा परमाणु का लक्षण निर्धारित किया है २६ । जैन- परमाणुवाद की विशेषताएँ और ग्रीक एवं वैशेषिक परमाणुवाद से उसकी तुलना
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर जैन परमाणुवाद की निम्नांकित विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं-
( १ ) जैन दर्शन में परमाणु एक भौतिक द्रव्य है - भौतिक द्रव्य जैन दर्शन में पुद्गल कहलाता है। इसका मूल स्वभाव लड़ना, गलना और मिलना है। परमाणु भी पिण्डों ( स्कन्धों ) की
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - तरह मिलते-गलते हैं। भट्ट अकलंकदेव ने परमाणु को पुद्गल माने गए हैं। परमाणु पुद्गल द्रव्य का अन्तिम भाग है, इसलिए द्रव्य सिद्ध करते हुए कहा है कि गुणों की अपेक्षा परमाणु में इसमें एक रस (अम्ल, मधुर, कटु, कषाय और तिक्त में से पुद्गलपन की सिद्धि होती है। परमाणु रूप, रस, गन्ध और स्पर्श कोई एक) एक वर्ण, (कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत में से से युक्त होते हैं। उनमें एक, दो, तीन, चार, संख्येय, असंख्येय कोई एक) एक गन्ध (सुगन्ध और दुर्गन्ध में कोई एक विरोधी) और अनन्त गुणरूप हानि-वृद्धि होती रहती है। अतः उनमें भी दो स्पर्श, (शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध, लघु, गुरु, मृदु और कठोर पूरणगलन व्यवहार मानने में कोई विरोध नहीं है। में से कोई दो) इस प्रकार परमाणु में पाँच गुण पाये जाते हैं। ये
पुदगल द्रव्य की दूसरी परिभाषा की जाती है कि पुरुष गुण परमाणुओं के कार्य में स्पष्ट दिखलाई पड़ते हैं। यहाँ ध्यातव्य अर्थात् जीव, शरीर, असहार, विषयदइंद्रिय उपकरण के रूप में
है कि जैन दर्शन में द्रव्य और गुण वैशेषिकों की तरह भिन्न न निगलते हैं गहण करते हैं वे पदाल कहलाते हैं। परमाणओं को होकर अभिन्न माने गए हैं। इसलिए परमाणु का जो प्रदेश है. वही भी जीव स्कन्ध दशा में निगलते हैं। अतः परमाणु पुद्गल द्रव्य ।
स्पर्श का और वही वर्ण का है। इसलिए वैशेषिकों का यह हैं। देवसेन ने अणु को ही वास्तव में पुद्गल द्रव्य कहा है।
कहना युक्तिसंगत नहीं है कि पृथ्वी के परमाणु में सर्वाधिक
चारों गुण; जल के परमाणुओं में रूप, रस और स्पर्श; अग्नि के ___ जैन दर्शन की तरह वैशेषिक और ग्रीक दर्शन में भी परमाणु
परमाणुओं के रूप और स्पर्श और वायु के परमाणुओं में स्पर्श भौतिक द्रव्य माना गया है।
गुण होता है। वैशेषिकों का उपर्युक्त कथन इसलिए ठीक नहीं (२) परमाणु अविभाज्य है - जैन दर्शन में परमाणु को है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर गुण से अभिन्न अप्रदेशी परमाणु अविभागी कहा गया है। जैन आचार्यों ने बताया है कि पुद्गल ही नष्ट हो जाएगा। जैनदर्शन में किन्हीं भी गुणों की न्यूनाधिकता द्रव्य का विभाजन करते-करते एक अवस्था ऐसी अवश्य आती नहीं मानी गई है। पृथ्वी आदि चारों धातुओं में परमाणु के है जब उसका विभाजन नहीं हो सकता है। यह अविभागी अंश उपर्युक्त चारों गण मुख्य और गौण रूप से रहते हैं--पृथ्वी में परमाणु कहलाता है।
स्पर्श आदि चारों गुण मुख्य रूप से जल में गंध गुण गौण रूप से ग्रीक और वैशेषिक दार्शनिकों ने भी परमाणु को जैन शेष मुख्य रूप से, अग्नि में गंध और रस की गौणता और शेष दार्शनिकों की तरह अविभाज्य माना है।
की मुख्यता और वायु में स्पर्श गुण की मुख्यता और शेष तीन
की गौणता रहती है। (३) परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म है - जैन दार्शनिकों ने बतलाया है कि पदगल द्रव्य के छह प्रकार के भेदों में परमाण सक्ष्म-सक्ष्म (६) परमाणु नित्य है - जैन, वैशेषिक एवं ग्रीक दर्शन में अर्थात् अत्यंत सूक्ष्म होता है।इससे सूक्ष्म दूसरा कोई द्रव्य नहीं है। परमाणु नित्य माना गया है। लेकिन जैन-परमाणुवाद की यह विशेषता ___ अन्य परमाणुवादियों ने भी परमाणु को अत्यन्त सूक्ष्म
है कि परमाणु की उत्पत्ति और विनाश होता है, जबकि ग्रीक और
वैशेषिक दार्शनिक परमाणु को उत्पत्ति विनाश-रहित मानते हैं। माना है।
जैन-परमाणुवाद के अनुसार द्रव्यदृष्टि से परमाण नित्य हैं, (४) परमाणु अप्रत्यक्ष है - परमाणु अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियों के द्वारा अग्राह्य होता है। ग्रीक और वैशेषिक लेकिन पर्याय की अपेक्षा वे अनित्य हैं। दार्शनिक भी जैनों की उपर्युक्त बात से सहमत हैं। लेकिन जैनों । परमाणु एक ही प्रकार के हैं - ने परमाणु को केवल ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष माना है। वैशेषिक दर्शन में भी परमाणु योगियों द्वारा प्रत्यक्ष माना गया है। ग्रीक
जैन दर्शन के अनुसार परमाणु एक ही जाति के हैं उनमें दर्शन में इस प्रकार के प्रत्यक्ष की कल्पना नहीं की गई है।
गुणभेद नहीं है। ग्रीक दार्शनिक भी यह मानते हैं कि सभी
परमाणु एक ही जड़ तत्त्व से बने हैं। लेकिन वैशेषिक परमाणवाद (५) परमाण सगुण है - जैन दर्शन और वैशेषिक दर्शन में के अनसार चार प्रकार के हैं--पृथ्वी के परमाण जल के परमाण. परमाण सगुण माना गया , इसके विपरीत ग्रीक दार्शनिकों ने वाय के परमाण और अग्नि के परमाण। जैन परमाणवाद के परमाणु को निर्गुण माना है। जैन दर्शन में परमाण के बीस गण
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - अनुसार पृथ्वी आदि चार धातुओं की उत्पत्ति एक जाति के को जड़ और अचेतन कहा गया है। ग्रीक और वैशेषिक परमाणु से हुई है।
परमाणुवादियों का भी यही मत है। परमाणु गोल है - जैन और वैशेषिक दर्शन में परमाणु परमाणु एक ही भौतिक द्रव्य है - जैन दर्शन में परमाणु का आकार गोल बताया गया है, लेकिन ग्रीक परमाणुवादियों एक ही प्रकार के भौतिक द्रव्य पुदगल के माने गए हैं। ग्रीक का मत है कि परमाणुओं का आकार निश्चित नहीं होता है। अतः परमाणवादियों का भी यही मत है। लेकिन वैशेषिक ने चार आकार की अपेक्षा उनमें भेद है।
प्रकार के भौतिक द्रव्य के परमाणु माने हैं। सभी परमाण एक ही तरह के हैं - जैन दर्शन में सभी परमाण सावयव और निरवयव है- जैन परमाणवाद परमाणुओं को एक ही तरह का माना गया है। ग्रीक दार्शनिको के अनसार परमाण सावयव और निरवयव है। परमाणु सावयव के मतानुसार परमाणुओं में मात्रागत, आकारगत तौल, स्थान,
इसलिए है कि उसके प्रदेश होते हैं। ऐसा कोई द्रव्य ही नहीं हो क्रम और बनावट की अपेक्षा भेद माना गया है। जैन दर्शन की
सकता जो सर्वथा शून्य हो। दूसरी बात यह है कि परमाणु का यह भी विशेषता है कि उसमें परमाणुओं में गुण 'मात्रा' आकार
कार्य सावयव होता है। यदि परमाणु सावयव न होता तो उसका आदि किसी भी प्रकार का भेद नहीं माना गया है।३९
कार्य भी सावयव नहीं होना चाहिए। अतः स्कन्धों को सावयव परमाण आदि मध्य और अंतहीन है - जैन दर्शन में देखकर ज्ञात होता है कि परमाणु सावयव है। परमाणुओं को आदि, मध्य और अंतहीन बतलाया गया है। ग्रीक
परमाणु निरवयव भी हैं, क्योंकि परमाणु प्रदेशी मात्र है। दर्शन में परमाणुओं को ऐसा नहीं माना गया है। ग्रीक दर्शन में कुछ
जिस प्रकार अन्य द्रव्यों के अनेक प्रदेश होते हैं, उस प्रकार परमाणुओं को छोटा और कुछ को बड़ा बतलाया गया है।
परमाणु के नहीं होते हैं। यदि परमाण के एक से अधिक प्रदेश परमाणु गतिहीन और निष्क्रिय नहीं है - जैन और
(प्रदेशप्रचय) हों तो वह परमाणु ही नहीं कहलाएगा। परमाणु ग्रीक दर्शन में परमाणु को वैशेषिक की तरह गतिहीन और के अवयव पथक-पथक नहीं पाये जाते हैं। इसलिए भी परमाण निष्क्रिय नहीं माना गया है। जैन - ग्रीक दार्शनिकों ने परमाणु को
। स्वभावत: गतिशील और सक्रिय कहा है। वैशेषिकों ने परमाणुओं में गति का कारण ईश्वर माना है जबकि जैन और ग्रीक दार्शनिकों
अतः जैन परमाणुवादियों ने अनेकान्त सिद्धान्त के द्वारा
परमाणु को सावयव और निरवयव बताया है। द्रव्यार्थिक नय को ऐसी कल्पना नहीं करनी पड़ी है।
की अपेक्षा परमाणु निरवयव है और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा परमाणु कार्य और कारणरूप है - जैन दार्शनिकों ने
सावयव है। इसके विपरीत ग्रीक और वैशेषिक परमाणुवादी परमाणु को स्कन्धों का कार्य माना है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति
दार्शनिकों ने परमाणु को निरवयव ही माना है। स्कन्धों के तोड़ने से होती है। इसी प्रकार परमाणु स्कन्धों का कारण भी है। लेकिन वैशेषिक और ग्रीक दर्शन में परमाणु केवल परमाणु काल-संख्या का भेदक है - जैन दर्शन के कारण रूप ही है कार्य रूप नहीं।
अनुसार परमाणु काल-संख्या का भेद करने वाला है। आकाश के भौतिक परमाणु आत्मा का कारण नहीं है - ग्रीक
एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक जाने में समय रूप जो काल लगता परमाणुवादियों के अनुसार आत्मा का निर्माण परमाणुओं से
है उसका भेद करने के कारण परमाणु काल अंश का कर्ता कहलाता हुआ है। लेकिन जैन और वैशेषिक परमाणुवादी ऐसा नहीं मानते
है। अन्य परमाणुवादियों ने ऐसा नहीं माना है। हैं। जैनपरमाणुवाद के अनुसार परमाणु शरीर, वचन, द्रव्य मान, . परमाणु शब्दरहित और शब्द का कारण है - जैन प्राणायान, सुख-दुःख, जीवन, मरण आदि के कारण हैं। भौतिक परमाणुवादियों ने परमाणु को शब्दरहित और शब्द का कारण परमाणु अभौतिक आत्मा के कारण नहीं हैं।
बतलाया है। परमाणु अशब्दमय इसलिए है, क्योंकि वह एक परमाणु अचेतन है - परमाण भौतिक और अचेतन प्रदशा है। शब्द स्कन्धों से उत्पन्न होता है। परमाण शब्द का अर्थात् अजीव के कारण होने के कारण जैन दर्शन में परमाणओं कारण इसलिए है क्योंकि शब्द जिन स्कन्धों के परस्पर स्पर्श से trorarivariorstandariramilaritrodrirandirdroid [१३Hindiriraminisanitariandiarinitarianbidairandaridra
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- वतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन उत्पन्न होता है, वे परमाणुओं के मिलने से बने हुए हैं। अन्य ही जघन्य गुण वाले हों। यदि उन दोनों में से कोई एक परमाणु परमाणुवादी वैशेषिकों और ग्रीक दार्शनिकों ने ऐसा नहीं माना है। जघन्य गुणवाला और दूसरा अजघन्य (उत्कृष्ट) गुण वाला होगा . जैन-परमाणुवाद के अनुसार परमाणु जघन्य और उत्कृष्ट तो बन्ध हो जाएगा। की अपेक्षा दो प्रकार होता है। पंचास्तिकाय तात्पर्यवृद्धि में तीसरे नियम के संबंध में भी दिगम्बरों की मान्यता है कि द्रव्य परमाणु और भाव परमाणु की अपेक्षा परमाणु दो प्रकार दो परमाणुओं में चाहे वे सदृश (समान जातीय ) हों या विसदृश का और भगवतीसूत्र में द्रव्य परमाणु, क्षेत्र परमाणु, काल परमाणु (असमान जातीय ) हों बन्ध तभी होगा जबकि एक की अपेक्षा और भाव परमाणु की अपेक्षा चार प्रकार का बतलाया गया है। दूसरे में स्निग्ध या रूक्षत्व दो गुण अधिक हों। तीन-चार, पाँचग्रीक और वैशेषिक परमाणुवाद में इस प्रकार के भेद दृष्टिगोचर संख्यात-असंख्यात अधिक गुण वालों के साथ कभी भी बन्ध नहीं होते हैं।
नहीं होगा। इसके विपरीत श्वेताम्बर मत में केवल एक अंश परमाणओं का परस्पर संयोग - जैन-परमाणवाद के अधिक होने पर दो परमाणुओं में बन्ध का अभाव बतलाया अनुसार दो या दो से अधिक परमाणुओं का परस्पर बन्ध
गया है। दो, तीन, चार आदि अधिक गुण होने पर दो सदृश (संयोग) होता है। यह संयोग स्वयं होता है. इसके लिए वैशेषिकों परमाणुआ मे बन्ध हो जाता है। की तरह ईश्वर जैसे शक्तिमान की कल्पना नहीं की गई है। जैन जैन-परमाणुवाद में इस शंका का भी समाधान उपलब्ध परमाणुवादियों ने परमाणु-संयोग के लिए एक रासायनिक प्रक्रिया है कि परमाणुओं का परस्पर संयोग होने के बाद किस परमाण प्रस्तुत की है, जो निम्नांकित है--
का किस में विलय हो जाता है? दूसरे शब्दों में कौन परमाणु (१) पहली बात यह है कि स्निग्ध या रूक्ष परमाणओं किसको अपने अनुरूप कर लेता है? इस विषय में उमा स्वाति का परस्पर में बन्ध होता है।
का मत है कि परमाणुओं का परस्पर बन्ध होने के बाद अधिक
गुण वाला कम गुण वाले परमाणु को अपने स्वभाव अनुरूप (२) दूसरी बात यह है कि जघन्य अर्थात् एक स्निग्ध या
कर लेता है५२। रूक्ष गुण वाले परमाणु का एक, दो, तीन आदि स्निग्ध, रूक्ष वाले परमाणु के साथ बंध नहीं होता है।
उपर्युक्त मान्यता दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों
में मान्य है। लेकिन दोनों में एक भेद यह है कि श्वेताम्बर परंपरा (३) समान गुण वाले सजातीय परमाणुओं का परस्पर
में मान्य सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम सूत्र.३ में इस विषय में एक बन्ध नहीं होता है, जैसे दो स्निग्ध गुण वाले परमाणु का दो
यह भी नियम बतलाया गया है-- स्निग्ध गुण वाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता है। इसी प्रकार रूक्ष गुणवाले परमाणुओं के बन्ध का नियम है।
(१) श्वेताम्बर मत में गुणगत-विसदृश परमाणुओं का
भी बंध माना गया है। अतः जब दो परस्पर बंध वाले परमाणुओं (४) चौथी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दो गुण अधिक
__ में गुण-गत विसदृशता रहती है तो कोई भी सम परमाणु दूसरे सजातीय अथवा विजातीय परमाणुओं का परस्पर में बन्ध हो ।
सम वाले परमाण को अपने अनुरूप कर सकता है। अकलंकभट्ट५४ जाता है। दो से कम और दो से अधिक परमाणु का परस्पर में
ने इस नियम को आगम विरुद्ध बतलाकर निराकरण किया है।
र बंध नहीं होता है।
उपर्युक्त तुलनात्मक विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दार्शनिकों उपर्युक्त परमाणुओं की परस्पर संयोग-प्रक्रिया के संबंध .
और चिन्तकों ने परमाणु का जितना सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत में जैन दर्शन की दिगंबर और श्वेताम्बर परंपराएं ५१ एकमत किया उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। वैज्ञानिकों का परमाणुवाद नहीं हैं। दिगम्बर परंपरा की मान्यता है कि यदि दो परमाणुओं में
- भी बहुत कुछ जैन-परमाणुवाद से साम्य रखता है। इस पर और से कोई एक भी परमाणु जघन्य गुण अर्थात् निकृष्ट गुणवाला है
भी तुलनात्मक शोध आवश्यक है। तो उनमें कभी भी बन्ध नहीं होगा। इसके विपरीत श्वेताम्बर मत में दो परमाणुओं में परस्पर में संयोग तभी नहीं होगा जब वे दोनों
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सन्दर्भ
१. (अ) देवेन्द्रमुनि शास्त्री : जैन दर्शन
स्वरूप और विश्लेषण, पृ. १६४-१६५ (ब) भा.द. रूपरेखा पृ. १६३
२. पोग्गल देवं उच्चइ परमाणू णिच्छएण नियमसार, गाथा - २० ३. परमाणु चेव अविभागी, कुन्दकुन्दाचार्य पंचास्तिकाय, गाथा- ७५ ४. सव्वेसिं खंघाणं जो अंतो तं वियाणं परमाणू सो सस्सो असो अविभागी मूत्तिभवो । वही, गाथा ७७ ५. आदेशमत्तमुत्तो धादुचदुकस्स कारणं जो दु ।
सो ओ परमाणू परिणामगुणो सयमसद्धो ।। णिच्चो णाणवकासो ण सावकासो पदेसदो भेत्ता । खंधाणं पियकत्तापविहत्ता कालसंसाणं । । वही, गाथा - ७८ और ८०
६. (क) एयरसं वण्णगंधं दो फासं सद्दकारणमसद्दं । संघतरिदं दव्वं परमाणूं तं वियाणेहि । वही, गाथा - ८१ (ख) एयरसरूवगंध दो फासं तं हवे सहावगुणं ...।। आ. कुंदकुंद, नियमसार, गाथा २६
अत्तादि अत्तमज्झे अत्तंतं णेव इंदिए गेजझं ।
अविभागी जं दव्वं परमाणू तं विणाणाहि । आ. कुंदकुंद, नियमसार, गाथा - २६
८. धाउचउवकस्स पुणो जं हेऊ कारणतिं तं णेयो ।
खंधाणां अवसाणो णादवो कज्ज परमाणूं। नियमसार, गाथा - २५ ९. नाणोः तत्त्वार्थसूत्र ५ / ११
१०. भेदादणुः । वही, ५ / २७
११. अनादिरमध्योऽप्रदेशी हि परमाणुः । सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, ५/११, पाँ. २५६
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
१२. कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसगन्धवर्णोद्विः स्पर्शः कार्यलिंगश्च । वही ५ / २४ पृ. २७४ १३. इति तत्राणवो बद्धाः स्कन्धास्तु बद्धा एवेति । वही । १४. अणो प्रदेशो न संततिः प्रदेशमात्रत्वात् । सर्वार्थसिद्धि, ५११, पृ. २०५
१५. किञ्च ततोऽल्पपरिमाणाभावात् ।
न ह्यणोरल्पीयानन्योस्ति । वही
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१६. प्रदिश्यन्त इति प्रदेशां परमाणवः । वही - २ / ३८, पृ. १३८ १७. प्रदेशमात्रमाविस्पर्शादिपर्याय प्रसवसामर्थ्ये नाण्यन्ते शब्धन्त इत्यणवः । वही, ५ / २५, पृ. २२०
१८. सौक्ष्म्यादात्मादयः आत्ममध्या आत्मान्ताश्च । वही, ५ / २५, पृ. २२०
१९. प्रदेशमात्रोऽणुः न खरविषाणवदप्रदेश इति । तत्त्वार्थवार्तिक, ५.११.४, पृष्ठ ४५४
२०. यथा विज्ञानमादिमध्यान्तव्यपदेशभावेऽप्यस्ति तथाऽणुरपि इति । वही, ५. ११.५, पृ. ४५४
२१. तेषामणूतामस्तित्वं कार्यलिंगत्वादवगन्तव्यम् । कार्यलिंग हि कारणम् । नाऽसत्सु परमाणुषु शरीरेन्द्रिय महाभूतादिलक्षणस्य कार्यस्य प्रादुर्भाव इति । वही, ५. २५.१५ पृ. ४९२ २२. भेदादणुः। तत्त्वार्थसूत्र, ५ / २७
२३. कारणेमेव तदन्त्यमित्यसमीक्षिताभिधानम् कथञ्चित् कार्यत्वात्। तत्त्वार्थवार्तिक, ५.२५. ५ पृ. ४९ २४. नित्य इति चायुक्तस्नेहादि भावेनानित्यत्वात् स्नेहादयो हि गुणाः परमाणौ प्रादुर्भवन्ति वियन्तिच्च ततस्तत्पूर्वकमस्यानित्यत्त्वमिति । वही, ५.२५, ७ पृ. ४९२ २५. नित्यवचनमनादि परमाण्वर्थमिति, तन्न किं कारणम् तस्यापि स्नेहादिविपरिणामाभ्युपगमात् । न हि निष्परिणामः कश्चिदर्थोस्ति । वही ५.२५.११ पृ. ४९२
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न चानादि परमाणुर्नाम कश्चिदस्ति भेदादणुः इतिवचनात् । वही ५.२५. १०, पृ. ४९२
२६. निरवयश्चाणुरत एकरसवर्णगंध: । वही, ५/२५ / १३, पृ. ४९२ २७. तत्त्वार्थवार्तिक, ५/२५/१६ पृ. ४९२-४९३
[4]
२८. वही, ५/२५/१६, पृ. ४९२-४९३
२९. तत्त्वार्थवार्तिक ५/१/२५, पृ. ४३४
३०. देवसेनः नयचक्र, गाथा १०१
३१. डब्लू. टी. स्टेटस: ग्रीक फिलोसफी पृ. ८८ ३२. वही
३३. भारतीय दर्शन, सम्पादक - डा. न. कि. देवराज, पृ. ३५३ ३४. प्रो. हरेन्द्रप्रसाद सिन्हा, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ. २६८ ३५. आचार्य अमृतचंद्र - तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति, गाथा ७८, पृ. १३३ ३६. वही
३७. डब्लु. टी. स्टेटस ग्रीक फिलोसफी, पृ. ८८
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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन दर्शन 49. द्रष्टव्य-तत्त्वार्थसूत्र, 5/33-36 - उपाध्याय बलदेव-भारतीय दर्शन, पृ. 244 50. पूज्यपादाचार्य-सर्वार्थसिद्धि, पृ. 221-229 39. प्रो. हरेन्द्रप्रसाद सिन्हा-भा.द. रूपरेखा, पृ. 268 51. डा. मोहनलाल मेहता-जैन दर्शन, पृ. 185-186 40. डब्लू. टी. स्टेटस, ग्रीक फिलोसफी, पृ. 88-80 52. बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च। तत्त्वार्थसूत्र 5/37 41. वीरसेन-धवला, पृ. 13, खण्ड 5, भाग 3, सूत्र 18, पृ. 18 53. बन्धे समाधिको पारिणामिकौ, 5/36 42. द्रष्टव्य पूज्यपाद-सर्वार्थसिद्धि, 5/11 बंधे सति समगुणस्य समगुणः पारिणामिको भवति, अधिक४३. वीरसेन धवला, पृ. 13, खण्ड 5, पु. 3, सूत्र 32, पृ. 23 गुणो हीनस्येति। वही 44. गोम्मटसार जीवप्रदीपका टीका, भा. 564, पृ. 1009 54. भट्ट अकलंक देव-तत्त्वार्थवार्तिक, 5/36/4-5 45. पंचास्तिकाय तत्त्वप्रदीपिका टीका गाथा 70, पृ. 137 ___ * लेखक के दिगंबर परंपरा से संबद्ध होने के कारण उस 46. सद्दोखधंप्पभवो खंधो परमाणुसंगसंघादो पुढेसु तेसु जायादि परंपरा के ग्रंथों के आधार पर ही परमाणुवाद का विवरण सद्दो उप्पादगो णियदो। पंचास्तिकाय, गाथा-७९ दिया। श्वेताम्बर आगमों एवं आगमेतर साहित्य में भी 47. पदमप्रभ, नियमसार, तारर्ण्यवृत्ति, गा. 25 परमाणुवाद का विस्तृत विवरण उपलब्ध है। 48. भगवतीसूत्र, 20/5/12 - सम्पादक ఆరురురురురురురురురురురురురురురువారసాదరంగురువారం సాగుతారు