Book Title: Jain Agamo ke Bhashya aur Bhashyakar
Author(s): Pushkar Muni
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf

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Page 6
________________ ४४८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 ०००००००००००० पापा MTNL WADIMAILY माष्य में कहीं-कहीं पर सुभाषित भी दिखाई देते हैं कत्थ व न जलइ अग्गी, कत्थ व चंदो न पायडो होइ । कत्थ वरलक्खागधरा, न पायडा होति सप्पुरिसा ।। उदए न जलइ अग्गी, अब्भच्छिन्नो न दीसइ चंदो। मुक्खेसु महाभागा, बिज्जापूरिसो न मायंति ।। अग्नि कहाँ प्रकाश मान नहीं होती? चन्द्रमा कहाँ प्रकाश नहीं करता ? शुभ लक्षण के धारक सत्पुरुष कहाँ प्रकट नहीं होते ? अग्नि जल में बुझ जाती है, चन्द्रमा मेघाच्छादित आकाश में दिखाई नहीं देता और विद्या सम्पन्न पुरुष मूों की सभा में शोभा को प्राप्त नहीं होते । वर्षाकाल में गमन करने से वृक्ष की शाखा आदि का सिर पर गिर जाने से, कीचड़ से पैर फिसल जाने, नदी में बह जाने, कांटा लग जाने आदि का भय रहता है, इसलिए निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को वर्षाकाल में गमन करने का निषेध है । विरुद्धराज्य में संक्रमण करने से बन्द बन्ध, आदि का भय रहता है। रात्रि या विकाल में बिहार करने से गड्डे आदि में गिरने, साँप, कुत्ते से काटे जाने, बैल से मारे जाने, या काँटा आदि के लग जाने का भय रहता है। प्रस्तुत प्रसंग पर कालोदाई नाम के भिक्ष की कथा दी है। वह भिक्ष रात्रि के समय किसी ब्राह्मणी के घर भिक्षा मांगने गया था। वह गर्भवती थी । अन्धेरे से ब्राह्मणी को कील दिखाई नहीं दी, कील पर गिर जाने से उसकी मृत्यु हो गई। सदा जागृत रहने का उपदेश दिया है कि हे मनुष्यो ! सदा जागृत रहो । जागृत मनुष्य की बुद्धि का विकास होता है जो जागता है वह सदा धन्य है जागरह नरा ! णिच्चं, जागरमाणस्स बढ़ते बुद्धि । जो सुवति ण सो धण्णं, जो जग्गति सो सया धण्णो॥ शील और लज्जा को स्त्रियों का भूषण कहा है। हार आदि आभूष) से स्त्री का शरीर विभूषित नहीं होता । उसका भूषण तो शील और लज्जा ही है । समा में संस्कार युक्त असाधुवादिनी वाणी प्रशस्त नहीं कही जा सकती। ण भूसणं भूसयते सरीरं, विभूसणं सीलहिरी य इथिए। गिरा हि संखारजुया वि संसती, अपेसला होइ असाहुवादिणी। जिन शासन का सार बताते हुए लिखा है जिस बात की अपने लिए इच्छा करते हो, उसकी दूसरे के लिए भी इच्छा करो, और जो बात अपने लिए नहीं चाहते हो उसे दूसरे के लिए भी न चाहो-यही जिन शासन है जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणयं ।। विस्तार भय से भाष्य में आई हुई सभी बातों पर प्रकाश नहीं डाल सके हैं। किन्तु भारतीय साहित्य में प्रस्तुत भाष्य का महत्त्वपूर्ण व अनूठा स्थान है। पञ्चकल्प महाभाष्य . आचार्य संघदासगणी की द्वितीय कृति पञ्चकल्प महाभाष्य है, जो पञ्चकल्प नियुक्ति के विवेचन के रूप में है। इसमें कुल २६५५ गाथाएँ हैं, जिसमें भाष्य की २५७४ गाथाएँ हैं । इसमें पाँच प्रकार के कल्प का संक्षिप्त वर्णन है, फिर उसके छह, सात, दस, बीस, और बयालीस भेद किये गये हैं। पहला कल्प-मनुज जीव कल्प छह प्रकार का है-प्रव्राजन, मुंडन, शिक्षण उपस्थ, भोग, और संवसन, । जाति, कुल, रूप और विनय सम्पन्न व्यक्ति ही प्रव्रज्या के योग्य है । बाल, वृद्ध, नपुंसक, जड़, क्लीब, रोगी स्तेन, राजापकारी, उन्मन्त, अदर्शी, दास दुष्ट, मूढ़, अज्ञानी, जुंगित, MOOR 400088 RE TMETODE उजधGaltiya

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