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असम्भव है। जैन-दर्शन के अनुसार सत्य के अनन्त सार में इस भेद-विज्ञान का अत्यन्त गहन विवेचन किया पहलुओं को जानने के लिए अनेकान्त दृष्टि सम्यक्-ज्ञान है किन्तु विस्तारपूर्वक यह विवेचन यहाँ सम्भव नहीं की अनिवार्य शर्त है। एकान्त दृष्टि या वैचारिक आग्रह है।२४ अपने में निहित छद्म राग के कारण सत्य को रंगीन कर
सम्यक् चारित्र का अर्थ : देता है। अतः एकान्त और आग्रह सत्य के साक्षात्कार में बाधक है। जैन साधना की दृष्टि से वीतरागता को
जेन परम्परा में साधना का तीसरा चरण सम्यक उपलब्ध करने के लिए वैचारिक आग्रह का परित्याग और चारित्र है। इसके दो रूप माने गए हैं-(१) व्यवहार अनाग्रही दृष्टि का निर्माण आवश्यक है और इसके माध्यम चारित्र और (२) निश्चय चारित्र। आचरण का बाह्य से प्राप्त ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है। सम्यज्ञान का अर्थ है
पक्ष या आचरण के विधि-विधान व्यवहार चारित्र कहे जाते वस्तु को उसके अनन्त पहलुओं से जानना।
हैं। जबकि आचरण की अन्तरात्मा निश्चय चारित्र कही
जाती है। जहाँ तक नैतिकता के वैयक्तिक दृष्टिकोण का जैनधर्म में एक अन्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान आत्म- प्रश्न है अथवा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का प्रश्न अनात्म का विवेक है। यह सही है कि आत्मतत्व को है, निश्चयात्मक चारित्र ही उसका मूलभूत आधार है । ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता है, उसे ज्ञाता-ज्ञय • लेकिन जहाँ तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है, चारित्र के द्वौत के आधार पर नहीं जाना जा सकता है, क्योंकि का बाह्य पक्ष ही प्रमुख है। वह स्वयं ज्ञान-स्वरूप है, ज्ञाता है और ज्ञाता कभी ज्ञय निश्चय दृष्टि ( real view point ) से चारित्र नहीं बन सकता अतः आत्मज्ञान दुरूह है। लेकिन अनात्म
का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि है।
का सामना समभाव तत्वातो ऐसा है जिसे हम ज्ञाता और ज्ञय के दूत के आधार मानसिक या चेत सिक जीवन में समत्व की उपलब्धि ही पर जान सकते हैं । सामान्य व्यक्ति भी अपने साधारण ज्ञान चारित्र का पारमार्थिक या नैश्चयिक पक्ष है। वस्तुतः के द्वारा इतना तो जान ही सकता है कि उसके ज्ञान के चारित्र का यह पक्ष आत्म-रमण की स्थिति है। नेश्चयिक विषय क्या हैं ? और दूसरे वह यह निष्कर्ष निकाल सकता चारित्र का प्रादर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था में ही होता है कि जो उसके ज्ञान के विषय हैं वे उसके स्वस्वरूप नहीं
__ है। अप्रमत्त चेतना की अवस्था में होने वाले सभी कार्य हैं, वे अनात्म हैं । सम्यक्-ज्ञान आत्मज्ञान है, किन्तु आत्मा
शुद्ध ही माने गए हैं। चेतना में जब राग, द्वेष, कषाय को अनात्म के माध्यम से ही पहचाना जा सकता है ।
और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शांत हो जाती है तभी अनात्म के स्वरूप को जानकर अनात्म से आत्म का भेद
सच्चे नैतिक एवं धार्मिक जीवन का उद्भव होता है और करना यही भेद-विज्ञान है और यही जैन-दर्शन में सम्यक
ऐसा ही सदाचार मोक्ष का कारण होता है। साधक जब ज्ञान का मूल अर्थ है ।
जीवन की प्रत्येक क्रिया के सम्पादन में आत्म-जाग्रत होता
है, उसका आचरण बाह्य आवेगों और वासनाओं से इस प्रकार जैन-दर्शन में सम्यक् ज्ञान आत्म-अनात्म का
चालित नहीं होता है तभी वह सच्चे अर्थों में नैश्चयिक विवेक है। जैनों की पारिभाषिक शब्दावली में इसे भेद
चारित्र का पालनकर्ता माना जाता है। यही नैश्चयिक विज्ञान कहा जाता है। आचार्य अमृत चन्द्र सूरि के अनुसार
चारित्र मुक्ति का सोपान कहा गया है। जो 'कोई सिद्ध हुए हैं वे इस आत्म-अनात्म के विवेक या भेद-विज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जो बन्धन में हैं, वे इसके व्यवहार चारित्र-व्यवहार चारित्र का सम्बन्ध आचार अभाव के कारण ही हैं ।' २३ आचार्य कुन्दकुन्द ने समय- के नियमों के परिपालन से है । व्यवहार चारित्र को देश
२३ समयसार टीका, १३२ ! २४ देखें० जैन बौद्ध और गीता का साधनामार्ग, अध्याय ५ ।
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