Book Title: Jain Darshan ka Kabir Sahitya par Prabhav Author(s): Vidyavati Jain Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 3
________________ MMENT ३४४ धर्म और दर्शन वा कबीर सोच बिचारिया, दूजा कोई नांहि । आपा पर जब चीण्डियां, तब उलट समानामांहि ॥३॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० २४४ कौन विचार करत हौ पूजा । आतम राम अवर नहीं दूजा ॥ पर-आत्म जौ तत्त विचार । कहि कबीर ताकै बलिहारै ॥१३॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० ३८६ आत्मज्ञानी साधक ईंट एवं पत्थरों से बने हए जड़ भवनों में परमात्मा की खोज नहीं करते । उनकी दृष्टि से अज्ञान के कारण जगत में व्यवहार को ही सत्य माना जाता है। आत्मज्ञानी तो यही कहते हैं कि घड़े को कुम्हार ने बनाया है। ऐसा कोई नहीं कहता कि घड़ा मिट्टी का बना है, यथार्थतः घड़े में मिट्टी का ही रूप है। मिट्टी का पिंड ही धड़ा के रूप में परिवर्तित हुआ है। कुम्हार का योग तो निमित्तमात्र है। इसी प्रकार तीर्थस्वरूप जिन-प्रतिमाएं भी केवल निमित्तमात्र हैं। उनके द्वारा अपने शुद्धात्मा के सदृश परमात्मा का स्मरण अवश्य हो जाता है, किन्तु क्षेत्र या प्रतिमा या मन्दिर सभी तो अचेतन, जड़ हैं । फिर भी अज्ञानी व्यक्ति उन्हें ही सब कुछ समझ कर तीर्थाटनादि करते रहते हैं । आत्मज्ञान-प्राप्ति में नहीं लगते । वे इस रहस्य को ही नहीं समझ पाते कि उनका आत्मा ही स्वभाव से परमात्मा है और वह स्वयं उन्हीं के शरीर में विद्यमान है। योगीन्दु ने लिखा है-- देहा-देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं णिएइ। हासउ महु पडिहाइ इह सिद्ध भिक्ख भमेइ॥ -योगसार, पृ० ३८० देहा देवलि सिउ वसइ तुहुँ देवलइँ णिएहि । हासउ महु मणि अत्थि इहु सिद्ध भिक्ख भमेहि ॥ -पाहुडदोहा, पृ० ५६ सन्त कबीर भी शरीर को देवालय मानते हैं। वे कहते हैं कि लोग अज्ञानवश परमात्मा की खोज सैकड़ों कोश दूर स्थित तीर्थों एवं मन्दिरों में तो करते है, किन्तु उनके ही शरीर में जो परब्रह्म परमात्मा है, उसे वे नहीं देख पाते। इसका मूल कारण उनके अन्तर् में समाहित माया एवं भ्रम ही है। यदि वे उतार फेंकें, तो उसमें समाहित अलख निरञ्जन स्वयं ही प्रत्यक्ष हो जायेगा। वे कहते हैंहरि हिरदै रे अनत कत चाहौ, भूल भरम दुनीं कत बाहो ॥१७०॥ —कबीर ग्रन्थावली, पृ० ४१० कबीर दुनियाँ दे हुरै, सीस नवांवण जाइ । हिरदा भीतर हरि बस, तूं ताही सौं ल्यौ लाइ ॥११॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० २१७ कबीर यहु तो एक है, पड़दा दीया भेष । भरम करम सब दूरि करि, सबहीं माहिं अलेष ॥१८॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० २२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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