Book Title: Jain Adhyatmavad Adhunik Sandarbh me
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf

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Page 6
________________ काफी विवाद रहा है । दर्शन शब्द को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध, प्रशा और ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है । दर्शन शब्द का दृष्टिकोण - परक अर्थ भी लिया गया है । प्राचीन जैनागमों में दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग उसके दृष्टिकोणपरक अर्थ का द्योतक है। उत्तराध्ययन सूत्र तथा तत्त्वार्थसूत्र में दर्शन शब्द का अर्थ तत्वश्रद्धा भी माना गया है । २१ परवर्ती जैन साहित्य में दर्शन शब्द को देव गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त किया गया है । इस प्रकार जैन परम्परा में सम्यक् दर्शन आत्म-साक्षात्कार, तत्व अद्धा, अन्तबंध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अनेक अर्थों को अपने में समेटे है। सम्यक् दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहें या तत्वार्थ श्रद्धा उसमें वास्तविकता की दृष्टि से अधिक अन्तर नहीं होता है। अन्तर होता है उनकी उपलब्धि की विधि में । एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसी सत्य का उद्घाटन कर वस्तुतत्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है किन्तु दूसरा व्यक्ति ऐसे वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तुतत्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है । यद्यपि यहाँ दोनों का ही दृष्टिकोण यथार्थ होगा, फिर भी एक ने उसे स्वानुभूति में पाया है तो दूसरे ने उसे श्रद्धा के माध्यम से । श्रद्धा ही सम्यक दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ स्वानुभूति ही है और यही सम्यक दर्शन का वास्तविक अर्थ है। ऐसा सम्यग्दर्शन होता है निर्विकार निराकुल चित्तवृत्ति से, अतः प्रकारान्तर से उसे भी सम्यग्दृष्टि कहा जाता है । सम्यक दर्शन के पाँच लक्षण : जैन धर्म में सम्यक् दर्शन के निम्न पाँच लक्षण बताये गये हैं- ( १ ) सम अर्थात् समभाव, (२) संवेग अर्थात् आत्मा के आनन्दमय स्वरूप की अनुभूति अथवा सत्याभीप्सा, (२) निर्वेद अर्थात् अनासक्ति या वैराग्य, २१ उत्तराध्ययन, २८/३५ ; तत्त्वार्थ सूत्र, १ / २ । २२ आत्मसिद्धि, पृ० ४३ | १२] Jain Education International (४) अनुकम्पा अर्थात दूसरे व्यक्ति की पीड़ा को आत्म पीड़ा समझना और उसके प्रति कपणा का भाव रखना और (५) आस्तिक्य अर्थात् पुण्य-पाप, पुनर्जन्म, कर्म - सिद्धान्त और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करना । सम्यक् दर्शन के छः स्थान : जिस प्रकार बौद्ध साधना के अनुसार दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख से निवृत्ति हो सकती है और दुःखनिवृत्ति का मार्ग है इन चार आर्य सत्यों की स्वीकृति सम्यक् दृष्टि है, उसी प्रकार जैन-साधना के अनुसार षट् स्थानक (छः बातों) की स्वीकृति सम्यक् दर्शन है- (१) आत्मा है, (२) आत्मा नित्य है, (३) आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है, (४) आत्मा कृत कर्मों के फल का भोक्ता है, (५) आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता है और (६) मुक्ति का उपाय (मार्ग) है। १२ जैन तत्व विचारणा के अनुसार इन षट्स्थानकों पर प्रतीति सम्यग्दर्शन की साधना का आवश्यक अंग है। दृष्टिकोण की विशुद्धता एवं सदाचार दोनों ही इन पर निर्भर है ये पद स्थानक जैन साधना के केन्द्र बिन्दु हैं। ; सम्यक् ज्ञान का अर्थ : दृष्टिकोण की विशुद्धि पर ही शान की सम्यक्त्वता निर्भर करती है । अतः जैन साधना का दूसरा चरण है सम्यग्ज्ञान । सम्यक ज्ञान की मुक्ति का साधन स्वीकार किया गया है, लेकिन कौन-सा ज्ञान मुक्ति के लिए आवश्यक है, यह विचारणीय है। जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान के दो रूप पाये जाते हैं। सामान्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान वस्तु तत्व का उसके अनन्त पहलुओं से युक्त ज्ञान है और इस रूप में वह विचार शुद्धि का माध्यम है। जैन दर्शन के अनुसार एकांगी ज्ञान मिथ्यात्व है क्योंकि वह सत्य के अनन्त पक्षों का अपलाप करता है। जब तक आग्रह बुद्धि है तब तक वीतरागता सम्भव ही नहीं है और जब तक वीतराग दृष्टि नहीं है तब तक यथार्थ ज्ञान भी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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