________________ प्रतिष्ठा की है। उसने यह उद्घोष किया कि न (ग) यज्ञ आदि बाह्य क्रिया-काण्डों का आध्यात्मिक तो ईश्वर और न कोई अन्य शक्ति ही मानव की अर्थ-जैन परम्परा ने यज्ञ, तीर्थ-स्नान आदि धर्म के निर्धारक है / मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है। जैनधर्म नाम पर किये जानेवाले बाह्य क्रियाकाण्डों की न ने किसी विश्व नियन्ता ईश्वर को स्वीकार करने के स्थान केवल आलोचना की अपितु उन्हें एक आध्यात्मिक पर मनुष्य में ईश्वरत्व की प्रतिष्ठा की और यह बताया अर्थ भी प्रदान किया। उत्तराध्ययनसूत्र में यज्ञ के कि व्यक्ति ही अपनी साधना के द्वारा परमात्म-दशा को आध्यात्मिक स्वरूप का सविस्तार विवेचन है / उसमें कहा प्राप्त कर सकता है। उसने कहा 'अप्पा सो परमप्पा' गया है कि जीवात्मा अग्निकुण्ड है। मन, वचन, काया अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है। मनुष्य को किसी की की प्रवृत्तियां ही कलछी (चम्मच ) है और कमों कृपाकांक्षी न बनकर स्वयं ही पुरुषार्थ के द्वारा परमात्म- (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है। यही यज्ञ पद को प्राप्त करना है। शान्तिदायक है और ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा (ख) मानव मात्र की समानता का उदघोष- की है / " तीर्थ-स्नान को भी आध्यात्मिक-अर्थ प्रदान जैनधर्म की दूसरी विशेषता यह है कि उसने वर्णवाद करते हुए कहा गया है कि धर्म जलाशय है / ब्रह्मचर्य घाट जातिवाद आदि उन सभी अवधारणाओं की जो मनष्य- (तीर्थ ) है; उसमें स्नान करने से ही आत्मा निर्मल और मनुष्य में ऊँच-नीच का भेद उत्पन्न करती है अस्वीकार शुद्ध हो जाती है / 26 शुद्ध / किया। उसके अनुसार सभी मनुष्य समान हैं। मनुष्यों में श्रेष्ठता और कनिष्ठता का आधार न तो जाति (घ) दान, दक्षिणा आदि के स्थान पर संयम की विशेष या कुल विशेष में जन्म लेना है और न सत्ता और श्रेष्ठता-यद्यपि जेन परम्परा ने धर्म के चार अंगों - सम्पत्ति ही। वह वर्ण, रंग, जाति, सम्पत्ति और सत्ता में दान को स्थान दिया है किन्तु वह यह मानती है कि के स्थान पर आचरण की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता दान की अपेक्षा भी संयम ही श्रेष्ठ है। उत्तराध्ययन में है। उत्तराध्ययन सूत्र के 12 वें एवं 25 वें अध्याय में कहा गया है कि प्रति मास सहस्रों गायों का दान करने वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मण की श्रेष्ठता की अवधारणा पर की अपेक्षा संयम का पालन अधिक श्रेष्ठ है। करारी चोट करते हुए यह कहा गया है कि जो सर्वथा अनासक्त, मेधावी और सदाचारी है वही सच्चा ब्राह्मण है इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा ने धर्म और वही श्रेष्ठ है न कि किसी कुल विशेष में जन्म को रूढ़िवादिता और कर्मकाण्डों से मुक्त करके आध्यालेनेवाला व्यक्ति। त्मिकता से सम्पन्न बनाया है। उत्तराध्ययन, 12/44 / वही, 12/46 / [ 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org