Book Title: Jain Agamik Vyakhya Sahitya me Nari ki Sthiti ka Mulyankan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

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Page 23
________________ खन्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि उसके आधार पर कहा जा सकता है कि प्रागैतिहासिक काल में नारी को समुचित शिक्षा प्रदान की जाती थी। अपेक्षाकृत परवर्ती आगम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, आवश्यकचूर्णि व आदिपुराण आदि में उल्लेख है कि ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को गणित और लिपि विज्ञान की शिक्षा दी थी। मात्र यही नहीं ज्ञाताधर्मकथा और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में स्त्री की चौंसठ कलाओं का उल्लेख मिलता है यद्यपि यहाँ इनके नाम नहीं दिये गये हैं। सर्वप्रथम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की टीका में इनका विवरण उपलब्ध होता है। आश्चर्यजनक यह है कि जहाँ ज्ञाताधर्मकथा में पुरुष की ७२ कलाओं का वर्णन है वहाँ नारी की चौंसठ कला होने का निर्देशमात्र है। फिर भी इतना निश्चित है कि भारतीय समाज में यह अवधारणा बन चुकी थी । ज्ञाताधर्मकथा में देवदत्ता गणिका को चौंसठ कलाओं में पण्डित, चौंसठ गणिका गुण (कामकला) से उपपेत, उनतीस प्रकार से रमण करने में प्रवीण, इक्कीस रतिगुणों में प्रधान, बत्तीस पुरुषोपचार में कुशल, नवांगसूत्र प्रतिबोधित और अठारह देशी भाषाओं में विशारद कहा है। इन सूचियों को देखकर स्पष्ट रूप से ऐसा लगता है कि स्त्रियों को उनकी प्रकृति और दायित्व के अनुसार भाषा, गणित, लेखनकला आदि के साथ-साथ स्त्रियोचित नृत्य, संगीत और ललितकलाओं तथा पाक-शास्त्र आदि में शिक्षित किया जाता था। यद्यपि आगम और आगमिक व्याख्याएँ इस सम्बन्ध में स्पष्ट नहीं हैं कि ये शिक्षा उन्हें घर पर ही दी जाती थी अथवा वे गुरुकुल में जाकर इनका अध्ययन करती थीं । स्त्री-गुरुकुल के सन्दर्भ के अभाव से ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी शिक्षा की व्यवस्था घर पर ही की जाती थी। सम्भवतः परिवार की प्रौढ़ महिलाएँ ही उनकी शिक्षा की व्यवस्था करती थीं किन्तु सम्पन्न परिवारों में इस हेतु विभिन्न देशों की दासियों एवं गणिकाओं की भी नियुक्ति की जाती थी, जो इन्हें इन कलाओं में पारंगत बनाती थीं। आगमिक व्याख्याओं में हमें कोई भी ऐसा सन्दर्भ उपलब्ध नहीं हुआ जो सहशिक्षा का निर्देश करता हो। नारी की गृहस्थ-जीवन सम्बन्धी इन शिक्षाओं के प्राप्त करने के अधिकार में प्रागैतिहासिक काल से लेकर आगमिक व्याख्याओं के काल तक कोई विशेष परिवर्तन हुआ हो ऐसा भी हमें ज्ञात नहीं होता मात्र विषयवस्तु में क्रमिक विकास हुआ होगा। यद्यपि लौकिक शिक्षा में स्त्री और पुरुष की प्रकृति एवं कार्य • . आधार पर अन्तर किया गया था किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि स्त्री और पुरुष में कोई भेद-भाव किया जाता था। जहाँ तक धार्मिक आध्यात्मिक शिक्षा का प्रश्न है वह उन्हें भिक्ष णियों के द्वारा प्रदान की जाती थी। सूत्रकृतांग से ज्ञात होता है कि जैन-परम्परा में भिक्ष को स्त्रियों को शिक्षा देने का अधिकार नहीं था। वह केवल स्त्रियों और पुरुषों की संयुक्त सभा में उपदेश दे सकता था। सामान्यतया भिक्षणियों और गृहस्थ उपासिकाओं दोनों को ही स्थविरा भिक्षुणियों के द्वारा ही शिक्षा दी जाती थी। यद्यपि आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं में हमें कुछ सूचनायें उपलब्ध होती हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि आचार्य और उपाध्याय भी कभी-कभी उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे। व्यवहारसूत्र में उल्लेख है कि तीन वर्ष की पर्याय वाला निर्ग्रन्थ, तीस वर्ष की पर्याय वाली भिक्षुणी का उपाध्याय तथा पाँच वर्ष का पर्याय वाला निर्ग्रन्थ साठ वर्ष की पर्याय वाली श्रमणी का आचार्य हो सकता था । जहाँ १. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति शान्तिसूरीय वृत्ति अधिकार २, ३०। २. ज्ञाताधर्मकथा ४/६ । तम्हा उ वज्जए इत्थी ......"आघाते ण सेवि णिग्गंथे । -सूत्रकृतांग १, ४, १, ११ ४. कप्पइ निग्गंथीणं विइकिट्ठए काले सज्झायं करेत्तए निग्गंथ निस्साए। (तथा) पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे, सट्ठिवास परियाए समणीए निग्गंथीए कप्पइ आयरिय उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए । -व्यवहारसूत्र ७, १५ व २० www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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