Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 7
________________ 50406003 प्रस्तुति मैत्री का सिद्धान्त आचार के क्षेत्र में प्रतिपादित हुआ है। विचार के क्षेत्र में भी उसका मूल्य कम नहीं है। अनेकान्त मूलत: मैत्री का वैचारिक सिद्धान्त है। विरोध अस्तित्व का सार्वभौम नियम है। ऐसा कोई भी अस्तित्व नहीं है, जिसमें विरोधी युगल एक साथ न रहते हों। एक भाषा में अस्तित्व को विरोधी युगलों का समवाय कहा जा सकता है। अनेकान्त ने इस सत्य का दर्शन किया। विरोधी युगलों के सह-अस्तित्व को भाषा अथवा परिभाषा दी। उनमें रहे हुए समन्वय के सूत्र खोजे । अनेकान्त जैन दर्शन का व्याख्या सूत्र बन गया। अनेकान्त को समझे बिना जैन दर्शन को नहीं समझा जा सकता। कुछ दार्शनिकों ने प्रश्न उठाया-अनेकान्त सापेक्ष दर्शन है। जैन दर्शन में निरपेक्ष सत्य को स्वीकृति नहीं है। निरपेक्ष के बिना सापेक्ष कैसे होगा? यह प्रश्न इसीलिए उठा कि अनेकान्त का स्वभाव हृदयंगम नहीं हुआ। अनेकान्त का भी अनेकान्त है । यह बात स्पष्ट होती तो यह प्रश्न नहीं उठता । प्रत्येक नय एकान्तवाद है। प्रत्येक नय का मत एक-दूसरे से भिन्न है। अनेकान्त का अर्थ है-अभिन्नता को स्वीकार करना और भिन्नता में सह-अस्तित्व की संभावना को खोजना । प्रत्येक द्रव्य का अस्तित्व निरपेक्ष है । आत्मा असंख्य प्रदेशात्मक अस्तित्व है । वह निरपेक्ष सत्ता है। अस्तित्व की दृष्टि से आत्मा और पुद्गल- दोनों समान हैं । यह अनेकान्त का सापेक्ष दृष्टिकोण है। इस निरपेक्ष और सापेक्ष दृष्टिकोण के समन्वय के संदर्भ में प्रस्तुत पुस्तक को पढ़ा जाए। दृष्टियां स्पष्ट होंगी। जैन दर्शन को नये संदर्भ में समझने का अवसर मिलेगा। प्रस्तुत पुस्तक के दो खण्ड हैं। पहला अनेकान्त और दूसरा जैन दर्शन । पहला लिखा हुआ और दूसरा बोला हुआ। फिर भी भाषा के भेद में विचार का भेद नहीं मिलेगा। प्रस्तुत पुस्तक के संपादन में मुनि दुलहराजजी तथा मुनि धनंजयकुमारजी ने निष्ठापूर्वक श्रम किया है। आचार्य महाप्रज्ञ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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