Book Title: Jain Adhyatmavad Adhunik Sandarbh me
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf

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Page 9
________________ परम्परा में दश लक्षण पर्व है जो भाद्रपद में मनाये जाते हैं । इन दिनों में जिन प्रतिमाओं की पूजा, उपवास आदि व्रत तथा धर्म-पन्थों का स्वाध्याय वही साधकों की दिनचर्या के प्रमुख अंग होते हैं। इन पर्वों के दिनों में जहाँ दिगम्बर परम्परा में प्रतिदिन क्षमा, विनम्रता, सरलता, पवित्रता, सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य आदि दस धर्मों (सद्गुणों) की विशिष्ट साधना की जाती है वहाँ श्वेताम्बर परम्परा में इन दिनों में प्रतिक्रमण के रूप में आत्म-पर्यावलोचन किया जाता है। श्वेताम्बर परम्परा का अन्तिम दिन संवत्सरी पर्व के नाम से मनाया जाता है और इस दिन समग्र वर्ष के चारित्रिक स्खलन या असदाचरण और वैर विरोध के लिए आत्म-पर्यावलोचन ( प्रतिक्रमण ) किया जाता है एवं प्रायश्चित्त ग्रहण किया जाता है । इस दिन शत्रु मित्र आदि सभी से क्षमा-याचना की जाती है। इस दिन जैन साधक का मुख्य उद्घोष होता है - 'मैं सब जीवों को क्षमा प्रदान करता हूँ सभी जीव मुझे क्षमा प्रदान करें | सभी प्राणी वर्ग से मेरी मित्रता है और किसी से कोई बैर विरोध नहीं है। इन पर्व दिनों में अहिंसा का पालन करना और करवाना भी एक प्रमुख कार्य होता है। प्राचीन काल में अनेक जैनाचायों ने अपने प्रभाव से शासकों द्वारा इन दिनों को अहिंसक दिनों के रूप में घोषित करवाया था। इस प्रमुख पर्व के अतिरिक्त अष्टान्हिका पर्वत पंचमी तथा विभिन्न तीर्थंकरों के गर्भ-प्रवेश, जन्म, दीक्षा, कैवल्य प्राप्ति एवं निर्वाण दिवसों को भी पर्व के रूप में मनाया जाता है । इन दिनों में भी सामान्यतया मत रखा जाता है और जिन प्रतिमाओं की विशेष समारोह के साथ पूजा की जाती है। दीपावली का पर्व भी भगवान महावीर के निर्वाण दिवस के रूप में जैन समुदाय के द्वारा बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। जेन अध्यात्मवाद और लोक कल्याण के प्रश्न यह सत्य है कि जैनधर्म संन्यास मार्गी धर्म है। उसकी सांधना में आत्म शुद्धि और आत्मोपलब्धि पर अधिक जोर दिया गया है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन धर्म प्रश्नव्याकरण २/२/२ ३० Jain Education International मैं लोक मंगल या लोक कल्याण का कोई स्थान ही नहीं है। जैनधर्म यह तो अवश्य मानता है कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन अधिक उपयुक्त है । किन्तु इसके साथ ही वह यह भी मानता है कि उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में होना चाहिए। महावीर का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है। १२ वर्षों तक एकाकी साधना करने के पश्चात् वे पुनः सामाजिक जीवन में लौट आये। उन्होंने चतुर्विध संघ की स्थापना की तथा जीवन भर उसका मार्गदर्शन करते रहे । जैनधर्म सामाजिक कल्याण और सामाजिक सेवा को आवश्यक तो मानता है, किन्तु वह व्यक्ति के सुधार से समाज के सुधार की दिशा में आगे बढ़ता है। व्यक्ति समाज की प्रथम इकाई है । जब तक व्यक्ति नहीं सुधरेगा तब तक समाज नहीं सुधर सकता । जब तक व्यक्ति के जीवन में नैतिक और आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं होता तब तक सामाजिक जीवन में सुव्यवस्था और शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती । जो व्यक्ति अपने स्वार्थी और वासनाओं पर नियन्त्रण नहीं कर सकता वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता । लोक-सेवक और जन-सेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और द्वन्द्वों से दूर रहें यह जैन आचार संहिता का आधारभूत सिद्धान्त है चरित्रहीन व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिए घातक ही सिद्ध होंगे। व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त जो संगठन या समुदाय बनते हैं वे सामाजिक जीवन के सच्चे प्रतिनिधि नहीं है । क्या चोर, डाकू और शोषकों का समाज, समाज कहलाने का अधिकारी है ? महावीर की शिक्षा का सार यही है कि वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति ही सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में प्रवृत्ति का आधार बन सकती है। प्रश्न व्याकरण सूत्र में कहा गया है कि भगवान का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। जेन साधना में अहिंसा, सत्य, स्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के जो पांच व्रत माने गये हैं वे केवल वैयक्तिक साधना के लिए नहीं है, वे सामाजिक मंगल के लिए भी है। आत्म शुद्धि के साथ ही हमारे सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयास भी है। वे - For Private & Personal Use Only [ १५ www.jainelibrary.org

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