Book Title: Jain Agamik Vyakhya Sahitya me Nari ki Sthiti ka Mulyankan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 21
________________ खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि १३६ कोई अत्याचार किये गये, जैन भिक्षुणी संघ उसके लिए रक्षाकवच बना क्योंकि भिक्षुणी संघ में प्रवेश करने के बाद न केवल वह पारिवारिक उत्पीड़न से बच सकती थी अपितु एक सम्मानपूर्ण जीवन भी जी सकती थी। आज भी विधवाओं, परित्यक्ताओं, पिता के पास दहेज के अभाव के कारण अथवा कुरूपता आदि किन्हीं कारणों से अविवाहित रहने के लिये विवश कुमारियों के लिये जैन भिक्षुणी संघ आश्रयस्थल है। जैन भिक्षणी संघ ने नारी की गरिमा और उसके सतीत्व दोनों की रक्षा की। यही कारण था कि सती-प्रथा जैसी कुत्सित प्रथा जैन धर्म में कभी भी नहीं रही। महानिशीथ में एक स्त्री को सती होने का मानस बनाने पर भी अपनी कल-परम्परा में सती प्रथा का प्रचलन नहीं होने के कारण अपने निर्णय को बदलता हुआ देखते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि जैनाचार्यों की दृष्टि सतीप्रथा विरोधी थी। जैन परम्परा में ब्राह्मी, सुन्दरी और चन्दना आदि को सती कहा गया है और तीर्थंकरों के नाम-स्मरण के साथ-साथ आज भी १६ सतियों का नाम स्मरण किया जाता है, किन्तु इन्हें सती इसलिये कहा गया कि ये अपने शील की रक्षा हेतु या तो अविवाहित रहीं या पति की मृत्यु के पश्चात् इन्होंने अपने चरित्र एवं शील को सुरक्षित रखा। आज जैन साध्वियों के लिये एक बहुप्रचलित नाम महासती है उसका आधार शील का पालन ही है। जैन परम्परा में आगमिक व्याख्याओं और पौराणिक रचनाओं के पश्चात् जो प्रबन्ध साहित्य लिखा गया, उसमें सर्वप्रथम सती प्रथा का ही जैनीकरण किया हुआ एक रूप हमें देखने को मिलता है। तेजपाल-वस्तुपाल प्रबन्ध में बताया गया है कि तेजपाल और वस्तूपाल की मृत्य के पश्चात् उनकी पत्नियों ने अनशन करके अपने प्राण त्याग दिये । यहाँ पति की मृत्य के पश्चात् शरीर त्यागने का उपक्रम तो है किन्तु उसका स्वरूप सौम्य बना दिया गया है । वस्तुतः यह उस युग में प्रचलित सती प्रथा की जैनधर्म में क्या प्रतिक्रिया हुई थी, उसका सूचक है। गणिकाओं की स्थिति गणिकायें और वेश्यायें भारतीय समाज का आवश्यक घटक रही हैं। उन्हें अपरिगृहीता माना जाये या परिगृहीता, इसे लेकर जैन आचार्यों में विवाद रहा है । क्योंकि आगमिक काल से उपासक के लिये हम अपरिगृहीता गमन का निषेध देखते हैं । भ० महावीर के पूर्व पापित्य परम्परा के शिथिलाचारी श्रमण यहाँ तक कहने लगे थे कि बिना विवाह किये अर्थात् परिगृहीत किये यदि कोई स्त्री कामवासना की आकांक्षा करती है तो उसके साथ सम्भोग करने में कोई पाप नहीं है । ज्ञातव्य है कि पार्श्व की परम्परा में ब्रह्मचर्य व्रत अपरिग्रह के अधीन माना गया था क्योंकि उस युग में नारी को भी सम्पत्ति माना जाता था, चूंकि ऐसी स्थिति में अपरिग्रह के व्रत का भंग नहीं था इसलिये शिथिलाचारी श्रमण उसका विरोध कर रहे थे। यही कारण था कि भ० महावीर ने ब्रह्मचर्य को जोडा था। चूँ कि वेश्या या गणिका परस्त्री नहीं थी, अतः परस्त्री निषेध के साथ स्वपत्नी सन्तोषव्रत को जोड़ा गया और उसके अतिचारों में अपरिगृहीतगमन को भी सम्मिलित किया गया और कहा गया कि गृहस्थ उपासक को अपरिगृहीत (अपने से अविवाहित) स्त्री से सम्भोग नहीं करना चाहिये । पुनः जब १. मन्त्रिण्यौ ललितादेवी सौख्वौ अनशनेन मम्रतुः । -प्रबन्धकोश, पृष्ठ १२६ २. एवमेगे उ पासत्था, पन्नवंति अणारिया । इत्थीवसंगया बाला, जिणसासणपरम्मुहा॥ जहा गंड पिलागं वा, परिपीलेज्ज मुहत्तंग। एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिया ॥ --सूत्रकृतांग, १/३/४/8-१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24