Book Title: Jain Darshan ka Kabir Sahitya par Prabhav
Author(s): Vidyavati Jain
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 11
________________ Mwitterviwww धर्म और दर्शन . केसौं कहा बिगाड़िया, जे मूंडे सौ बार । मन को काहे न मुंडिए, जामैं विषं विकार ॥१२॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० २२१ मंड मुंडाकर पाखण्ड दिखाने वाली जैन कवियों की उक्ति कबीर साहब को इतनी अधिक रोचक एवं मार्मिक लगी कि उन्हें एक ही दोहे में उसे अपनी भाषा में व्यक्त करके सन्तोष नहीं हुआ, अतः उन्होंने 'भेष को अंग' नामक एक अलग ही प्रकरण की रचना की और अकेली दाढ़ी-मूंछ मुड़ाने वाली बात कई छन्दों में लिखनी पड़ी । उदाहरणार्थ मिलते-जुलते कुछ पद यहाँ प्रस्तुत हैं माला पहरया कुछ नहीं, भगति न आई हाथि । मायौ मूंछ मुंडाइ करि, चल्या जगत के साथि ॥१०॥ साँई सेंती साँच चलि, और सूसुध भाइ । भावे लंबे केस करि, भावै घुरडि मुडाइ ॥११॥ मूंड़ मुंडावत दिन गये, अजहूँ न मिलिया राम । राम नाम कहु क्या करें, जे मन के और काम ॥१४॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० २२१ जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं, उसी प्रकार चित्त में भी ब्रह्मविद्या और विषयविनोद दोनों एक साथ नहीं समा सकते । क्योंकि जहां ब्रह्म-विचार हैं, वहां विषय-विकार नहीं रह सकते और जहां विषय-विकार हैं, वहां ब्रह्मविचार नहीं ठहर सकता। क्योंकि दोनों परस्पर विरोधी हैं । आचार्य योगीन्दु ने कहा भी है-- जसु हरिणच्छी हिय वडए तसु णावि बंभु वियारि । एक्कहिं केम समंति वढ वे खंडा पडियारि ॥१२१॥ --पर० प्र०, पृ० १२२ ___ संत कबीर भी योगीन्दु की इसी उक्ति के अनुसार कहते हैं खंभा ऐक गइंद दोइ, क्यू करि बंध सिबारि । मानि कर तो पीव नहीं, पीव तौ मानि निवारि ॥४२॥ उक्त पद्य में खम्भा, गयंद, पीव, एवं मानी ये चार पद विचारणीय हैं। कबीर चंकि प्रतीक-पद्धति के महाकवि माने गये हैं, इसलिये उन्होंने 'खंभे' को 'चित्त', मान एवं विषय-वासना को गइंद एवं 'आराध्य' को 'पीव' की संज्ञा दी है । कबीर ने यद्यपि योगीन्दु की पूर्ण शब्दावली को नहीं लिया, किन्तु भाव-भूमि दोनों की एक है। शास्त्रज्ञान समीक्षा जिस प्रकार बाह्याचार से मुक्ति सम्भव नहीं, उसी प्रकार कोरे ग्रन्थज्ञान से भी आत्म-तत्व की उपलब्धि सम्भव नहीं। गूढ़-चिन्तन के पश्चात् उपरोक्त कवियों ने यही निष्कर्ष निकाला कि शास्त्रीय-ज्ञान में प्रवीण व्यक्ति निश्चय ही आत्मलाभ नहीं कर सकता । यथार्थतः उसे स्वसंवेद्यज्ञान की परम आवश्यकता है। प्रतीत होता है कि प्रकाश और ज्ञान के उक्त शोधियों ने शास्त्रज्ञान का विरोध इसलिए किया था, क्योंकि शास्त्रज्ञान से ही संकीर्णताओं, रूढ़ियों तथा परम्पराओं को प्रश्रय मिलता है। विभिन्न मतों के ग्रन्थों के कारण ही मतभेद होते हैं और साम्प्रदायिकता बढ़ती है । यदि एक ओर कोरे शास्त्रज्ञान को त्याज्य ठहराकर इन जैन कवियों ने जन-जीवन के लिये ज्ञान का सहज द्वार खोल दिया था, तो दूसरी ओर पण्डितों और पुरोहितों के ऊपर उन्होंने यह सीधा प्रहार भी किया था कि उनके शास्त्र पाखण्डों से परिपूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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