Book Title: Jain Darshan ka Kabir Sahitya par Prabhav Author(s): Vidyavati Jain Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 2
________________ जैन दर्शन का कबीर साहित्य पर प्रभाव ३४३ होकर उनके कितने ही विचारों को आत्मसात् कर लिया। इस प्रसंग में कबीर - साहित्य को उदाहरणस्वरूप लिया जा सकता है। कबीर के समस्त साहित्य पर उक्त कवियों का प्रभाव दिखलाना स्थानाभाव के कारण सम्भव नहीं है, फिर भी उसके कुछ महत्वपूर्ण दार्शनिक तत्वों पर प्रकाश डालने का यहाँ प्रयत्न किया जा रहा है । आत्मज्ञान शास्त्रागमों का ज्ञान तभी सफल माना जाता है जब साधक आत्मज्ञान प्राप्त कर ले। उसके प्रति अपनी रुचि जागृत कर ले, क्योंकि शुद्धात्मा का अनुभव ही मोक्षमार्ग है। शुद्धस्वरूप की अनुभूति से ही आत्मा निर्विकार होते-होते परमस्वरूप को प्राप्त कर लेता है । अतः सन्तकवियों ने कोरे अक्षरज्ञान का निरन्तर विरोध किया और एक अक्षरज्ञान का उपदेश दिया है। मुनि रामसिंह ने इस एक अक्षरज्ञान को ही 'आत्मज्ञान' की संज्ञा प्रदान की है, क्योंकि आत्मा ही आत्मा को प्रकाशित करती है। अनुभव-जन्य-ज्ञान को सर्वोपरि मानकर और उसे शास्त्रज्ञान से ऊँचा स्थान देकर निस्सन्देह ही उन्होंने सामान्य कोटि के साधकों के लिये ज्ञानानुभूति के मार्ग का एक समर्थ आत्मबल प्रदान किया है । कहा भी गया है अप्पा मिल्लिवि णाणमउ, चिति ण लग्गइ अण्णु । मरगउ जे परियाणियउ, तहु कच्चें कउ गण्णु ॥७८॥ अर्थात् जिसने मरकतमणि को प्राप्त कर लिया है, उसे कांच के टुकड़ों से क्या प्रयोजन है ? उसी तरह जिसका चित्त आत्मा में लग गया, उसको दूसरे पदार्थों की वाञ्छा नहीं रहती। आगे योगीन्दु कहते हैं - सत्य पढ़तह ते वि जड़, अप्पा जे ण मुणंति । तहि कारण ए जीव, फुडु णहु णिव्वाणु लहंति ॥५३॥ Jain Education International अप्पा अप्पर जइ पर अप्पा जइ मुणहि, तो णिव्वाणु मुणहि, तुहुँ तो संसार जसु मणि णाणु ण विपफुरद, कम्महं हेउ सो मुणि पावइ सुक्खणवि, सयलई सत्य - योगसार, पृ० ३८३ लहेहि । भमेहि ॥१३॥ श्री आनन्द कान करंतु । मुणंतु ॥ २४ ॥ --- पाहुडदोह, पृ० ८ संत कबीर भी उक्त जैन कवियों की तरह परमात्मतत्त्व को ही सर्वोत्कृष्ट मानकर आत्मविचारक को परमज्ञानी कहते हैं। जिस परमतत्त्व की खोज के लिये लोग दुनिया भर के तीर्थों के तट पर जाते हैं, वह तत्त्वरत्न तो स्वयं उन्हीं के पास विराजमान है, किन्तु ज्ञानचक्षु जागृत न होने के कारण वे उसे देख नहीं पाते । वेदपाठियों एवं कोरे अक्षरज्ञानियों को डाँट फटकार लगाते हुए वे कहते हैं कि पंडित लोग पढ़-पढ़ कर वेदज्ञान की चर्चा तो कहते हैं, किन्तु स्वयं के भीतर स्थित बड़े भारी तत्त्व - ब्रह्म या आत्मा को नहीं जानते ; इससे बढ़कर मूर्खता और क्या होगी ? वे कहते हैं— - योगसार, पृ० ३७३ कथता बकता सुरता सोई, आप विचारं सो ग्यांनी होई । जिस कारनि तट तीरथ जांही, रतन पदारथ घट ही मांहीं ॥ पढ़ि-पढ़ि पंडित वेद बखानें, भींतरि हूती बसत न जाणें ॥४२ ॥ — कबीर ग्रन्थावली, पृ० ३४२ आचार्य प्रव For Private & Personal Use Only 乐 AWTHE UPPE "APERING VAN NOW 30 乖 11 अन्थय www.jainelibrary.orgPage Navigation
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