Book Title: Jain Agamo ke Bhashya aur Bhashyakar
Author(s): Pushkar Muni
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf

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Page 2
________________ ४४४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 ०००००००००००० पुण्या ITHILI .... FEWANA MINIK JITITIC उट्टङ्कित है-"ओ३म् देवधर्मोयं निवृतिकुले जिनभद्र वाचनाचार्यस्य" एवं "ओ३म् निवृतिकुले जिनभद्र वाचना चार्यस्य ।" इन लेखों में जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण को निवृत्ति कुल का बताया है और साथ ही उन्हें वाचनाचार्य भी लिखा है । पं० दलसुखभाई मालवणिया का अभिमत है कि "प्रारम्भ में 'वाचक' शब्द शास्त्र विशारद के लिए प्रचलित था परन्तु जब वाचकों में क्षमाश्रमणों की संख्या बढ़ती गई तब 'क्षमा श्रमण' शब्द भी वाचक के पर्याय के रूप में विश्र त हो गया । अथवा 'क्षमाश्रमण' शब्द आवश्यक सूत्र के सामान्य गुरु के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है अतः संभव है कि शिष्य विद्यागुरु को क्षमाश्रमण के नाम से भी सम्बोधित करते रहे हों, अतः क्षमाश्रमण और वाचक ये पर्यायवाची बन गये । जैन समाज में जब वादियों की प्रतिष्ठा स्थापित हुई तब शास्त्र विशारद के कारण वाचकों को 'वादी' कहा होगा और कालान्तर में वादी वाचक का ही पर्यायवाची बन गया। आचार्य सिद्धसेन को शास्त्र विशारद होने के कारण दिवाकर की पदवी दी गई, अत: वाचक का पर्यायवाची दिवाकर भी है। आचार्य जिनभद्र का युग क्षमाश्रमणों का युग था अतः उनके पश्चात् के लेखकों ने उनके लिए वाचनाचार्य के स्थान पर क्षमाश्रमण शब्द का प्रयोग किया हो।"3 इस प्रकार वाचक वाचनाचार्य, क्षमाश्रमण आदि शब्द एक ही अर्थ के सूचक हैं । जिनभद्र क्षमाश्रमण निवृत्ति कुल के थे। निवृत्ति कुल का उद्भव कैसे हुआ? इस सम्बन्ध में पट्टावलियों में लिखा है कि भगवान महावीर के सत्तरहवें पट्ट पर आचार्य वज्रसेन आसीन हुए। उनके पास जिनदत्त (जिनदास) के चार पूत्रों ने आहती दीक्षा ग्रहण की। उनके नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर ये चार नाम थे। उन्हीं के नाम पर चार मुख्य कुल हुए।४। उपर्युक्त तथ्यों के अतिरिक्त जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण के जीवन के सम्बन्ध में कोई सामग्री प्राप्त नहीं होती। सिद्धसेन गणी ने जीतकल्प चूणि में जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण के गुणों का उल्लेख इस प्रकार किया है "जो अनुयोग धर, युगप्रधान, प्रधान ज्ञानियों से बहुमत, सर्वत्र ति और शास्त्र में कुशल तथा दर्शन-ज्ञानोपयोग के मार्ग-दर्शक हैं । जिस प्रकार कमल की मधुर सौरभ से आकर्षित होकर भ्रमर कमल की उपासना करते हैं उसी प्रकार ज्ञानरूप मकरंद के पिपासु मुनि जिनके मुख रूप निर्झर से प्रवाहित ज्ञानरूप अमृत का सर्वदा सेवन करते हैं । स्व-समय तथा पर-समय के आगम, लिपि, गणित, छन्द और शब्दशास्त्रों पर किये गए व्याख्यानों से निर्मित जिनका अनुपम यशपटह दसों दिशाओं में बज रहा है । जिन्होंने अपनी अनुपम बुद्धि के प्रभाव से ज्ञान, ज्ञानी, हेतु, प्रमाण तथा गणधरवाद का सविशेष विवेचन विशेषावश्यक में ग्रन्थ-निबद्ध किया है। जिन्होंने छेदसूत्रों के अर्थ के आधार पर पुरुष विशेष के पृथक्करण के अनुसार प्रायश्चित की विधि का विधान करने वाले जीतकल्प सूत्र की रचना की है। ऐसे पर-समय के सिद्धान्तों में निपुण संयमशील श्रमणों के मार्ग के अनुगामी और क्षमाश्रमणों में निधानभूत जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण को नमस्कार हो। इस वर्णन से यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि जिनभद्रगणी आगमों के गंभीर रहस्यों के ज्ञाता थे । परवर्ती अन्य विद्वान आचार्यों ने भी उनके लिए अनेक विशेषणों का प्रयोग किया है। पुरातत्त्ववेत्ता मुनि जिनविजय जी ने जैसलमेर भण्डार से प्राप्त विशेषावश्यक भाष्य की प्रति के अन्त में जो दो गाथाएं हैं उसके आधार से भाष्य का रचनाकाल विक्रम सं०६६६ माना है। उन गाथाओं का अर्थ है शक संवत ५३१ (विक्रम सं०६६६) में बलभी में जिस समय शीलादित्य राज्य करता था, उस समय चैत्र शुक्ला पूर्णिमा, बुधवार और स्वाति नक्षत्र में विशेषावश्यक भाष्य की रचना पूर्ण हुई। पं० दलसुख भाई मालवणिया मुनि जिनविजय जी के कथन से सहमत नहीं हैं । उनका अभिमत है कि उपर्युक्त गाथाओं में रचना विषयक किसी भी प्रकार का उल्लेख नहीं हुआ है । खण्डित अक्षरों को यदि हम किसी मन्दिर विशेष का नाम मान लें तो इन गाथाओं में कोई क्रियापद नहीं रहता । ऐसी स्थिति में इसकी रचना शक सं० ५३१ में हुई, यह निश्चय पूर्वक नहीं कह सकते । अधिक संभव तो यही लगता है कि उस समय यह प्रति लिखकर मन्दिर को समर्पित की गई हो। चूंकि ये गाथाएँ केवल जैसलमेर की प्रति में ही हैं, अन्य किसी भी प्राचीन प्रतियों में नहीं है । यदि ये गाथाएँ मूलभाष्य की ही होती तो सभी में होनी चाहिए थी। दूसरी बात ये गाथाएं रचनाकाल सूचक हैं ऐसा माना जाय तो यह भी मानना होगा कि इन गाथाओं की रचना जिनभद्र ने की, तो इन गाथाओं की टीकाएँ भी मिलनी SRAR 20000 VS CUP Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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