Book Title: Jain Adhyatmavad Adhunik Sandarbh me
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असमर्थ हैं । न केवल जैन धर्म अपितु सभी आध्यात्मिक धर्मों ने एकमत से इस तथ्य को स्वीकार किया है कि समस्त दुःखों का मूल कारण आसक्ति, तृष्णा या ममत्व बुद्धि है किन्तु तृष्णा की समाप्ति का उपाय इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं है। भौतिकवाद हमें सुख और सुविधा के साधन तो दे सकता है किन्तु वह मनुष्य की आसक्ति या तृष्णा का निराकरण नहीं कर सकता। इस दिशा में उसका प्रयत्न तो टहनियों को काटकर जड़ को सींचने के समान है। जैन आगमों में स्पष्टरूप से कहा गया है कि तृष्णा आकाश के समान अनन्त है, उसकी पूर्ति सम्भव नहीं है । ३ यदि हम मानव जाति को स्वार्थ, हिंसा, शोषण, भ्रष्टाचार एवं तजनित दुःखों से मुक्त सन्दर्भ में करना चाहते हैं तो हमें भौतिकवादी दृष्टि का त्याग करके -डॉ० सागर आध्यात्मिक दृष्टि का विकास करना होगा। श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान, वाराणसी अध्यात्मवाद क्या है ? मानव जाति को दुःखों से मुक्त करना ही भगवान महावीर का प्रमुख लक्ष्य था। उन्होंने इस तथ्य को गहराई किन्तु यहाँ हमें यह समझ लेना होगा कि अध्यात्मवाद से समझने का प्रयत्न किया कि दुःख का मूल किसमें है। से हमारा क्या तात्पर्य है ? अध्यात्म शब्द की व्युत्पत्ति . इसे स्पष्ट करते हुए उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि अधि+आत्म से है अर्थात् वह आत्मा की श्रेष्ठता या समस्त भौतिक और मानसिक दुःखों का मूल व्यक्ति की उच्चता का सूचक है। आचारांग में इसके लिए कामासक्ति या भोगासक्ति है। यद्यपि भौतिकवाद मनुष्य 'अज्झतं.४ शब्द का प्रयोग है जो आन्तरिक पवित्रता की कामनाओं की पूर्ति के द्वारा दुःखों के निवारण का या आन्तरिक विशुद्धि का सूचक है। जैन धर्म के अनुसार प्रयत्न करता है किन्तु वह उस कारण का उच्छेद नहीं कर अध्यात्मवाद वह दृष्टि है जो यह बताती है कि भौतिक सकता, जिससे दुःख का यह स्रोत प्रस्फुटित होता है। सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही अन्तिम लक्ष्य नह भौतिकवाद के पास मनुष्य की कामासक्ति या तृष्णा को दैहिक एवं आर्थिक मूल्यों के परे उच्च मूल्य भी है और समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है। वह इच्छाओं की इन उच्च मूल्यों की उपलब्धि ही जीवन का अन्तिम पूर्ति के द्वारा मानवीय आकांक्षाओं को परितृप्त करना लक्ष्य है। जैन विचारकों की दृष्टि में अध्यात्मवाद का चाहता है किन्तु यह अग्नि में डाले गये घृत के समान अर्थ है पदार्थ को परममूल्य न मान कर आत्मा को परमउसे परिशान्त करने की अपेक्षा बढ़ाता ही है। उत्तरा- मूल्य मानना। भौतिकवादी दृष्टि मानवीय दुःख और ध्ययन सूत्र में बहुत ही स्पष्टरूप से कहा गया है कि चाहे सुख का आधार वस्तु को मानकर चलती है। उसके स्वर्ण और रजत के कैलास के समान असंख्य पर्वत भी अनुसार सुख और दुःख वस्तुगत तथ्य है। भौतिकवादी खड़े हो जाये किन्तु वे मनुष्य की तृष्णा को पूरा करने में सुखों की लालसा में वस्तुओं के पीछे दौड़ता है और . उत्तराध्ययन , ३२/६ । वही, ६/४८ । वही। आचारांग, ५/३६,५/२७ । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी उपलब्धि हेतु चोरी, शोषण एवं संग्रह जैसी व्यक्ति की दृष्टि 'स्व' में नहीं अपितु 'पर' अर्थात पदार्थ में सामाजिक बुराईयों को जन्म देता है। इसके विपरीत केन्द्रित रहती है। वह 'पर' में स्थित होता है। यह जैन अध्यात्मवाद हमें यह सिखाता है कि सुख और दुःख पदार्थ केन्द्रित दृष्टि ही या 'पर' में स्थित होना ही भौतिकका केन्द्र वस्तु में न होकर आत्मा में है। जैन दर्शन के वाद का मूल आधार है । जैन दार्शनिकों के अनुसार ‘पर' अनुसार सुख-दुःख आत्मकृत हैं ।५ अतः वास्तविक आनन्द अर्थात् आत्मेतर वस्तुओं में अपनत्व का भाव और पदार्थ की उपलब्धि पदार्थों से न होकर आत्मा से होती है। को परम मूल्य मानना यही भौतिकवाद या मिथ्या दृष्टि उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्टरूप से कहा गया है कि 'आत्मा का लक्षण है । आत्मवादी या अध्यात्मवादी व्यक्ति की दृष्टि ही अपने सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है। वही पदार्थ-केन्द्रित न होकर आत्म-केन्द्रित होती है। वह आत्मा अपना मित्र है और वही अपना शत्रु है, सुप्रतिष्ठित को ही परम मूल्य मानता है और स्वस्वरूप या स्वभावदशा अर्थात् सदगुणों में स्थित आत्मा मित्र है और दुष्प्रतिष्ठित की उपलब्धि को ही अपनी साधना का लक्ष्य बनाता है। अर्थात दगणों में स्थित आत्मा शत्र है ।।६ आतुरप्रकरण इसे ही जेन पारिभाषिक शब्दावली में सम्यक दृष्टि कहा नामक जैन ग्रन्थ में अध्यात्म का हार्द स्पष्ट करते हुए गया है। भौतिकवाद मिथ्यादृष्टि है और अध्यात्मवाद कहा गया है कि 'शान और दर्शन से युक्त शाश्वत आत्म- सम्यक्दृष्टि है । तत्व ही मेरा है, शेष सभी बाह्य पदार्थ संयोग से उपलब्ध आत्मा का स्वरूप एवं साध्य : हुए हैं। इसलिए वे मेरे अपने नहीं हैं। इन संयोगजन्य यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठ सकता है कि उपलब्धियों को अपना मान लेने या उन पर ममत्व रखने जैनधर्म में आत्मा का स्वरूप क्या है ? आचारांग सूत्र के कारण ही जीव दुःख-परम्परा को प्राप्त होता है अतः में आत्मा के स्वरूप लक्षण को स्पष्ट करते हुए कहा उन सांयोगिक पदार्थों के प्रति ममत्व भाव का सर्वथा गया है कि 'जो आत्मा है वह विज्ञाता है और जो विसर्जन कर देना चाहिए। संक्षेप में जेन अध्यात्मवाद विज्ञाता है वही आत्मा है। इस प्रकार ज्ञाताभाव में के अनुसार देह आदि सभी आत्मेतर पदार्थों के प्रति स्थित होना ही स्व-स्वभाव में स्थित होना है। आधुनिक ममत्व बुद्धि का त्याग ही साधना का मूल उत्स है। मनोविज्ञान में चेतना के तीन पक्ष माने गये हैं-ज्ञानात्मक, वस्तुतः जहाँ अध्यात्मवाद पदाथे के स्थान पर आत्मा को भावात्मक और संकल्पात्मक। उसमें भावात्मक और अपना साध्य मानता है, वहाँ भौतिकवाद में पदार्थ ही संकल्पात्मक पक्ष वस्तुतः भोक्ताभाव और कर्त्ताभाव के परम मूल्य बन जाता है। अध्यात्मवाद में आत्मा ही सूचक हैं। जब तक आत्मा कर्ता ( doer ) या भोक्ता परम मूल्य होता है। जेन अध्यात्मवाद आत्मोपलब्धि के (enjoyer ) होता है तब तक वह स्व-स्वरूप को उपलब्ध लिए पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि का त्याग आवश्यक नहीं करता है क्योंकि यहां चित्त विकल्प या आकांक्षा बनी मानता है। उसके अनुसार ममता के विसर्जन से ही रहती है। अतः उनके द्वारा चित्त-समाधि या आत्मोसमता (equanimity ) का सर्जन होता है। पलब्धि संभव नहीं है। विशुद्ध ज्ञाताभाव या साक्षी भाव जैन अध्यात्मवाद का लक्ष्य आत्मोपलब्धि: भी ऐसा तथ्य है जो आत्मा को निराकुल समाधि की जैनधर्म में ममत्व के विसर्जन को ही आत्मोपलब्धि का अवस्था में स्थित कर दुःखों से मुक्त कर सकता है । एकमात्र उपाय इसलिए माना गया है कि जब तक एक अन्य दृष्टि से जैनधर्म में आत्मा का स्वरूप व्यक्ति में ममत्व बुद्धि या आसक्ति भाव रहता है तब तक लक्षण समत्व (equanimity ) भी बताया गया है। ५ उत्तराध्ययन, २०३७ । ६ वही। ७ आतुर प्रकरण, २६, २७ । ' आचारांग, ५/१०४ । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवतीसूत्र में गौतम ने महावीर के सम्मुख दो प्रश्न उप- है। अतः जैनधर्म में समता को आत्मा या चेतना का स्थित किये-आत्मा क्या है और उसका साध्य क्या स्वभाव कहा गया है और उसे ही धर्म के रूप में परिभाहै? महावीर ने इन प्रश्नों के जो उत्तर दिये थे वे जैन । षित किया गया है। यह सत्य है कि जैनधर्म में धर्मधर्म के हार्द को स्पष्ट कर देते हैं। उन्होंने कहा था। साधना का मूलभूत लक्ष्य कामना, आसक्ति, राग-द्वेष और कि 'आत्मा समत्व स्वरूप है और समत्व की उपलब्धि कर वितके आदि मानसिक असन्तुलनों और तनावों को समाप्त लेना यही आत्मा का साध्य है। आचारांगसूत्र में भी कर अनासक्त और निराकुल वीतराग चेतना की उपलब्धि समता को धर्म कहा गया है। वहां समता को धर्म माना गया है। आसक्ति या ममत्व बुद्धि का लक्ष्य राग और द्वेष के भाव उत्पन्न कर व्यक्ति को पदार्थापेक्षी इसलिए कहा गया है कि वह हमारा स्व-स्वभाव है और वस्तु स्वभाव हीधर्म है-वत्थु सहावो धम्मो। जैन दार्शनिकों बनाना है। आसक्त व्यक्ति अपने को 'पर' में खोजता के अनुसार स्वभाव से भिन्न आदर्श की कल्पना अयथार्थ है। जबकि अनासक्ति या वीतरागता व्यक्ति को 'स्व' में केन्द्रित करती है । दूसरे शब्दों में जैनधर्म में वीतरागता है । जो हमारा मूल स्वभाव और स्वलक्षण है वही हमारा की उपलब्धि को भी जीवन का परम लक्ष्य घोषित किया साध्य हो सकता है। जैन परिभाषा में नित्य और गया है। क्योंकि वीतराग ही सच्चे अर्थ में समभाव में अथवा निरपवाद वस्तु धम ही स्वभाव है। आत्मा का स्व-स्वरूप साक्षी भाव में स्थित रह सकता है। जो चेतना समभाव और आत्मा का साध्य दोनों ही समता है। यह बात या साक्षी भाव में स्थित रह सकती है वही निराकल दशा जीव-विज्ञान की दृष्टि से भी सत्य सिद्ध होती है। आधुनिक को प्राप्त होती है और जो निराकुल दशा को प्राप्त होती जीव-विज्ञान में भी समत्व के संस्थापन को जीवन का है वही शाश्वत सुखों का आस्वाद करती है। जैनधर्म . लक्षण बताया गया है। यद्यपि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में आत्मोपलब्धि या स्वरूप उपलब्धि को जो जीवन का 'समत्व' के स्थान पर 'संघर्ष को जीवन का स्वभाव लक्ष्य माना गया है वह वस्तुतः वीतराग दशा में ही सम्भव बताता है और कहता है कि 'संघर्ष ही जीवन का नियम है और इसीलिए प्रकारान्तर से वीतरागता को ही जीवन है, मानवीय इतिहास वर्ग संघर्ष की कहानी है।' किन्तु का लक्ष्य कहा गया है। वीतरागता का ही दूसरा नाम यह एक मिथ्या धारणा है। संघर्ष सदैव ही निराकरण समभाव या साक्षीभाव है। यही समभाव हमारा वास्तका विषय रहा है। कोई भी चेतन सत्ता संघर्षशील विक स्वरूप है। इसे प्राप्त कर लेना ही हमारे जीवन का दशा में नहीं रहना चाहती। वह संघर्ष का निराकरण परम लक्ष्य है । करना ही चाहती है। यदि संघर्ष निराकरण की वस्तु है तो उसे स्वभाव नहीं कहा जा सकता है। संघर्ष साध्य और साधना मार्ग का आत्मा से अभेद : मानव इतिहास का एक तथ्य हो सकता है किन्तु वह मनुष्य के विभाव का इतिहास है स्वभाव का नहीं। जैनधर्म में साधक, साध्य और साधनामार्ग तीनों ही चैत सिक जीवन में तनाव या विचलन पाये जाते हैं किन्तु आत्मा से अभिन्न माने गये हैं। आत्मा ही साधक वे जीवन के स्वभाव नहीं हैं, क्योंकि जीवन की प्रक्रिया है, आत्मा ही साध्य है और आत्मा ही साधना मार्ग है । सदैव ही उन्हें समाप्त करने की दिशा में प्रयासशील है। अध्यात्मतत्वालोक में कहा गया है कि आत्मा ही संसार चैतसिक जीवन का मूल स्वभाव यही है कि वह बाह्य और है और आत्मा ही मोक्ष है। जब तक आत्मा कषाय और आन्तरिक उत्तेजनाओं एवं संवेदनाओं से उत्पन्न विक्षोभों इन्द्रियों के वशीभूत है वह संसार है किन्तु, जब वह . को समाप्त कर समत्व को बनाये रखने का प्रयास करता इन्हें अपने वशीभूत कर लेता है तो मुक्त कहा जाता . भगवती। आचारांग, ८/३१ । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। से आचार्य अमृतचन्द्रसूरि समयसार की टीका में १ १ लिखते हैं कि 'पर द्रव्य का परिहार और शुद्ध आत्मतत्व की उपलब्धि ही सिद्धि है। १२ आचार्य हेमचन्द्र ने भी साध्य और साधक में भेद बताते हुए योगशास्त्र में कहा है कि 'कषाय और इन्द्रियों से पराजित आत्मा बद्ध और उनको विजित करनेवाली आत्मा ही प्रबुद्ध पुरुषों द्वारा मुक्त कहा जाता है। वस्तुतः आत्मा की वासनाओं युक्त अवस्था ही बन्धन है और वासनाओं और विकल्पों से रहित शुद्ध आत्मदशा ही मोक्ष हैं । जैन अध्यात्मवाद का कथन है कि साधक का आदर्श उसके बाहर नहीं वरन उसके अन्दर है। धर्म साधना के द्वारा जो कुछ पाया जाता है वह बाह्य उपलब्धि नहीं अपितु निज गुणों का पूर्ण प्रकटन है। हमारी मूलभूत क्षमतायें साधक अवस्था और सिद्ध अवस्था में समान ही है । साधक और सिद्ध अवस्थाओं में अन्तर क्षमताओं का नहीं, वरन् क्षमताओं की योग्यताओं में बदल देने का है। जिस प्रकार बीज वृक्ष के रूप में विकसित होने की क्षमता रखता है और वह वृक्ष रूप में विकसित होकर अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है वैसे ही आत्मा भी परमात्म दशा प्राप्त करने की क्षमता रखता है और उसे उपलब्ध कर पूर्ण हो जाता है। जैनधर्म के अनुसार अपनी ही बीजरूप क्षमताओं को पूर्ण रूप से प्रकट करना ही मुक्ति है। जैन साधना 'स्व' के द्वारा 'स्व' को उपलब्ध करना है। निज में प्रसुप्त जिनश्व को अभिव्यक्त करना है । आत्मा को ही परमात्मा के रूप में पूर्ण बनाना है । इस प्रकार आत्मा का साध्य आत्मा ही है । जैनधर्म का साधना मार्ग भी आत्मा से भिन्न नहीं है। हमारी चेतना के ही ज्ञान, भाव और संकल्प के पक्ष १२ १३ १४ १५ १ ६ १० अध्यात्मतत्वालोक 1 समयसार टीका । योगशास्त्र | समयसार । तत्वार्थ सूत्र १/१ | उत्तराध्ययन, २८ / २ । 1 सम्यक् दिशा में नियोजित होकर साधनामार्ग बन जाते हैं। जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र को, जो मोक्ष मार्ग कहा गया है, उसका मूल हार्द इतना ही है कि चेतना के शानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक पक्ष क्रमशः सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन - और सम्यक चारित्र के रूप में साधनामार्ग वन जाते हैं। इस प्रकार साधनामार्ग भी आत्मा ही है । आचार्य कुन्दकुन्द कहते है कि 'मोकामी को आत्मा को जानना चाहिए, आत्मा पर ही श्रद्धा करनी चाहिए और आत्मा की ही अनुभूति ( अनुचरितव्यश्च ) करना चाहिए । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, प्रत्याख्यान (त्याग), संबर (संयम ) और योग सब अपने आपको पाने के साधन हैं । क्योंकि यहाँ आत्मा ज्ञान में हैं, दर्शन में है, त्याग में है, संबर में है और योग में है । १४ व्यवहार नय से जिन्हें ज्ञान, दर्शन और चारित्र कहा गया है, वे निश्चय नव से तो आत्मा ही है। त्रिविध साधनामार्ग : जैनदर्शन में मोक्ष की प्राप्ति के लिए त्रिविध साधनामार्ग बताया गया है। तत्वार्थ सूत्र में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र को मोक्षमार्ग कहा गया है। १५ उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप ऐसे चतुर्विध मोक्षमार्ग का भी विधान है, १६ किन्तु जैन अचार्यों ने तप का अन्तर्भाव चारित्र में करके इस त्रिविध साधना मार्ग को ही मान्य किया है । सम्भवतः यह प्रश्न हो सकता है कि त्रिविध साधनामार्ग का ही विधान क्यों किया गया है ? वस्तुतः त्रिविध Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधनामार्ग के विधान में जैनाचार्यों की एक गहन मनो- त्रिविध साधनामार्ग का ही एक रूप है। गीता में वैज्ञानिक सूझ रही है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय प्रसंगान्तर से त्रिविध साधना मार्ग के रूप में प्रणिपात, चेतना के तीन पहलू माने गए हैं-१ ज्ञान, २ भाव परिप्रश्न और सेवा का भी उल्लेख है।८ इनमें प्रणिपात और ३ संकल्प । चेतना के इन तीनों पक्षों के सम्यक् श्रद्धा का, परिप्रश्न ज्ञान का और सेवा कर्म का प्रतिविकास के लिए ही त्रिविध साधनामार्ग का विधान किया निधित्व करते हैं। उपनिषदों में श्रवण, मनन और निदिगया है। चेतना के भावात्मक पक्ष को सही दिशा में ध्यासन के रूप में भी त्रिविध साधनामार्ग का प्रस्तुतीकरण नियोजित करने के लिए सम्यक दर्शन, ज्ञानात्मक पक्ष को हुआ है। यदि हम गहराई से देखें तो इनमें श्रवण श्रद्धा सही दिशा में नियोजन के लिए ज्ञान और संकल्पात्मक के, मनन ज्ञान के और निदिध्यासन कर्म के अन्तर्भत पक्ष को सही दिशा में नियोजित करने के लिए सम्यक् हो सकते हैं। चारित्र का प्रावधान किया गया है। पाश्चात्य परम्परा में भी तीन आदेश उपलब्ध होते हैं-१ स्वयं को जानो (know thyself ), २ स्वयं जैन-दर्शन के समान ही बौद्ध-दर्शन में भी त्रिविध को स्वीकार करो (accept thyself ) और ३ स्वयं साधनामार्ग का विधान है। बौद्ध-दर्शन के इस त्रिविध ही बन जाओ (be thyself)।१९ पाश्चात्य चिन्तन के साधनामार्ग के तीन अंग हैं-१ शील, २ समाधि और तीन आदेश ज्ञान, दर्शन और चारित्र के ही समकक्ष हैं। ३ प्रज्ञा ।'७ आत्मज्ञान में ज्ञान का तत्व, आत्मस्वीकृति में श्रद्धा का .. हिन्दू धर्म के ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग भी तत्व और आत्मनिर्माण में चारित्र का तत्व उपस्थित है। . चिन्तन के जैन दर्शन बौद्ध दर्शन | हिन्दू धर्म गीता उपनिषद् पाश्चात्यदर्शन । मनन सम्यक् ज्ञान सम्यक् दर्शन सम्यक् चारित्र प्रज्ञा समाधि शील ज्ञान भक्ति परिप्रश्न प्रणिपात श्रवण निदिध्यासन know thyself accept thyself be thyself कर्म सेवा त्रिविध साधनामार्ग तथा मुक्ति : उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार दर्शन के बिना ज्ञान नहीं कुछ भारतीय विचारकों ने इस त्रिविध साधनामार्ग होता और ज्ञान के अभाव में आचरण सम्यक नहीं होता के किसी एक ही पक्ष को मोक्ष प्राप्ति का साधन है और सम्यक् आचरण के अभाव में मुक्ति भी नहीं होती है । २० इस प्रकार मुक्ति की प्राप्ति के लिए तीनों ही मान लिया है । आचार्य शंकर मात्र ज्ञान से और रामानुज । मात्र भक्ति से मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार करते हैं। अगा का होना आवश्यक है। लेकिन जैन दार्शनिक ऐसे किसी एकान्तवादिता में नहीं सम्यक् दशन का अथ गिरते हैं। उनके अनुसार तो ज्ञान, कर्म और भक्ति की समवेत साधना ही मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है। इनमें से जैन आगमों में दर्शन शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त किसी एक के अभाव में मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। हुआ है और इसके अर्थ के सम्बन्ध में जैन परम्परा में १७ सुत्तनिपात, २८/८। १८ गीता, ४/३४ । १९ Psychology and Morals, p 32. उत्तराध्ययन सूत्र, २८/३० । [ ११ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काफी विवाद रहा है । दर्शन शब्द को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध, प्रशा और ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है । दर्शन शब्द का दृष्टिकोण - परक अर्थ भी लिया गया है । प्राचीन जैनागमों में दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग उसके दृष्टिकोणपरक अर्थ का द्योतक है। उत्तराध्ययन सूत्र तथा तत्त्वार्थसूत्र में दर्शन शब्द का अर्थ तत्वश्रद्धा भी माना गया है । २१ परवर्ती जैन साहित्य में दर्शन शब्द को देव गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त किया गया है । इस प्रकार जैन परम्परा में सम्यक् दर्शन आत्म-साक्षात्कार, तत्व अद्धा, अन्तबंध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अनेक अर्थों को अपने में समेटे है। सम्यक् दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहें या तत्वार्थ श्रद्धा उसमें वास्तविकता की दृष्टि से अधिक अन्तर नहीं होता है। अन्तर होता है उनकी उपलब्धि की विधि में । एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसी सत्य का उद्घाटन कर वस्तुतत्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है किन्तु दूसरा व्यक्ति ऐसे वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तुतत्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है । यद्यपि यहाँ दोनों का ही दृष्टिकोण यथार्थ होगा, फिर भी एक ने उसे स्वानुभूति में पाया है तो दूसरे ने उसे श्रद्धा के माध्यम से । श्रद्धा ही सम्यक दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ स्वानुभूति ही है और यही सम्यक दर्शन का वास्तविक अर्थ है। ऐसा सम्यग्दर्शन होता है निर्विकार निराकुल चित्तवृत्ति से, अतः प्रकारान्तर से उसे भी सम्यग्दृष्टि कहा जाता है । सम्यक दर्शन के पाँच लक्षण : जैन धर्म में सम्यक् दर्शन के निम्न पाँच लक्षण बताये गये हैं- ( १ ) सम अर्थात् समभाव, (२) संवेग अर्थात् आत्मा के आनन्दमय स्वरूप की अनुभूति अथवा सत्याभीप्सा, (२) निर्वेद अर्थात् अनासक्ति या वैराग्य, २१ उत्तराध्ययन, २८/३५ ; तत्त्वार्थ सूत्र, १ / २ । २२ आत्मसिद्धि, पृ० ४३ | १२] (४) अनुकम्पा अर्थात दूसरे व्यक्ति की पीड़ा को आत्म पीड़ा समझना और उसके प्रति कपणा का भाव रखना और (५) आस्तिक्य अर्थात् पुण्य-पाप, पुनर्जन्म, कर्म - सिद्धान्त और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करना । सम्यक् दर्शन के छः स्थान : जिस प्रकार बौद्ध साधना के अनुसार दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख से निवृत्ति हो सकती है और दुःखनिवृत्ति का मार्ग है इन चार आर्य सत्यों की स्वीकृति सम्यक् दृष्टि है, उसी प्रकार जैन-साधना के अनुसार षट् स्थानक (छः बातों) की स्वीकृति सम्यक् दर्शन है- (१) आत्मा है, (२) आत्मा नित्य है, (३) आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है, (४) आत्मा कृत कर्मों के फल का भोक्ता है, (५) आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता है और (६) मुक्ति का उपाय (मार्ग) है। १२ जैन तत्व विचारणा के अनुसार इन षट्स्थानकों पर प्रतीति सम्यग्दर्शन की साधना का आवश्यक अंग है। दृष्टिकोण की विशुद्धता एवं सदाचार दोनों ही इन पर निर्भर है ये पद स्थानक जैन साधना के केन्द्र बिन्दु हैं। ; सम्यक् ज्ञान का अर्थ : दृष्टिकोण की विशुद्धि पर ही शान की सम्यक्त्वता निर्भर करती है । अतः जैन साधना का दूसरा चरण है सम्यग्ज्ञान । सम्यक ज्ञान की मुक्ति का साधन स्वीकार किया गया है, लेकिन कौन-सा ज्ञान मुक्ति के लिए आवश्यक है, यह विचारणीय है। जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान के दो रूप पाये जाते हैं। सामान्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान वस्तु तत्व का उसके अनन्त पहलुओं से युक्त ज्ञान है और इस रूप में वह विचार शुद्धि का माध्यम है। जैन दर्शन के अनुसार एकांगी ज्ञान मिथ्यात्व है क्योंकि वह सत्य के अनन्त पक्षों का अपलाप करता है। जब तक आग्रह बुद्धि है तब तक वीतरागता सम्भव ही नहीं है और जब तक वीतराग दृष्टि नहीं है तब तक यथार्थ ज्ञान भी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असम्भव है। जैन-दर्शन के अनुसार सत्य के अनन्त सार में इस भेद-विज्ञान का अत्यन्त गहन विवेचन किया पहलुओं को जानने के लिए अनेकान्त दृष्टि सम्यक्-ज्ञान है किन्तु विस्तारपूर्वक यह विवेचन यहाँ सम्भव नहीं की अनिवार्य शर्त है। एकान्त दृष्टि या वैचारिक आग्रह है।२४ अपने में निहित छद्म राग के कारण सत्य को रंगीन कर सम्यक् चारित्र का अर्थ : देता है। अतः एकान्त और आग्रह सत्य के साक्षात्कार में बाधक है। जैन साधना की दृष्टि से वीतरागता को जेन परम्परा में साधना का तीसरा चरण सम्यक उपलब्ध करने के लिए वैचारिक आग्रह का परित्याग और चारित्र है। इसके दो रूप माने गए हैं-(१) व्यवहार अनाग्रही दृष्टि का निर्माण आवश्यक है और इसके माध्यम चारित्र और (२) निश्चय चारित्र। आचरण का बाह्य से प्राप्त ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है। सम्यज्ञान का अर्थ है पक्ष या आचरण के विधि-विधान व्यवहार चारित्र कहे जाते वस्तु को उसके अनन्त पहलुओं से जानना। हैं। जबकि आचरण की अन्तरात्मा निश्चय चारित्र कही जाती है। जहाँ तक नैतिकता के वैयक्तिक दृष्टिकोण का जैनधर्म में एक अन्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान आत्म- प्रश्न है अथवा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का प्रश्न अनात्म का विवेक है। यह सही है कि आत्मतत्व को है, निश्चयात्मक चारित्र ही उसका मूलभूत आधार है । ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता है, उसे ज्ञाता-ज्ञय • लेकिन जहाँ तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है, चारित्र के द्वौत के आधार पर नहीं जाना जा सकता है, क्योंकि का बाह्य पक्ष ही प्रमुख है। वह स्वयं ज्ञान-स्वरूप है, ज्ञाता है और ज्ञाता कभी ज्ञय निश्चय दृष्टि ( real view point ) से चारित्र नहीं बन सकता अतः आत्मज्ञान दुरूह है। लेकिन अनात्म का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि है। का सामना समभाव तत्वातो ऐसा है जिसे हम ज्ञाता और ज्ञय के दूत के आधार मानसिक या चेत सिक जीवन में समत्व की उपलब्धि ही पर जान सकते हैं । सामान्य व्यक्ति भी अपने साधारण ज्ञान चारित्र का पारमार्थिक या नैश्चयिक पक्ष है। वस्तुतः के द्वारा इतना तो जान ही सकता है कि उसके ज्ञान के चारित्र का यह पक्ष आत्म-रमण की स्थिति है। नेश्चयिक विषय क्या हैं ? और दूसरे वह यह निष्कर्ष निकाल सकता चारित्र का प्रादर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था में ही होता है कि जो उसके ज्ञान के विषय हैं वे उसके स्वस्वरूप नहीं __ है। अप्रमत्त चेतना की अवस्था में होने वाले सभी कार्य हैं, वे अनात्म हैं । सम्यक्-ज्ञान आत्मज्ञान है, किन्तु आत्मा शुद्ध ही माने गए हैं। चेतना में जब राग, द्वेष, कषाय को अनात्म के माध्यम से ही पहचाना जा सकता है । और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शांत हो जाती है तभी अनात्म के स्वरूप को जानकर अनात्म से आत्म का भेद सच्चे नैतिक एवं धार्मिक जीवन का उद्भव होता है और करना यही भेद-विज्ञान है और यही जैन-दर्शन में सम्यक ऐसा ही सदाचार मोक्ष का कारण होता है। साधक जब ज्ञान का मूल अर्थ है । जीवन की प्रत्येक क्रिया के सम्पादन में आत्म-जाग्रत होता है, उसका आचरण बाह्य आवेगों और वासनाओं से इस प्रकार जैन-दर्शन में सम्यक् ज्ञान आत्म-अनात्म का चालित नहीं होता है तभी वह सच्चे अर्थों में नैश्चयिक विवेक है। जैनों की पारिभाषिक शब्दावली में इसे भेद चारित्र का पालनकर्ता माना जाता है। यही नैश्चयिक विज्ञान कहा जाता है। आचार्य अमृत चन्द्र सूरि के अनुसार चारित्र मुक्ति का सोपान कहा गया है। जो 'कोई सिद्ध हुए हैं वे इस आत्म-अनात्म के विवेक या भेद-विज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जो बन्धन में हैं, वे इसके व्यवहार चारित्र-व्यवहार चारित्र का सम्बन्ध आचार अभाव के कारण ही हैं ।' २३ आचार्य कुन्दकुन्द ने समय- के नियमों के परिपालन से है । व्यवहार चारित्र को देश २३ समयसार टीका, १३२ ! २४ देखें० जैन बौद्ध और गीता का साधनामार्ग, अध्याय ५ । [ १३ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रती चारित्र और सर्ववती चारित्र ऐसे दो वर्गों में विभाजित दर्शन में आचरण के पूर्व सम्यक ज्ञान का होना आवश्यक किया गया है। देशवती चारित्र का सम्बन्ध गृहस्थ है फिर भी वे यह स्वीकार नहीं करते हैं कि अकेला ज्ञान उपासकों से और सर्ववती चारित्र का सम्बन्ध श्रमण वर्ग से ही मुक्ति का साधन हो सकता है। महावीर ने ज्ञान और है। जैन-परम्परा में गृहस्थाचार के अन्तर्गत अष्टमूलगुण, आचरण दोनों से समन्वित साधना-पथ का उपदेश दिया बारह व्रत और ग्यारह प्रतिमाओं का पालन है। सूत्रकृतांग में महावीर कहते हैं कि 'मनुष्य चाहे वह आता है । श्रमणाचार के अन्तर्गत पंचमहाव्रत, रात्रिभोजन ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो अथवा अनेक शास्त्रों का जानकार निषेध, पंचसमिति, तीन गुप्ति, दस यतिधर्म, बारह हो यदि उसका आचरण अच्छा नहीं है तो वह अपने कृत्य अनुप्रेक्षाएं, बाईस परीषह, अट्ठाइस मूलगुण, बावन अनाचार कर्मों के कारण दुःखी ही होगा।२७ उत्तराध्ययन सूत्र में आदि का विवेचन उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त भोजन, कहा गया है कि 'अनेक भाषाओं एवं शास्त्रों का वस्त्र, आवास सम्बन्धी विधि-निषेध है। आत्मा को शरणभूत नहीं होता। दुराचरण में अनुरक्त अपने आपको पंडित मानने वाले लोग वस्तुतः मूर्ख ही साधनत्रय का पूर्वापर सम्बन्ध : हैं। वे केवल वचनों से ही अपनी आत्मा को आश्वासन दर्शन, ज्ञान और चारित्र की पूर्वापरता को लेकर देते हैं । २८ आवश्यक नियुक्ति में ज्ञान और आचरण के जैन विचारणा में कोई विवाद नहीं है। जैन आगमों में पारस्परिक सम्बन्ध का विवेचन अत्यन्त विस्तृत रूप से दर्शन की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है कि सम्यक् किया गया है। आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि 'आचरणदर्शन के अभाव में सम्यक चारित्र नहीं होता। भक्त विहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी संसार-समुद्र से पार परिज्ञा में कहा गया है कि दर्शन से भ्रष्ट ( पतित ) ही नहीं होते ।' ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध को वास्तविक रूप में भ्रष्ट हैं, चारित्र से भ्रष्ट भूष्ट नहीं हैं लोक प्रसिद्ध अंध पंगु न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए क्योंकि जो दर्शन से युक्त है वह संसार में अधिक परिभूमण आचार्य लिखते हैं कि जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं नहीं करता जबकि दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति संसार से मुक्त चलता है या अकेला अंधा अथवा अकेला पंगु इच्छित नहीं होता है।२५ कदाचित चारित्र से रहित सिद्ध भी साध्य को नहीं पहंचता वेसे ही मात्र ज्ञान अथवा मात्र हो जावे लेकिन दर्शन से रहित कभी भी मुक्त नहीं होता। क्रिया से मुक्ति नहीं होती. अपित दोनों के सहयोग से ही वस्तुतः दृष्टिकोण या श्रद्धा ही एक ऐसा तत्व है जो मक्ति होती है ।२. व्यक्ति के ज्ञान और आचरण को सही दिशा निर्देश कर सकता है। आचार्य भद्रबाहु आचारांग नियुक्ति में कहते जैन पर्व की आध्यात्मिक प्रकृति : हैं कि सम्यक् दृष्टि से ही तप, ज्ञान और सदाचरण सफल न केवल जैन साधना पद्धति की प्रकृति ही अध्यात्महोते हैं । २६ वादी है अपितु जैन पर्व भी मूलतः आध्यात्मवादी ही है। जहाँ तक ज्ञान और चारित्र का सम्बन्ध है जैन जैन पर्व आमोद-प्रमोद के लिए न होकर आत्म-साधना विचारकों ने चारित्र को ज्ञान के बाद ही स्थान दिया है। और तप-साधना के लिए होते हैं । उनमें मुख्यतः तप, त्याग, उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही बताया गया है कि सम्यक व्रत एवं उपवासों की प्रधानता होती है। जैनों के प्रसिद्ध ज्ञान के अभाव में सदाचरण नहीं होता। इस प्रकार जैन पवों में श्वेताम्बर परम्परा में पर्यषण पर्व और दिगम्बर २५ भक्तपरिज्ञा, ६५-६६ । २६ आचारांगनियुक्ति, २२१ । सूत्रकृतांग, २/१/३। २८ उत्तराध्ययन, ६/६-११ । २९ आवश्यकनियुक्ति, ६५-६७ । १४ ] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा में दश लक्षण पर्व है जो भाद्रपद में मनाये जाते हैं । इन दिनों में जिन प्रतिमाओं की पूजा, उपवास आदि व्रत तथा धर्म-पन्थों का स्वाध्याय वही साधकों की दिनचर्या के प्रमुख अंग होते हैं। इन पर्वों के दिनों में जहाँ दिगम्बर परम्परा में प्रतिदिन क्षमा, विनम्रता, सरलता, पवित्रता, सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य आदि दस धर्मों (सद्गुणों) की विशिष्ट साधना की जाती है वहाँ श्वेताम्बर परम्परा में इन दिनों में प्रतिक्रमण के रूप में आत्म-पर्यावलोचन किया जाता है। श्वेताम्बर परम्परा का अन्तिम दिन संवत्सरी पर्व के नाम से मनाया जाता है और इस दिन समग्र वर्ष के चारित्रिक स्खलन या असदाचरण और वैर विरोध के लिए आत्म-पर्यावलोचन ( प्रतिक्रमण ) किया जाता है एवं प्रायश्चित्त ग्रहण किया जाता है । इस दिन शत्रु मित्र आदि सभी से क्षमा-याचना की जाती है। इस दिन जैन साधक का मुख्य उद्घोष होता है - 'मैं सब जीवों को क्षमा प्रदान करता हूँ सभी जीव मुझे क्षमा प्रदान करें | सभी प्राणी वर्ग से मेरी मित्रता है और किसी से कोई बैर विरोध नहीं है। इन पर्व दिनों में अहिंसा का पालन करना और करवाना भी एक प्रमुख कार्य होता है। प्राचीन काल में अनेक जैनाचायों ने अपने प्रभाव से शासकों द्वारा इन दिनों को अहिंसक दिनों के रूप में घोषित करवाया था। इस प्रमुख पर्व के अतिरिक्त अष्टान्हिका पर्वत पंचमी तथा विभिन्न तीर्थंकरों के गर्भ-प्रवेश, जन्म, दीक्षा, कैवल्य प्राप्ति एवं निर्वाण दिवसों को भी पर्व के रूप में मनाया जाता है । इन दिनों में भी सामान्यतया मत रखा जाता है और जिन प्रतिमाओं की विशेष समारोह के साथ पूजा की जाती है। दीपावली का पर्व भी भगवान महावीर के निर्वाण दिवस के रूप में जैन समुदाय के द्वारा बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। जेन अध्यात्मवाद और लोक कल्याण के प्रश्न यह सत्य है कि जैनधर्म संन्यास मार्गी धर्म है। उसकी सांधना में आत्म शुद्धि और आत्मोपलब्धि पर अधिक जोर दिया गया है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन धर्म प्रश्नव्याकरण २/२/२ ३० मैं लोक मंगल या लोक कल्याण का कोई स्थान ही नहीं है। जैनधर्म यह तो अवश्य मानता है कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन अधिक उपयुक्त है । किन्तु इसके साथ ही वह यह भी मानता है कि उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में होना चाहिए। महावीर का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है। १२ वर्षों तक एकाकी साधना करने के पश्चात् वे पुनः सामाजिक जीवन में लौट आये। उन्होंने चतुर्विध संघ की स्थापना की तथा जीवन भर उसका मार्गदर्शन करते रहे । जैनधर्म सामाजिक कल्याण और सामाजिक सेवा को आवश्यक तो मानता है, किन्तु वह व्यक्ति के सुधार से समाज के सुधार की दिशा में आगे बढ़ता है। व्यक्ति समाज की प्रथम इकाई है । जब तक व्यक्ति नहीं सुधरेगा तब तक समाज नहीं सुधर सकता । जब तक व्यक्ति के जीवन में नैतिक और आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं होता तब तक सामाजिक जीवन में सुव्यवस्था और शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती । जो व्यक्ति अपने स्वार्थी और वासनाओं पर नियन्त्रण नहीं कर सकता वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता । लोक-सेवक और जन-सेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और द्वन्द्वों से दूर रहें यह जैन आचार संहिता का आधारभूत सिद्धान्त है चरित्रहीन व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिए घातक ही सिद्ध होंगे। व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त जो संगठन या समुदाय बनते हैं वे सामाजिक जीवन के सच्चे प्रतिनिधि नहीं है । क्या चोर, डाकू और शोषकों का समाज, समाज कहलाने का अधिकारी है ? महावीर की शिक्षा का सार यही है कि वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति ही सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में प्रवृत्ति का आधार बन सकती है। प्रश्न व्याकरण सूत्र में कहा गया है कि भगवान का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। जेन साधना में अहिंसा, सत्य, स्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के जो पांच व्रत माने गये हैं वे केवल वैयक्तिक साधना के लिए नहीं है, वे सामाजिक मंगल के लिए भी है। आत्म शुद्धि के साथ ही हमारे सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयास भी है। वे - [ १५ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित को सदैव भौतिकवाद में अन्तर स्पष्ट करती है। भौतिकवाद में ही महत्व दिया है। जैनधर्म में तीर्थंकर, गणधर और भौतिक उपलब्धियां या जैविक मूल्य सामान्य केवली के जो आदर्श स्थापित किये गये हैं और अन्तिम है, जबकि अध्यात्म में वे किन्हीं उच्च मूल्यों का उनमें जो तारतम्यता निश्चित की गई है उसका आधार साधन है। जैनधर्म की भाषा में कहें तो साधना के द्वारा विश्व-कल्याण, वर्ग-कल्याण और व्यक्ति-कल्याण की वस्तुओं का ग्रहण, दोनों ही संयम ( रामत्व ) की साधना भावना ही है। इस त्रिपुटी में विश्व-कल्याण के लिए के लिए है। जैनधर्म की सम्पूर्ण साधना का मूल लक्ष्य तो प्रवत्ति करने के कारण ही तीर्थकर को सर्वोच्च स्थान प्राप्त एक ऐसे निराकुल, निर्विकार, निष्काम और वीतराग मानस है। स्थानांगसूत्र में ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि की अभिव्यक्ति है जो कि वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के की उपस्थिति इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन साधना समस्त तनावों एवं संघर्षों को समाप्त कर सके । उसके सामने केवल आत्महित या वैयक्तिक विकास तक ही सीमित नहीं मूल प्रश्न देहिक एवं भौतिक मूल्यों की स्वीकृति या है वरन् उसमें लोकहित या लोक कल्याण की प्रवृत्ति भी अस्वीकृति का नहीं है अपितु वैयक्तिक और सामाजिक पायी जाती है। जीवन में शान्ति की संस्थापना है। अतः जहां तक और जिस रूप में देहिक और भौतिक उपलब्धियां उसमें क्या जैनधर्म जीवन का निषेध सिखाता है ? साधक हो सकती हैं, वहां तक वे स्वीकार्य हैं, और जहां तक वे उसमें बाधक हैं, वहीं तक त्याज्य हैं। भगवान जैनधर्म में तप-त्याग की जो महिमा गायी गई है महावीर ने आचारांग एवं उत्तराध्ययन सूत्र में इस बात उसके आधार पर भान्ति फेलाई जाती है कि जैनधर्म जीवन का निषेध सिखाता है अतः यहाँ इस भ्रान्ति का . को बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि 'जब इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क होता है, निराकरण कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैनधर्म तब उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप सुखद-दुःखद अनुभूति के तप-त्याग का अर्थ शारीरिक एवं भौतिकी जीवन की। अस्वीकृति नहीं है। आध्यात्यिक मूल्यों की स्वीकृति भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं है कि इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण सुखद या का यह तात्पर्य नहीं है कि शारीरिक एवं भौतिक मूल्यों की पूर्णतया उपेक्षा की जावे। जैनधर्म के अनुसार शारी- दुःखद अनुभूति न हो, अतः त्याग इन्द्रियानुभूति का नहीं अपितु उसके प्रति चित्त में उत्पन्न होनेवाले राग-द्वेष का रिक मूल्य अध्यात्म के बाधक नहीं, साधक हैं। निशीथ भाष्य में कहा गया है कि मोक्ष का साधन ज्ञान है, ज्ञान का करना है,३३ क्योंकि इन्द्रियों के मनोज्ञ या अमनोज्ञ विषय आसक्तचित्त के लिए ही राग-द्वेष ( मानसिक साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है । ३२ शरीर विक्षोभों) का कारण बनते हैं अनासक्त या वीतराग के शाश्वत आनन्द के कूल पर ले जाने वाली नौका है। इस लिए नहीं ।३४ अतः जैनधर्म की मूल शिक्षा ममत्व के दृष्टि से उसका मूल्य भी है, महत्व भी है और उसकी विसर्जन की है, जीवन के निषेध की नहीं । सार-सम्भाल भी करनी है। किन्तु ध्यान रहे दृष्टि नौका पर नहीं कूल पर होना है, नौका साधन है साध्य नहीं। जैन अध्यात्मवाद की विशेषताएं: भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं की एक साधन के रूप में स्वीकृति जैनधर्म और सम्पूर्ण अध्यात्म विद्या का (क) ईश्वर वाद से मुक्ति-जेन अध्यात्मवाद ने मनुष्य हार्द है। यह वह विभाजन रेखा है जो अध्यात्म और को ईश्वरीय दासता से मुक्त कर मानवीय स्वतन्त्रता की ३१ स्थानांग, १०। निशीथभाष्य, ४७/४१ । आचारांग, २/१५ । ३४. उत्तराध्ययन, ३२/१०१ । १६ ] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा की है। उसने यह उद्घोष किया कि न (ग) यज्ञ आदि बाह्य क्रिया-काण्डों का आध्यात्मिक तो ईश्वर और न कोई अन्य शक्ति ही मानव की अर्थ-जैन परम्परा ने यज्ञ, तीर्थ-स्नान आदि धर्म के निर्धारक है / मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है। जैनधर्म नाम पर किये जानेवाले बाह्य क्रियाकाण्डों की न ने किसी विश्व नियन्ता ईश्वर को स्वीकार करने के स्थान केवल आलोचना की अपितु उन्हें एक आध्यात्मिक पर मनुष्य में ईश्वरत्व की प्रतिष्ठा की और यह बताया अर्थ भी प्रदान किया। उत्तराध्ययनसूत्र में यज्ञ के कि व्यक्ति ही अपनी साधना के द्वारा परमात्म-दशा को आध्यात्मिक स्वरूप का सविस्तार विवेचन है / उसमें कहा प्राप्त कर सकता है। उसने कहा 'अप्पा सो परमप्पा' गया है कि जीवात्मा अग्निकुण्ड है। मन, वचन, काया अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है। मनुष्य को किसी की की प्रवृत्तियां ही कलछी (चम्मच ) है और कमों कृपाकांक्षी न बनकर स्वयं ही पुरुषार्थ के द्वारा परमात्म- (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है। यही यज्ञ पद को प्राप्त करना है। शान्तिदायक है और ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा (ख) मानव मात्र की समानता का उदघोष- की है / " तीर्थ-स्नान को भी आध्यात्मिक-अर्थ प्रदान जैनधर्म की दूसरी विशेषता यह है कि उसने वर्णवाद करते हुए कहा गया है कि धर्म जलाशय है / ब्रह्मचर्य घाट जातिवाद आदि उन सभी अवधारणाओं की जो मनष्य- (तीर्थ ) है; उसमें स्नान करने से ही आत्मा निर्मल और मनुष्य में ऊँच-नीच का भेद उत्पन्न करती है अस्वीकार शुद्ध हो जाती है / 26 शुद्ध / किया। उसके अनुसार सभी मनुष्य समान हैं। मनुष्यों में श्रेष्ठता और कनिष्ठता का आधार न तो जाति (घ) दान, दक्षिणा आदि के स्थान पर संयम की विशेष या कुल विशेष में जन्म लेना है और न सत्ता और श्रेष्ठता-यद्यपि जेन परम्परा ने धर्म के चार अंगों - सम्पत्ति ही। वह वर्ण, रंग, जाति, सम्पत्ति और सत्ता में दान को स्थान दिया है किन्तु वह यह मानती है कि के स्थान पर आचरण की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता दान की अपेक्षा भी संयम ही श्रेष्ठ है। उत्तराध्ययन में है। उत्तराध्ययन सूत्र के 12 वें एवं 25 वें अध्याय में कहा गया है कि प्रति मास सहस्रों गायों का दान करने वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मण की श्रेष्ठता की अवधारणा पर की अपेक्षा संयम का पालन अधिक श्रेष्ठ है। करारी चोट करते हुए यह कहा गया है कि जो सर्वथा अनासक्त, मेधावी और सदाचारी है वही सच्चा ब्राह्मण है इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा ने धर्म और वही श्रेष्ठ है न कि किसी कुल विशेष में जन्म को रूढ़िवादिता और कर्मकाण्डों से मुक्त करके आध्यालेनेवाला व्यक्ति। त्मिकता से सम्पन्न बनाया है। उत्तराध्ययन, 12/44 / वही, 12/46 / [ 17