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जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित को सदैव भौतिकवाद में अन्तर स्पष्ट करती है। भौतिकवाद में ही महत्व दिया है। जैनधर्म में तीर्थंकर, गणधर और भौतिक उपलब्धियां या जैविक मूल्य सामान्य केवली के जो आदर्श स्थापित किये गये हैं और अन्तिम है, जबकि अध्यात्म में वे किन्हीं उच्च मूल्यों का उनमें जो तारतम्यता निश्चित की गई है उसका आधार साधन है। जैनधर्म की भाषा में कहें तो साधना के द्वारा विश्व-कल्याण, वर्ग-कल्याण और व्यक्ति-कल्याण की वस्तुओं का ग्रहण, दोनों ही संयम ( रामत्व ) की साधना भावना ही है। इस त्रिपुटी में विश्व-कल्याण के लिए के लिए है। जैनधर्म की सम्पूर्ण साधना का मूल लक्ष्य तो प्रवत्ति करने के कारण ही तीर्थकर को सर्वोच्च स्थान प्राप्त एक ऐसे निराकुल, निर्विकार, निष्काम और वीतराग मानस है। स्थानांगसूत्र में ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि की अभिव्यक्ति है जो कि वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के की उपस्थिति इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन साधना समस्त तनावों एवं संघर्षों को समाप्त कर सके । उसके सामने केवल आत्महित या वैयक्तिक विकास तक ही सीमित नहीं मूल प्रश्न देहिक एवं भौतिक मूल्यों की स्वीकृति या है वरन् उसमें लोकहित या लोक कल्याण की प्रवृत्ति भी अस्वीकृति का नहीं है अपितु वैयक्तिक और सामाजिक पायी जाती है।
जीवन में शान्ति की संस्थापना है। अतः जहां तक
और जिस रूप में देहिक और भौतिक उपलब्धियां उसमें क्या जैनधर्म जीवन का निषेध सिखाता है ?
साधक हो सकती हैं, वहां तक वे स्वीकार्य हैं, और जहां
तक वे उसमें बाधक हैं, वहीं तक त्याज्य हैं। भगवान जैनधर्म में तप-त्याग की जो महिमा गायी गई है
महावीर ने आचारांग एवं उत्तराध्ययन सूत्र में इस बात उसके आधार पर भान्ति फेलाई जाती है कि जैनधर्म जीवन का निषेध सिखाता है अतः यहाँ इस भ्रान्ति का
. को बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। वे कहते
हैं कि 'जब इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क होता है, निराकरण कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैनधर्म
तब उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप सुखद-दुःखद अनुभूति के तप-त्याग का अर्थ शारीरिक एवं भौतिकी जीवन की। अस्वीकृति नहीं है। आध्यात्यिक मूल्यों की स्वीकृति
भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं है कि इन्द्रियों का
अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण सुखद या का यह तात्पर्य नहीं है कि शारीरिक एवं भौतिक मूल्यों की पूर्णतया उपेक्षा की जावे। जैनधर्म के अनुसार शारी- दुःखद अनुभूति न हो, अतः त्याग इन्द्रियानुभूति का नहीं
अपितु उसके प्रति चित्त में उत्पन्न होनेवाले राग-द्वेष का रिक मूल्य अध्यात्म के बाधक नहीं, साधक हैं। निशीथ भाष्य में कहा गया है कि मोक्ष का साधन ज्ञान है, ज्ञान का
करना है,३३ क्योंकि इन्द्रियों के मनोज्ञ या अमनोज्ञ
विषय आसक्तचित्त के लिए ही राग-द्वेष ( मानसिक साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है । ३२ शरीर
विक्षोभों) का कारण बनते हैं अनासक्त या वीतराग के शाश्वत आनन्द के कूल पर ले जाने वाली नौका है। इस
लिए नहीं ।३४ अतः जैनधर्म की मूल शिक्षा ममत्व के दृष्टि से उसका मूल्य भी है, महत्व भी है और उसकी
विसर्जन की है, जीवन के निषेध की नहीं । सार-सम्भाल भी करनी है। किन्तु ध्यान रहे दृष्टि नौका पर नहीं कूल पर होना है, नौका साधन है साध्य नहीं। जैन अध्यात्मवाद की विशेषताएं: भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं की एक साधन के रूप में स्वीकृति जैनधर्म और सम्पूर्ण अध्यात्म विद्या का (क) ईश्वर वाद से मुक्ति-जेन अध्यात्मवाद ने मनुष्य हार्द है। यह वह विभाजन रेखा है जो अध्यात्म और को ईश्वरीय दासता से मुक्त कर मानवीय स्वतन्त्रता की ३१ स्थानांग, १०।
निशीथभाष्य, ४७/४१ ।
आचारांग, २/१५ । ३४. उत्तराध्ययन, ३२/१०१ ।
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