Book Title: Jain Darshan ka Kabir Sahitya par Prabhav
Author(s): Vidyavati Jain
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ श्री आनन्द 330 www ३५० धर्म और दर्शन आगे वे इसी अद्वैतावस्था का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जैसे नमक पानी में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार चित्त निरंजन से मिल जाता है और जीव समरसता की स्थिति में पहुँच जाता है, तो किसी अन्य समाधि की आवश्यकता नहीं रह जाती। वे कहते हैं जिम लोणु विलिज्जइ पाणियहँ तिम जइ चित्त विलिज्ज । समरसि हूवइ जीवडा काइँ समाहि करिज्ज ॥१७६॥ - पाहुडदोहा, पृ० ५४ आनन्द तिलक के अनुसार भी समरसता की स्थिति में ही साधक अपनी आत्मा का दर्शन करता है । अभिनयमा आ आचार्य प्रता समरस भावें गिया अप्पा देखइ सोई ॥४०॥ कबीरदास ने भी जैन कवियों के समान ही आत्मा-परमात्मा के कहा है । इन्होंने इस सामरस्य भाव के लिये उक्त कवियों के भावों को किया है । वे कहते हैं मेरा मन मन अब सुमरं राम कू मेरा मन रामहि आहि । रामहिं हवे रहा, सीस नवाव काहि ॥ १८ ॥ — कबीर ग्रन्थावली, पृ० ११० आगे वे नमक, पानी का ही दृष्टान्त प्रस्तुत करते हैं । जिसमें मुनि रामसिंह के पद्य का पूर्ण भाव समाहित है— मन लागा उन मन सौं, उन मन मनहिं लूण बिलगा पाणियां, पाणि लूण Jain Education International - आनंदा इस मिलन को समरसता ही अपनी भाषा में व्यक्त मुनि योगीन्दु ने योगसार में आत्मा-परमात्मा के मिलन की स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जीव परमतत्व से ऐक्य की स्थिति में उस तत्व को अपने अन्दर ही प्राप्त कर लेता है । ऐसी दशा में उसे विश्व के सभी प्राणियों में उस परमतत्व की सत्ता आभासित होने लगती है, तब दोनों में कोई भेद ही नहीं रह जाता। जो ज्ञानस्वरूप परमात्मा है, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वही परमात्मा है । इसमें किसी प्रकार का विकल्प नहीं करना चाहिये । यथाजो परमप्पा सो जि हऊँ, जो हउं सो परमप्पु । इउ जाणं बिणु जोइया, अण्णु म करहु वियप्पु ||२|| -- योगसार, पृ० ३७५ ह कबीर ने भी मुनि योगीन्दु के अनुकरण पर ही उसी 'अहं' रूप 'त्वं' की स्थिति को अपने शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया है तूं तूं करता तूं भया, मुझ बारी फेरी बलि गई, जित विलग । विलग ॥१६॥ — कबीर ग्रन्थावली, पृ० १३६ में रही न हूँ । देखों For Private & Personal Use Only चित्तशुद्धि शाश्वत सुख प्राप्ति हेतु बाह्य शुद्धि की अपेक्षा अन्तर्बुद्धि अत्यावश्यक है । आत्मा यदि कलुषित है, वह राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि से युक्त है, तो बाह्याचार मात्र पाखण्ड एवं दिखावा है । अतः योगीन्दु, रामसिंह और आनन्दतिलक ने चित्तशुद्धि पर ही अधिक बल दिया है। उनका कथन तित तूं ॥६॥ — कबीर ग्रन्थावली, पृ० ११० www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12