________________
उन्होंने श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में मान्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के भाष्य में दिया गया परमाणु के स्वरूप का निराकरण भी किया है जो यहाँ प्रस्तुत है
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
( १ ) परमाणु कथञ्चित् कारण और कथञ्चित कार्य स्वरूप है - तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में परमाणु कारण ही है ऐसा कहा गया है। भट्ट अकलंकदेव कहते हैं कि परमाणु को कारणमेव अर्थात् कारण ही है, ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि परमाणु एकान्तरूप से कारण ही नहीं है, बल्कि कार्य भी है। उमास्वामी ने स्वयं बतलाया है कि परमाणु स्कन्धों के टूटने से बनते हैं। अत: परमाणु कथञ्चित् कारण और कथञ्चित् कार्यस्वरूप है।
( २ ) परमाणु नित्य और अनित्य स्वरूप है - कुछ जैन, वैशेषिक और ग्रीक दार्शनिकों ने परमाणु को एकान्त रूप से नित्य ही माना है। भट्ट अकलंक कहते हैं कि परमाणु को नित्य ही मानना ठीक नहीं है, क्योंकि स्नेह आदि गुण परमाणु में विद्यमान रहने के कारण परमाणु अनित्य भी है। ये स्नेह, रस आदि गुण परमाणु में उत्पन्न और विनष्ट होते रहते हैं । परमाणु द्रव्य की अपेक्षा नित्य और स्नेह रूक्ष रस, गंध आदि गुणों के उत्पन्न विनष्ट होने की अपेक्षा अनित्य भी है २४ । इसलिए परमाणु को सर्वथा नित्य-नित्य कहना ठीक नहीं है। दूसरी बात है कि परमाणु परिणामी होते हैं । कोई भी पदार्थ अपरिमाणी नहीं होता है । इसलिए परमाणु कथञ्चित् अनित्य भी है।
(३) परमाणु सर्वथा अनादि नहीं है- परमाणु को कुछ दार्शनिक अनादि मानते हैं, अकलंकदेव ने इस कथन का खण्डन किया है। उनका कहना है कि परमाणु को सर्वथा अनादि मानने से उससे कार्य नहीं हो सकेगा। यदि अनादिकालीन परमाणु से संघात आदि कार्यों का होना माना जाएगा तो उसका स्वभाव नष्ट हो जाएगा। अतः कार्य के अभाव में वह कारण रूप भी नहीं हो सकेगा। अतः परमाणु अनादि नहीं है। दूसरी बात यह है कि अणु भेदपूर्वक होते हैं, ऐसा तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है। (४) परमाणु निरवमय है भट्ट अकलंकदेव ने भी परमाणु को निरवमय कहा है, क्योंकि उसमें एक रस, एक रूप और एक ग्रंथ होती है। अतः द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा ही अकलंकदेव परमाणु को निरवमय बतलाया है।
-
ने
AMGAMGAM
Jain Education International
भट्ट अकलंकदेव ने अनेकान्त सिद्धान्त के आधार पर परमाणु का स्वरूप प्रतिपादित किया है। परमाणु द्वयणुक आदि स्कन्धों की उत्पत्ति होती है, इसलिए परमाणु स्यात्कारण
परमाणु स्यात्कार्य है, क्योंकि स्कन्ध के भेदन करने से उत्पन्न होता है, और वह स्निग्ध, रूक्ष आदि कार्यभूत गुणों का आधार है।
परमाणु से छोटा कोई भेद नहीं है, इसलिए परमाणु स्यात् अन्त्य है। यद्यपि परमाणु में प्रदेशभेद नहीं होता है, लेकिन गुणभेद होता है, इसलिए परमाणु नान्त्य है ।
परमाणु सूक्ष्म परिगमन करता है, इसलिए वह स्यात् सूक्ष्म है। परमाणु में स्थूल कार्य करने की योग्यता होती है, अतः परमाणु स्यात् स्थूल है।
परमाणु द्रव्य रूप से नष्ट नहीं होता है, इसलिए वह स्यात् नित्य है।
परमाणु स्यात् अनित्य भी है, क्योंकि वह बन्ध और भेद रूप पर्याय को प्राप्त होता है और उसके गुणों का विपरिणमन होता है।
अप्रदेशी होने से परमाणु में एक रस, एक गन्ध, एक वर्ण और दो अविरोधी रस होते हैं, अनेक प्रदेशी स्कन्ध रूप परिणमन करने की शक्ति परमाणु में होती है, इसलिए परमाणु अनेक रसादि वाला भी है।
परमाणु कार्यलिङ्ग है, क्योंकि कार्यलिङ्ग से अनुमेय है, किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय होने से परमाणु कार्यलिङ्ग नहीं भी है।
इस प्रकार अकलंकदेव भट्ट ने अनेकान्त प्रक्रिया के द्वारा परमाणु का लक्षण निर्धारित किया है २६ । जैन- परमाणुवाद की विशेषताएँ और ग्रीक एवं वैशेषिक परमाणुवाद से उसकी तुलना
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर जैन परमाणुवाद की निम्नांकित विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं-
( १ ) जैन दर्शन में परमाणु एक भौतिक द्रव्य है - भौतिक द्रव्य जैन दर्शन में पुद्गल कहलाता है। इसका मूल स्वभाव लड़ना, गलना और मिलना है। परमाणु भी पिण्डों ( स्कन्धों ) की
bimbimbybumbrid ? ? permesser
For Private Personal Use Only
টট
www.jainelibrary.org