Book Title: Jain Agamo me Swadhyaya Author(s): Hastimal Acharya Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 3
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • २८९ स्वाध्याय और समाधि : चार प्रकार की समाधियों में श्रुत भी दूसरे नम्वर का समाधि-स्थान माना गया है। जैसे 'चत्ताणि विणय समाहिट्टाणा पन्नता । तंजहा-विणयसमाही, सुयसमाही सव समाही, आयार'समाही । शास्त्र ज्ञान के अध्ययन और परिशीलन से आत्मा को शारीरिक एवं मानसिक समाधि की प्राप्ति होती है । अतः अनेक प्रकार के समाधि स्थानों में 'श्रुत स्वाध्याय' को भी समाधि का एक कारण माना है। श्रुतवान ही तप और प्राचार की सम्यक् साधना कर पाता है। इसलिए 'श्रुत समाधि' के पश्चात् 'तप-समाधि' और 'आचार-समाधि' का उल्लेख किया गया है। श्रुत समाधि में जिज्ञासु शिष्य ने विनयपूर्वक गुरु से पृच्छा की कि शास्त्र क्यों पढ़े जायं ? और उनसे कौनसी समिति प्राप्त होती है ? उत्तर में प्राचार्य ने कहा-(१) श्रुत ज्ञान का लाभ होगा, इसलिए पढ़ो। (२) चित्त की चंचलता दूर होकर एकाग्रता प्राप्त होगी, इसलिए पढ़ो। (३) आत्मा को धर्म में स्थिर कर सकोगे, इसलिए पढ़ो। (४) स्वयं स्थिर होने पर दूसरों को स्थिर कर सकोगे, इसलिए पढ़ो । एकाग्रता प्राप्त होना ही समाधि है। तप में स्वाध्याय का स्थान : स्वाध्याय का मोक्ष मार्ग में प्रमुख स्थान है । श्रुताराधन का स्थान ज्ञान और तपस्या दोनों में आता है । बारह प्रकार के तप में स्वाध्याय चौथा अन्तरंग तप है, स्वाध्याय के द्वारा मन वौर वाणी का तप होता है। स्वाध्याय परमं तपः-मन के विकारों को शमन करने और धर्म-ध्यान का आलम्बन होने से स्वाध्याय परम तप है । अनशन आदि बाह्य तप शरीर से लक्षित होते हैं, पर स्वाध्याय अन्तरंग तप होने से लक्षित नहीं होता, अतः यह गुप्त तप है। शास्त्र का वाचन और शिक्षण क्यों ? ___ 'स्थाणांग सूत्र' में शास्त्र की वाचना क्यों करना और शिष्य को शास्त्र का शिक्षण क्यों लेना, इस पर विचार किया है । सूत्र की वाचना के पाँच कारण बतलाये हैं-(१) वाचना से श्रुत का संग्रह होगा। (२) शिष्य का उपकार होगा और श्रुतज्ञान से उपकृत होकर शिष्य भी प्रेम से सेवा करेगा। (३) ज्ञान के प्रतिबंधक कर्मों की श्रुत पाठ से निर्जरा होगी। अभ्यस्त श्रुत विशेष स्थिर होगा। (५) वाचना से सूत्र का विच्छेद भी नहीं होगा और अविच्छिन्न परम्परा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8