Book Title: Jain Agamik Vyakhya Sahitya me Nari ki Sthiti ka Mulyankan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 5
________________ खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि १२३ क्रोध की भांति दुर्रक्ष्य, दारुण दुख दायिका, घृणा की पात्र, दुष्टोपचारा, चपला, अविश्वसनीया, एक पुरुष से बंधकर न रहने वाली, यौवनावस्था में कष्ट से रक्षणीय, बाल्यावस्था में दुःख से पाल्य, उद्वेगशीला, कर्कशा, दारुण वैर क। कारण, रूप स्वभाव गर्विता, भुजंग के समान कुटिल गति बाली, दुष्ट घोड़े के पदचिह्न से युक्त महाजंगल की भाँति दुर्गम्य, कुल, स्वजन और मित्रों से विग्रह कराने वाली, परदोष प्रकाशिका, कृतघ्ना, वीर्यनाशिका, शूकरवत् जिस प्रकार शूकर खाद्य-पदार्थ को एकान्त मे ले जाकर खाता है उसी प्रकार भोग हेतु पुरुष को एकान्त में ले जाने वाली, अस्थिर स्वभाव वाली, जिस प्रकार अग्निपात्र का मुख आरम्भ में रक्त हो जाता है किन्तु अन्ततोगत्वा काला हो जाता है उसी प्रकार नारी आरम्भ में राग उत्पन्न करती है परन्तु अन्ततः उससे विरक्ति ही उत्पन्न होती है, पुरुषों के मैत्री-विनाशादि की जड़, बिना रस्सी की पाग, काष्ठरहित वन की भांति पाप करके पश्चात्ताप में जलती नहीं है । कुत्सित कार्य में सदैव तत्पर, अधार्मिक कृत्यों की वैतरणी, असाध्य व्याधि, वियोग पर तीव्र दुःखी न होने वाली, रोगरहित उपसर्ग या पीड़ा, रतिमान के लिए मनोभ्रम कारण, शरीर-व्यापी दाह का कारण, बिना बादल बिजली के समान, बिना जल के प्रवाहमान और समुद्रवेग की भाँति नियन्त्रण से परे कही गई है । तन्दुल वैचारिक की वृत्ति में इनमें से अधिकांश गुणों के सम्बन्ध में एक-एक कथा भी दी गई।1 उत्तराध्ययनचूणि में भी स्त्री को समुद्र की तरंग के समान चपल स्वभाव वाली, सन्ध्याकालीन आभा के समान क्षणिक प्रेम वाली और अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर पुरुष का परित्याग कर देने वालो कहा गया है। आवश्यक भाष्य और निशीथचूर्णी में भी नारी के चपल स्वभाव और शिथिल चरित्र का उल्लेख हुआ है। निशीथचूणि में यह भी कहा गया है कि स्त्रियाँ थोड़े से उपहारों से ही वशीभूत की जा सकती हैं और पुरुषों को विचलित करने में सक्षम होती हैं । आचारांगचूणि एवं वृत्ति में उसे शीतपरिषह कहा गया है अर्थात् अनुकूल लगते हुए भी त्रासदायी होती है। सूत्रकृतांग में कहा गया है कि स्त्रियाँ पापकर्म नहीं करने का वचन देकर भी पुनः अपकार्य में लग जाती हैं। इसकी टीका में टीकाकार ने कामशास्त्र का उदाहरण देकर कहा है कि जैसे दर्पण पर पड़ी हुई छाया दुर्ग्राह्य होती है वैसे ही स्त्रियों के हृदय दुग्राह्य होते हैं । पर्वत के दुर्गम मार्ग के समान १. तन्दुल वैचारिक सावरि सूत्र १९, (देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार ग्रन्थमाला) २. समुद्रवीचीचपलस्वभावा: संध्याभ्रमरेखा व मुहूर्तरागाः । __ स्त्रियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थकं निपीडितालक्तकवद् त्यजन्ति । उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ६५, ऋषभदेवजी, केशरीमल संस्था रत्नपुर (रतलाम) १६३३ ई० ३. पग इत्ति सभावो। स्वभावेन च इत्थी अल्पसत्वा भवति । -निशीथचूणि, भाग ३, पृ० ५८४, आगरा .. १६५७-५८ । ४. सा य अप्पसत्तत्तणओ जेण वातेण वत्थमादिणा | अप्पेणावि लोभिज्जति, दाणलोभिया य अकज्ज पि करोति ।। -वही, भाग ३, पृ० ५८४ । ५. आचरांगचूणि पृ० ३१५ ६. एवं पि ता वदित्तावि अदुवा कम्मुणा अवकरेंति । -सूत्रकृतांग, १/४/२३ ७. दुग्रहियं हृदयं यथैव वदनं यदर्पणान्तर्गतम्, भावः पर्वतमार्गदुर्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते । -सूत्रकृतांग विवरण १/४/२३, प्र० सेठ छगनलाल, मूथा बंगलौर १९३० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education InternationalPage Navigation
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