Book Title: Jain Adhyatmavad Adhunik Sandarbh me
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf

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Page 8
________________ व्रती चारित्र और सर्ववती चारित्र ऐसे दो वर्गों में विभाजित दर्शन में आचरण के पूर्व सम्यक ज्ञान का होना आवश्यक किया गया है। देशवती चारित्र का सम्बन्ध गृहस्थ है फिर भी वे यह स्वीकार नहीं करते हैं कि अकेला ज्ञान उपासकों से और सर्ववती चारित्र का सम्बन्ध श्रमण वर्ग से ही मुक्ति का साधन हो सकता है। महावीर ने ज्ञान और है। जैन-परम्परा में गृहस्थाचार के अन्तर्गत अष्टमूलगुण, आचरण दोनों से समन्वित साधना-पथ का उपदेश दिया बारह व्रत और ग्यारह प्रतिमाओं का पालन है। सूत्रकृतांग में महावीर कहते हैं कि 'मनुष्य चाहे वह आता है । श्रमणाचार के अन्तर्गत पंचमहाव्रत, रात्रिभोजन ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो अथवा अनेक शास्त्रों का जानकार निषेध, पंचसमिति, तीन गुप्ति, दस यतिधर्म, बारह हो यदि उसका आचरण अच्छा नहीं है तो वह अपने कृत्य अनुप्रेक्षाएं, बाईस परीषह, अट्ठाइस मूलगुण, बावन अनाचार कर्मों के कारण दुःखी ही होगा।२७ उत्तराध्ययन सूत्र में आदि का विवेचन उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त भोजन, कहा गया है कि 'अनेक भाषाओं एवं शास्त्रों का वस्त्र, आवास सम्बन्धी विधि-निषेध है। आत्मा को शरणभूत नहीं होता। दुराचरण में अनुरक्त अपने आपको पंडित मानने वाले लोग वस्तुतः मूर्ख ही साधनत्रय का पूर्वापर सम्बन्ध : हैं। वे केवल वचनों से ही अपनी आत्मा को आश्वासन दर्शन, ज्ञान और चारित्र की पूर्वापरता को लेकर देते हैं । २८ आवश्यक नियुक्ति में ज्ञान और आचरण के जैन विचारणा में कोई विवाद नहीं है। जैन आगमों में पारस्परिक सम्बन्ध का विवेचन अत्यन्त विस्तृत रूप से दर्शन की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है कि सम्यक् किया गया है। आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि 'आचरणदर्शन के अभाव में सम्यक चारित्र नहीं होता। भक्त विहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी संसार-समुद्र से पार परिज्ञा में कहा गया है कि दर्शन से भ्रष्ट ( पतित ) ही नहीं होते ।' ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध को वास्तविक रूप में भ्रष्ट हैं, चारित्र से भ्रष्ट भूष्ट नहीं हैं लोक प्रसिद्ध अंध पंगु न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए क्योंकि जो दर्शन से युक्त है वह संसार में अधिक परिभूमण आचार्य लिखते हैं कि जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं नहीं करता जबकि दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति संसार से मुक्त चलता है या अकेला अंधा अथवा अकेला पंगु इच्छित नहीं होता है।२५ कदाचित चारित्र से रहित सिद्ध भी साध्य को नहीं पहंचता वेसे ही मात्र ज्ञान अथवा मात्र हो जावे लेकिन दर्शन से रहित कभी भी मुक्त नहीं होता। क्रिया से मुक्ति नहीं होती. अपित दोनों के सहयोग से ही वस्तुतः दृष्टिकोण या श्रद्धा ही एक ऐसा तत्व है जो मक्ति होती है ।२. व्यक्ति के ज्ञान और आचरण को सही दिशा निर्देश कर सकता है। आचार्य भद्रबाहु आचारांग नियुक्ति में कहते जैन पर्व की आध्यात्मिक प्रकृति : हैं कि सम्यक् दृष्टि से ही तप, ज्ञान और सदाचरण सफल न केवल जैन साधना पद्धति की प्रकृति ही अध्यात्महोते हैं । २६ वादी है अपितु जैन पर्व भी मूलतः आध्यात्मवादी ही है। जहाँ तक ज्ञान और चारित्र का सम्बन्ध है जैन जैन पर्व आमोद-प्रमोद के लिए न होकर आत्म-साधना विचारकों ने चारित्र को ज्ञान के बाद ही स्थान दिया है। और तप-साधना के लिए होते हैं । उनमें मुख्यतः तप, त्याग, उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही बताया गया है कि सम्यक व्रत एवं उपवासों की प्रधानता होती है। जैनों के प्रसिद्ध ज्ञान के अभाव में सदाचरण नहीं होता। इस प्रकार जैन पवों में श्वेताम्बर परम्परा में पर्यषण पर्व और दिगम्बर २५ भक्तपरिज्ञा, ६५-६६ । २६ आचारांगनियुक्ति, २२१ । सूत्रकृतांग, २/१/३। २८ उत्तराध्ययन, ६/६-११ । २९ आवश्यकनियुक्ति, ६५-६७ । १४ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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