Book Title: Jain Agamo me Swadhyaya Author(s): Hastimal Acharya Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 6
________________ २६२ · पूर्वक श्रुत का आराधन करने के लिए आठ आचार बताये गये हैं - १. जिस शास्त्र का जो काल हो, उसको उसी समय पढ़ना कालाचार है । २. विनयपूर्वक गुरु को वंदन कर पढ़ना, विनयाचार है । ३. शास्त्र एवं ज्ञानदाता के प्रति बहुमान होना, बहुमानाचार है । ४. तप-प्रायंबिल या नीबी करके पढ़ना, उपधान आचार है । ५. शब्दों में ह्रस्व-दीर्घादि का शुद्ध प्राचरण करना, व्यंजनाचार हैं । ६. सम्यग् अर्थ की विचारणा, अर्थाचार है । ७. मूल एवं अर्थ दोनों का सम्यक् उच्चारण और प्ररूपण करना, तदुभयाचार है । कल्याणार्थियों को अकाल और अस्वाध्याय को बचाकर विधिपूर्वक स्वाध्याय करना चाहिए, यह उभय लोक में मंगलकारी है । व्यक्तित्व एवं कृतित्व श्रावक समाज और स्वाध्याय : श्रमण एवं श्रमणियों में तो आज भी शास्त्र वाचन होता है । हाँ, पूर्व की अपेक्षा अवश्य इस ओर रुचि घटी है और कई तो वर्तमान पत्र एवं साहित्य को ही स्वाध्याय मान चलते हैं, परन्तु श्रावक समाज इस ओर से प्रायः सर्वथा ही दूर है । बहुत से लोगों की यह धारणा है कि श्रावक को शास्त्र नहीं पढ़ना चाहिये और धर्म ग्रन्थ तथा सिद्धान्त विचार का पढ़ना-पढ़ाना साधुयों का काम है । ठीक है उनकी धारणा को भी आधार है, परन्तु उससे श्रावकों की सूत्र पाठ का निषेध नहीं होता । शास्त्र में सूत्र वाचना के लिए अधिकारी की चर्चा की गई है - वहाँ साधु-साध्वियों की अपेक्षा ही विचार किया है और गुरु शिष्य परम्परा से सुत्तागमे का अध्ययन साधु ही कर सकते थे । Jain Educationa International श्रावक लोग अधिकांश अर्थरूप आगम के अभ्यासी होते और गुरुमुख से सुनकर वे तत्त्व ज्ञान एवं सिद्धान्त के प्रमुख स्थानों को धारण कर लेते थे । सिलसिले से किसी शास्त्र को वाचने व पढ़ने का उन्हें अवसर नहीं मिलता । फिर भी विशिष्ट धारणा व मेघा शक्ति वाले श्रावक-श्राविका मूल व अर्थ के अच्छे जानकार हुआ करते थे । शास्त्र में उनके परिचय में 'लठ्ठा, गहियठ्ठा, पुच्छियठ्ठा, विणिच्छियठ्ठा' आदि कहा है, श्रावक परमार्थ को ग्रहण करने वाले और तत्त्वार्थ का निश्चय करने वाले होते । फिर उनको 'अभिगय, जीवा जीवा ...बन्ध मोक्ख कुसला' आदि पद से तत्त्वज्ञान में कुशल भी बताया है ।' भगवती सूत्र में वर्णित तुंगिया नगरी के श्रावक, राजगृदी का मंडूक और राजकुमारी जयन्ती आदि के उल्लेख स्पष्ट श्रावक-श्राविका समाज में शास्त्रीय ज्ञान को प्रमाणित करते हैं । पालित श्राबक के लिए तो स्वयं शास्त्रकार ने निग्रन्थ प्रवचन में 'कोविद' कहकर शास्त्र ज्ञान का पंडित बतलाया है । फिर ज्ञाता धर्म कथा में सुबुद्धि प्रधान का वर्णन आता है, उसने पुद्गल परिणति को समझा कर राजा जित शत्रु को जिन धर्मानुगामी बना दिया था । शास्त्र की मौलिक जान For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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