Book Title: Jain Agamo me Swadhyaya
Author(s): Hastimal Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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Page 4
________________ • २६० से शास्त्र ज्ञान चलता रहेगा । जैसे कहा है – पंचाहें ठाणेहिं सुत्तंवाएज्जा, तंजहा १. संग्रहट्टयाए, २, उवग्गहट्टयाए, ३, निज्जरट्टयाए, ४. सुत्तेवामे पज्जवजाए भविस्सए - ५. सुत्तस्सवा प्रवोच्छित्तिनयट्टयाए । ठा० ।। व्यक्तित्व एवं कृतित्व सूत्र सीखने के भी पाँच कारण बतलाये हैं, जैसे - १. ज्ञान की वृद्धि के लिए २. सम्यग् दर्शन की शुद्धि और रक्षा के लिए ३. शास्त्र ज्ञान से चारित्र की निर्मलता रहेगी, इसलिए सूत्र सीखें ४. मिथ्यातत्त्व आदि के अभिनिवेश से छुटकारा पाने के लिए अर्थात् मिथ्यात्व प्रादि दोषों से मुक्त होने के लिए ५. यथावस्थित भावों का ज्ञान करने के लिए सूत्र सीखना चाहिए। कहा भी है- पंचहि - ठाणेहि सुत्तं सिक्खेज्जा, तंजहा - १ णाणट्टयाए - २ दंसणट्टयाए - ३ चरितट्टयाए ४ वग्गहविमोयणट्टयाए - ५ ग्रहवत्थंवा भाए जाणिस्सामित्ति कट्टू । स्वाध्याय के लिए आचार्यों ने अन्य हेतु भी दिये हैं- १. बुद्धि की निर्मलता, २ . प्रशस्त अध्यवसाय की प्राप्ति. ३. शासन रक्षा, ४, संशय निवृत्ति, ५. परवादियों के शंका का निरसन, ६. त्याग तप की वृद्धि व अतिचार शुद्धि आदि के लिए स्वाध्याय किया जाता है - तत्त्वार्थ राजवार्तिक । स्वाध्याय से लाभ : स्वाध्याय से ज्ञानावरणी कर्म का क्षय होता है । वाचना से ज्ञानावरण यदि कर्म की निर्जरा होती है और सूत्र की वाचना से प्रशतना टलती है । विधिपूर्वक शास्त्र की वाचना देने से श्रुतयान रूप तीर्थ धर्म का अवलम्बन करने से महती कर्म निर्जरा और महान् संसार का अन्त होता है । वाचना करने वाले को पृच्छना करनी पड़ती है । पृच्छना करने से सूत्र अर्थ और तदुभय त्रुटियाँ दूर होती और सूत्रादि की शुद्धि होती है तथा अध्ययन विषय की विविध आकांक्षाएँ, जो मन को अस्थिर करती हैं, कांक्षा मोहनीय के नाश से नष्ट हो जाती हैं । स्थिरीकरण के लिए पठित विषय का परावर्तन किया जाता है । परावर्तन से भूले हुए अक्षर याद होते और विशेष प्रकार के क्षयोपशम से पदानुसारी आदि व्यंजनलब्धि प्राप्त होती है । चितनरूप अनुप्रेक्षा भी स्वाध्याय है । चिन्तन से आयुकर्म को छोड़ सात कर्म प्रकृतियों को दृढ़ बन्धन से शिथिल बन्धन वाली करता है, दोर्घकाल की स्थिति को छोटी करता है और तीव्र रस को घटाकर मन्दरस करता है । बहुप्रदेशी प्रकृतियों को अल्प प्रदेश वाली कर देता एवं प्रयुकर्म कभी बांधता, कभी नहीं भी बांधता है । असात और कर्कश वेदनीय कर्म का उपचय नहीं करता । चिन्तन करने वाला अनादि-अनन्त, दीर्घमार्ग वाले चतुर्गत्तिक संसार कान्तार को अल्प समय में ही पार कर लेता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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